Saturday, June 17, 2023

हावड़ा ब्रिज में क्या खास है?

अस्सी साल से भी पहले निर्मित हावड़ा ब्रिज इंजीनियरिंग का चमत्कार है। यह विश्व के व्यस्ततम कैंटीलीवर ब्रिजों में से एक है। कोलकाता और हावड़ा को जोड़ने वाले इस पुल जैसे अनोखे पुल संसार भर में केवल गिने-चुने ही हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कोलकाता और हावड़ा के बीच बहने वाली हुगली नदी पर एक तैरते हुए पुल के निर्माण की परिकल्पना की गई। तैरते हुआ पुल बनाने का कारण यह था कि नदी में रोजाना काफी जहाज आते-जाते थे। खम्भों वाला पुल बनाते तो जहाजों का आना-जाना रुक जाता। अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज एक्ट पास किया, पर योजना बनने में बहुत वक्त लगा। पुल का निर्माण सन् 1937 में ही शुरू हो पाया। सन् 1942 में यह बनकर पूरा हुआ। इसे बनाने में 26,500 टन स्टील की खपत हुई। इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह ज़रूर कहा गया था ‍कि वह भारत में बने स्टील का इस्तेमाल करेगा। टिस्क्रॉम नाम से प्रसिद्ध इस स्टील को टाटा स्टील ने तैयार किया। इसके इस्पात के ढाँचे का फैब्रिकेशन ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने कोलकाता स्थित चार कारखानों में किया। 1528 फुट लंबे और 62 फुट चौड़े इस पुल में लोगों के आने-जाने के लिए 7 फुट चौड़ा फुटपाथ छोड़ा गया था। 3 फरवरी, 1943 को आम जनता के उपयोग के लिए इसे खोल दिया गया। हावड़ा और कोलकाता को जोड़ने वाला हावड़ा ब्रिज जब बनकर तैयार हुआ था तो इसका नाम था न्यू हावड़ा ब्रिज। 14 जून 1965 को गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर इसका नाम रवींद्र सेतु कर दिया गया पर प्रचलित नाम फिर भी हावड़ा ब्रिज ही रहा। इसपर पूरा खर्च उस वक्त की कीमत पर ढाई करोड़ रुपया (24 लाख 63,887 पौंड)आया। इस पुल से होकर पहली बार एक ट्रामगाड़ी चली थी।

जुगनू कैसे चमकते हैं?

जुगनू उड़ने वाला कीड़ा है, जिसके पेट में रासायनिक क्रिया से रोशनी पैदा होती है। इसे बायोल्युमिनेसेंस कहते हैं। यह कोल्ड लाइट कही जाती है इसमें इंफ्रा रेड और अल्ट्रा वॉयलेट दोनों फ्रीक्वेंसी नहीं होतीं।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 17 जून, 2023 को प्रकाशित

Saturday, June 3, 2023

श्रीअन्न क्या है?

अंग्रेजी का शब्द है मिलेट्स, जिसका सामान्य अर्थ होता है मोटा अनाज। मोटा अनाज माने ज्वार (सोरग़म और पर्ल मिलेट्स), बाजरा, मडुआ, रागी, मक्का, जई, कंगनी, कोदों, सावां, चेना, कुटटू, चौलाई, कुटकी वगैरह। इनके अनेक रूप और अनेक नाम हैं। हिंदी में इन्हें बेझर या मोटा अनाज कहते हैं। गत 18 मार्च को दिल्ली में हुए वैश्विक मिलेट्स सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन्हें श्रीअन्न या श्रीखाद्य का नाम दिया। भारत के प्रस्ताव और प्रयासों के बाद ही संयुक्त राष्ट्र ने 2023 को ‘इंटरनेशनल मिलेट इयर’ घोषित किया है।

इनमें रेशे, विटामिन बी-कॉम्प्लेक्स, अमीनो एसिड, वसीय अम्ल, विटामिन-ई, आयरन, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, पोटेशियम, विटामिन बी-6, व कैरोटिन काफी ज़्यादा मात्रा में पाए जाते है। ग्लूकोज़ कम होने से इनमें मधुमेह का ख़तरा कम होता है। इसलिए इन फसलों को सुपर फ़ूड कहते है। ये फसलें कम पानी में अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उगाई जा सकती हैं तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के परिणाम आसानी से सहन करने की क्षमता रखती है। इन की रोग-प्रतिरोधक क्षमता बहुत अधिक होने से उत्पादन लागत बहुत कम होती है। भारत में, मुख्य रूप से गरीब और सीमांत किसानों और आदिवासी समुदायों द्वारा शुष्क भूमि में मोटे अनाजों की खेती की जाती है। ये अनाज शुष्क क्षेत्रों और उच्च तापमान पर अच्छी तरह से बढ़ते हैं; वे खराब मिट्टी, कम नमी और महँगे रासायनिक कृषि इनपुट की कमी से जूझ रहे लाखों गरीब और सीमांत किसानों के लिए ये वरदान हैं।  

सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने कहा, विश्व जब ‘इंटरनेशनल मिलेट ईयर’ मना रहा है, तो भारत इस अभियान की अगुवाई कर रहा है। ‘ग्लोबल मिलेट्स कॉन्फ्रेंस’ इसी दिशा का एक महत्वपूर्ण कदम है। एफएओ के अनुसार, 2020 में मोटे अनाजों का वैश्विक उत्पादन 3.0464 करोड़ मीट्रिक टन था और भारत की हिस्सेदारी इसमें 1.249 मीट्रिक टन थी, जो मोटे अनाजों के कुल उत्पादन का 41 प्रतिशत है।

भारतीय सेना ने भी हाल में जवानों के राशन में श्रीअन्न (मिलेट्स) आटे की फिर से शुरुआत की है। सेना ने करीब पांच दशक पहले गेहूँ के आटे के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए मोटे अनाज का इस्तेमाल बंद कर दिया था। सेना ने गत 22 मार्च को जारी बयान में कहा कि यह फैसला सैनिकों को स्थानीय और पारंपरिक अनाज की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए किया गया है।

राजस्थान के नॉलेज कॉर्नर में 03 जून, 2023 को प्रकाशित

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