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Sunday, April 19, 2020

गज़ल और नज्म में क्या फर्क है?


ham se puuchho ki Gazal kyaa hai Gazal kaa fan kyaa - Sherनज़्म मोटे तौर पर कविता या पद्य है। उर्दू में गज़ल का एक खास अर्थ है, इसलिए नज़्म माने गज़ल से इतर पद्य है, जो तुकांत भी हो सकता है अतुकांत भी। छंदेतर नज़्म को आज़ाद नज़्म कहते हैं। गज़ल एक ही बहर और वज़न के शेरों का समूह है। एक गज़ल में पाँच या पाँच से ज़्यादा शेर हो सकते हैं।  गज़ल अरबी काव्यशास्त्र की एक शैली है। यह शैली अरबी से फारसी में आई। वहाँ से उर्दू में आई। अब तो दूसरी भारतीय भाषाओं में गज़लें लिखी जाने लगीं हैं। गज़ल का प्रत्येक शेर अपने अर्थ और भाव की दृष्टि से पूर्ण होता है। हरेक शेर में समान विस्तार की दो पंक्तियाँ या टुकडे़ होते हैं, जिन्हें मिसरा कहा जाता है। प्रत्येक शेर के अंत का शब्द प्राय: एक सा होता है और रदीफ कहलाता है। तुक व्यक्त करने वाला शब्द काफिया कहलाता है। 

गज़ल के पहले शेर को मत्ला कहते हैं। गज़ल के आखिरी शेर को जिसमें शायर का नाम या उपनाम आता है उसे मक्ता कहते हैं।  नीचे लिखी गज़ल के मार्फत हम कुछ बातें समझ सकते हैं:-

कोई उम्मीद बर नहीं आती। कोई सूरत नज़र नहीं आती।1।
मौत का एक दिन मुअय्यन है। नींद क्यों रात भर नहीं आती।2।
पहले आती थी हाले दिल पे हँसी। अब किसी बात पर नहीं आती।3।
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी। कुछ हमारी खबर नहीं आती।4।
काबा किस मुँह से जाओगे ग़ालिब। शर्म तुमको म़गर नहीं आती।5।

इस गज़ल का काफिया बर, नज़र, भर, खबर, म़गर हैं। रदी़फ है नहीं आती। सबसे आखिरी शेर गज़ल का मक्ता है क्योंकि इसमें त़खल्लुस है। शेर की पंक्तियों की लम्बाई के अनुसार गज़ल की बहर नापी जाती है। इसे वज़न या मीटर भी कहते हैं। हर गज़ल उन्नीस प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती है। तुकांत गज़लें दो प्रकार की होती हैं। मुअद्दस, जिनके शेरों में रदीफ और काफिया दोनों का ध्यान रखा जाता है। मुकफ्फा, जिनमें केवल काफिया का ध्यान रखा जाता है। 

उत्तर भारत में सबसे पहले ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती ने गज़ल की रचना की। दक्षिण में बीजापुर के बादशाह इब्राहीम अली आदिलशाह ने गज़लें लिखीं। सबसे ज्यादा लोकप्रियता मुहम्मद कुली कुतुबशाह को मिली। हिन्दी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने गज़ल लिखने का प्रयास किया। प्रसाद की कविता भूल गज़ल शैली में लिखी गई है। 
गज़ल का मूल विषय प्रेमालाप है। इसमें लौकिक प्रेम के साथ तसव्वुफ यानी भक्ति परक रचनाएं भी होतीं हैं। इनमें प्रेयसी के लिए हमेशा पुल्लिंग का प्रयोग किया जाता है।

Sunday, December 31, 2017

भारत का राष्ट्रीय कैलेंडर शक संवत

राष्ट्रीय शाके अथवा शक संवत भारत का राष्ट्रीय कलैण्डर है। इसका प्रारम्भ यह 78 वर्ष ईसा पूर्व माना जाता है। यह संवत भारतीय गणतंत्र का सरकारी तौर पर स्वीकृत अपना राष्ट्रीय संवत है। ईसवी सन 1957 (चैत्र 1, 1879 शक) को भारत सरकार ने इसे देश के राष्ट्रीय पंचांग के रूप में मान्यता प्रदान की थी। इसीलिए राजपत्र (गजट), आकाशवाणी और सरकारी कैलेंडरों में ग्रेगोरियन कैलेंडर के साथ इसका भी प्रयोग किया जाता है। विक्रमी संवत की तरह इसमें चन्द्रमा की स्थिति के अनुसार काल गणना नहीं होती, बल्कि सौर गणना होती है। यानी महीना 30 दिन का होता है। इसे शालिवाहन संवत भी कहा जाता है। इसमें महीनों का नामकरण विक्रमी संवत के अनुरूप ही किया गया है, लेकिन उनके दिनों का पुनर्निर्धारण किया गया है। इसके प्रथम माह (चैत्र) में 30 दिन हैं, जो अंग्रेजी लीप ईयर में 31 दिन हो जाते हैं। वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़, श्रावण एवं भाद्रपद में 31-31 दिन एवं शेष 6 मास में यानी आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ तथा फाल्गुन में 30-30 दिन होते हैं। ईसवी सन 500 के बाद संस्कृत में लिखित अधिकतर ज्योतिष ग्रन्थ शक संवत का प्रयोग करने लगे। इस संवत का यह नाम क्यों पड़ा, इस विषय में विभिन्न मत हैं। इसे कुषाण राजा कनिष्क ने चलाया या किसी अन्य ने, इस विषय में अन्तिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सका है। वराहमिहिर ने इसे शक-काल तथा शक-भूपकाल कहा है। उत्पल (लगभग 966 ई.) ने बृहत्संहिता की व्याख्या में कहा है-जब विक्रमादित्य द्वारा शक राजा मारा गया तो यह संवत चला। सबसे प्राचीन शिलालेख, जिसमें स्पष्ट रूप से शक संवत का उल्लेख है, 'चालुक्य वल्लभेश्वर' का है, जिसकी तिथि 465 शक संवत अर्थात 543 ई. है। क्षत्रप राजाओं के शिलालेखों में वर्षों की संख्या व्यक्त है, किन्तु संवत का नाम नहीं है, किन्तु वे संख्याएँ शक काल की द्योतक हैं। यों कुषाण राजा कनिष्क को शक संवत का प्रतिष्ठापक माना जाता है। शक राज्यों को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने समाप्त कर दिया पर उनका स्मारक शक संवत चल रहा है। इसमें महीनों का क्रम इस प्रकार होता है।

क्रम         माह         दिवस        मास प्रारम्भ अंग्रेजी तिथि
1           चैत्र         30/31       22 मार्च    
2           वैशाख       31          21 अप्रेल   
3           ज्येष्ठ       31          22 मई
4           आषाढ़       31          22 जून
5           श्रावण       31          23 जुलाई
6           भाद्र        31          23 अगस्त
7           आश्विन     30          23 सितंबर
8           कार्तिक      30          23 अक्टूबर
9           मार्गशीर्ष     30          22 नवम्बर
10          पौष         30          22 दिसम्बर
11          माघ         30          23 जनवरी

12          फाल्गुन       30          20 फ़रवरी

कादम्बिनी के ज्ञानकोश स्तम्भ में प्रकाशित

Sunday, February 12, 2017

रिमोट कंट्रोल क्या होता है?


रिमोट कंट्रोल क्या होता है और इसका आविष्कार किसने किया?
अभय कुमार, एजी कॉलोनी, मनं : ए/62, पोस्ट: आशियाना नगर, पटना-800025


रिमोट कंट्रोल से आपका तात्पर्य टीवी या दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को इंफ्रारेड मैग्नेटिक स्पेक्ट्रम से संचालित करना है। यों आज सुदूर अंतरिक्ष में घूम रहे यानों को भी दूर से ही नियंत्रित किया जाता है, पर हम जिन रिमोट कंट्रोल गैजेट्स की बात कर रहे हैं वे कुछ दूरी यानी पाँच मीटर के आसपास तक काम करते हैं। आजकल के रिमोट कंट्रोलर प्रायः इंफ्रारेड का उपयोग करके दूर से ही ऐसे काम करने का आदेश देते हैं, जिनकी व्यवस्था मूल उपकरण में होती है। सत्तर के दशक से पहले के रिमोट कंट्रोलर अल्ट्रासोनिक तरंगों का इस्तेमाल करते थे। आजकल 'यूनिवर्सल कंट्रोलर' भी मिलने लगे हैं जो कई उत्पादकों के टीवी आदि को नियंत्रित कर सकते हैं। यानी एक ही रिमोट कंट्रोल से आप टीवी, होम थिएटर, सीडी प्‍लेयर के अलावा कई दूसरी रिमोट कंट्रोल डिवाइसेस कंट्रोल कर सकते हैं। रेडियो तकनीक का आविष्कार होने के बाद रेडियो तरंगों के मार्फत संदेश भेजने की शुरुआत भी हो गई थी। शुरूआती रिमोट कंट्रोल रेडियो तरंगों के मार्फत संचालित होते थे। सन 1898 में निकोला टेस्ला ने अमेरिका में पहला रिमोट पेटेंट कराया जो पानी पर चल रहे नाव को दूर से संचालित कर सकता था।

‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’-यह श्लोकांश ‘वाल्मीकि रामायण’ के किस सर्ग/कांड में आया है। उस सर्ग/कांड में इसका क्रमांक क्या है?

चित्रलेखा अग्रवाल द्वारा: श्रीराज शंकर गर्ग, डीसीएम. स्टोर, चौमुखा पुल, मुरादाबाद-244001 (उ.प्र.)


यह श्लोक का एक हिस्सा है, पूरा श्लोक नहीं। इसके बारे में जो जानकारी मैं हासिल कर पाया हूँ उसका सार लिख रहा हूँ। बेहतर जानकार और विद्वान इस विषय पर रोशनी डालेंगे तो मुझे खुशी होगी। सामान्य धारणा है कि यह श्लोकांश वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड से लिया गया है। इसके अनुसार रावण के निधन के बाद राम लक्ष्मण से कहते है:- अपि स्वर्णमयी लंका मे लक्ष्मण न रोचते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।।

रावण के निधन के बाद लक्ष्मण ने राम से कहा कि कुछ दिन और लंका में रहें क्योंकि यह अत्यंत रमणीय स्थान है। तब राम ने कहा, हालांकि लंका स्वर्णमयी और सुंदर है, पर मुझे रुचिकर नहीं लगती। मुझे अपनी जन्मभूमि वापिस जाना है क्योंकि जननी और जन्मभूमि दोनों स्वर्ग से भी महान हैं। वाल्मीकि रामायण के तीन सौ के आसपास संस्करण हैं। इस ग्रंथ में 24,000 श्लोक और पाँच सौ सर्ग हैं। हरेक संस्करण में एकरूपता नहीं है। सभी संस्करणों में यह श्लोक नहीं मिलता। हिन्दी प्रचार प्रेस, मद्रास से 1930 में प्रकाशित वाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड में यह श्लोकांश है। पूरा श्लोक इस प्रकार है- मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव| जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ||(6-124-17)

अर्थात संसार में मित्रों, धनवानों और धन-धान्य का बहुत सम्मान होता है, पर माँ और जन्मभूमि स्वर्ग से भी अधिक सम्मानित होते हैं। युद्ध कांड के 124 वें सर्ग के 17वें श्लोक को नीचे लिखे लिंक में जाकर पढ़ा जा सकता है-


कुछ सरकारी गाड़ियों पर लाल बत्ती और कुछ पर नीली बत्ती लगी रहती है। इन बत्तियों को सरकार के कौन से पद के लोग लगाते हैं और इन दोनों बत्तियों में क्या फर्क होता है?

शबीब अहमद, डी-30, जीटीबी नगर, करैली, इलाहाबाद-211016


आपने अक्सर देखा होगा कि कोई एम्बुलेंस खास तरीके का सायरन बजाती आती है और लोग उसे रास्ता देते हैं। इसे आपातकालीन सेवा संकेत कहते हैं। एम्बुलेंस की छत पर रंगीन बत्तियाँ भी लगी रहती हैं। इसी तरह की व्यवस्था फायर ब्रिगेड के साथ भी होती है। पुलिस की गश्ती गाड़ियों पर भी। इसका उद्देश्य ज़रूरी काम पर जा रहे लोगों को पहचानना और मदद करना है। महत्वपूर्ण सरकारी अधिकारियों, फौजी और नागरिक पदाधिकारियों के लिए भी ज़रूरत के अनुसार ऐसी व्यवस्थाएं की जाती हैं।

भारत में सेंट्रल मोटर ह्वीकल्स रूल्स 1989 के नियम 108(3) के अंतर्गत गाड़ियों पर बत्ती लगाने के जो निर्देश दिए हैं उनके अंतर्गत आने वाले कुछ पदाधिकारियों की सूची नीचे दे रहे हैं। ये केन्द्रीय निर्देश हैं। इनके अलावा राज्य सरकारों के निर्देश भी होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने दिसम्बर 2013 में सभी राज्यों और केन्द्र शासित क्षेत्रों को अपने नियम युक्तिसंगत बनाने का निर्देश दिया था। इन नियमों में आवश्यकतानुसार बदलाव होता रहता है।

लाल बत्ती फ्लैशर के साथ

राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, पूर्व राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश, लोकसभा स्पीकर, कैबिनेट मंत्री, हाई कोर्टों के मुख्य न्यायाधीश, पूर्व प्रधानमंत्री, नेता विपक्ष, राज्यों के मुख्यमंत्री आदि।

लाल बत्ती बिना फ्लैशर के

मुख्य चुनाव आयुक्त, सीएजी, लोकसभा उपाध्यक्ष, राज्य मंत्री, सचिव स्तर के अधिकारी आदि।

पीली बत्ती

कमिश्नर इनकम टैक्स, रिवेन्यू कमिश्नर, डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर, पुलिस अधीक्षक।

नीली बत्ती

एम्बुलेंस, पुलिस की गाड़ियाँ

इसी तरह गाड़ियों में सायरन लगाने के नियम भी हैं। दिल्ली मोटर ह्वीकल्स रूल्स 1993 के अनुसार सिर्फ इमरजेंसी वाहन जैसे फायर ब्रिगेड, एंबुलेंस, पुलिस कंट्रोल रूम की वैन में चमकने वाली या घूमने वाली लाल बत्ती के साथ सायरन लगा सकते है। वीआईपी की पायलट गाड़ी पर भी सायरन लगाया जा सकता है। दूसरे राज्यों में भी इसी प्रकार के नियम हैं।

कादम्बिनी के अक्तूबर 2016 अंक में प्रकाशित

Monday, February 6, 2017

‘ज्ञ’ का सही उच्चारण क्या है?

‘ज्ञ’ का सही उच्चारण क्या है? (ज्ञान/ग्यान/ज्यान)

अमर परमार, त-14, अंबेडकर कॉलोनी, कुन्हाड़ी, कोटा-324008 (राज.)

हिन्दी व्याकरण के शुरुआती विद्वान कामता प्रसाद गुरु के अनुसार हिन्दी में ‘ज्ञ’ का उच्चारण बहुधा ‘ग्यँ’ के सदृश होता है। मराठी लोग इसका उच्चारण ‘द्न्यँ’ के समान करते हैं। पर इसका उच्चारण प्रायः ‘ज्यँ’ के समान है। श्याम सुन्दर दास के ‘हिंदी शब्दसागर’ में ‘ज्ञ’ की परिभाषा में कहा गया है, ज और ञ के संयोग से बना हुआ संयुक्त अक्षर। केंद्रीय हिंदी निदेशालय ने जो मानक वर्तनी तैयार की है उसमें देवनागरी वर्णमाला के लिए उच्चारणों को स्पष्ट करते हुए कहा है, “क्ष, त्र, ज्ञ और श्र भले ही वर्णमाला में दिए जाते हैं किंतु ये एकल व्यंजन नहीं हैं। वस्तुत : ये क्रमशः: क् + ष, त् + र, ज् + ञ और श् + र के व्यंजन – संयोग हैं।” इसके अनुसार ‘ज्ञ’ को ज् + ञ का संयोग माना जाए।

इंटरनेट पर इस विषय पर बहस चलती रहती है। विज्ञान के साथ हिंदी और संस्कृत के विदवान योगेन्द्र जोशी के अनुसार, आम तौर पर हिंदीभाषी इसे ‘ग्य’ बोलते हैं, जो अशुद्ध किंतु सर्वस्वीकृत है। तदनुसार इसे रोमन में gya लिखा जाएगा जैसा आम तौर पर देखने को मिलता है। दक्षिण भारत (jna) तथा महाराष्ट्र (dnya) में स्थिति कुछ भिन्न है। संस्कृत के अनुसार होना क्या चाहिए यदि इसका उत्तर दिया जाना हो तो किंचित् गंभीर विचारणा की आवश्यकता होगी। उन्होंने लिखा है, मेरी टिप्पणी वरदाचार्यरचित ‘लघुसिद्धांतकौमुदी’ और स्वतः अर्जित संस्कृत ज्ञान पर आधारित है। मेरी जानकारी के अनुसार ‘ज्ञ’ केवल संस्कृत मूल के शब्दों/पदों में प्रयुक्त होता है। मेरे अनुमान से ऐसे शब्द/पद शायद हैं ही नहीं, जिनमें ‘ञ’ स्वतंत्र रूप से प्रयुक्त हो।...‘ज्ञ’ वस्तुतः ‘ज’ एवं ‘ञ’ का संयुक्ताक्षर है। ये दोनों संस्कृत व्यंजन वर्णमाला के ‘चवर्ग’ के क्रमशः तृतीय एवं पंचम वर्ण हैं। जानकारी होने के बावजूद मेरे मुख से ‘ज्ञ’ का सही उच्चारण नहीं निकल पाता है। पिछले पांच दशकों से ‘ग्य’ का जो उच्चारण जबान से चिपक चुका है उससे छुटकारा नहीं मिल पा रहा है। आपको हिंदी शब्दकोशों में ‘ज्ञ’ से बनने वाले शब्द प्रायः ‘ज’ के बाद मिलेंगे।

हिन्दी भाषा के विवेचन पर लिखने वाले अजित वडनेरकर के अनुसार देवनागरी के ‘ज्ञ’ वर्ण ने अपने उच्चारण का महत्व खो दिया है। मराठी में यह ग+न+य का योग हो कर ग्न्य सुनाई पड़ती है तो महाराष्ट्र के ही कई हिस्सों में इसका उच्चारण द+न+य अर्थात् द्न्य भी है। गुजराती में ग+न यानी ग्न है तो संस्कृत में ज+ञ के मेल से बनने वाली ध्वनि है। दरअसल इसी ध्वनि के लिए मनीषियों ने देवनागरी लिपि में ज्ञ संकेताक्षर बनाया मगर सही उच्चारण बिना समूचे हिन्दी क्षेत्र में इसे ग+य अर्थात ग्य के रूप में बोला जाता है। ज+ञ के उच्चार के आधार पर ज्ञान शब्द से जान अर्थात जानकारी, जानना जैसे शब्दों की व्युत्पत्ति हुई। अनजान शब्द उर्दू का जान पड़ता है मगर वहां भी यह हिन्दी के प्रभाव में चलने लगा है। मूलतः यह हिन्दी के जान यानी ज्ञान से ही बना है जिसमें संस्कृत का अन् उपसर्ग लगा है। प्राचीन भारोपीय भाषा परिवार की धातु gno का ग्रीक रूप भी ग्नो ही रहा मगर लैटिन में बना gnoscere और फिर अंग्रेजी में ‘ग’ की जगह ‘क’ ने ले और gno का रूप हो गया know हो गया। बाद में नॉलेज जैसे कई अन्य शब्द भी बने। रूसी का ज्नान (जानना), अंग्रेजी का नोन (ज्ञात) और ग्रीक भाषा के गिग्नोस्को (जानना),ग्नोतॉस(ज्ञान) और ग्नोसिस (ज्ञान) एक ही समूह के सदस्य हैं। गौर करें हिन्दी-संस्कृत के ज्ञान शब्द से इन विजातीय शब्दों के अर्थ और ध्वनि साम्य पर।

विश्व हिन्दी सम्मेलन एवं अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में क्या अंतर है तथा इनका संचालन किस प्रकार होता है?

ऊषा गुप्ता, महाराजा रेजीडेंसी, फ्लैट नं.-102, बिचूरकर की गोठ, चावड़ी बाजार, ग्वालियर-474001 (म.प्र.)

विश्व हिन्दी सम्मेलन हिन्दी भाषा का सबसे बड़ा अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन है, जिसे भारत सरकार का समर्थन भी प्राप्त है। अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के दो अर्थ हैं। एक अर्थ में कोई भी सम्मेलन जो हिन्दी के संदर्भ में हो और उसका स्वरूप अंतरराष्ट्रीय हो तो उसे अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन कहा जा सकता है। पर संगठनात्मक दृष्टि से पिछले तीन साल से अमेरिका में एक अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन हो रहा है, जिसने स्थायी रूप ग्रहण कर लिया है। यह सम्मेलन सबसे पहले अप्रैल 2014 न्यूयॉर्क विवि में हुआ था। उसके बाद अप्रैल 2015 और मई 2016 में रटजर्स विवि, न्यूजर्सी में दूसरे और तीसरे सम्मेलन का आयोजन हुआ।

विश्व भर से हिन्दी विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार, भाषा विज्ञानी, विषय विशेषज्ञ तथा हिन्दी प्रेमी विश्व हिन्दी सम्मेलन में जुटते हैं। आचार्य विनोबा भावे की प्रेरणा से शुरू हुए इस सम्मेलन को कई राज्य सरकारों और भारत सरकार का सहयोग प्राप्त है। सन 1975 में विश्व हिन्दी सम्मेलनों की शृंखला शुरू हुई। इस बारे में पूर्व प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने पहल की थी। पहला विश्व हिन्दी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से नागपुर में हुआ जिसमें विनोबा भावे ने अपना सन्देश भेजा। शुरू में इस सम्मेलन की समयावधि स्थिर नहीं थी। कुछ समय बाद इसे हरेक चौथे साल में आयोजित करने की कोशिश की गई। अब हर तीन साल बाद आयोजित करने का प्रयास है। सितम्बर 2015 में दसवाँ विश्व हिन्दी सम्मेलन भोपाल में हुआ था। ये सम्मेलन मॉरिशस, नई दिल्ली, फिर मॉरिशस, त्रिनिडाड व टोबेगो, लन्दन, सूरीनाम, न्यूयॉर्क और जोहानेसबर्ग और भोपाल में हो चुके हैं।

1975 में नागपुर में आयोजित प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन के दौरान मॉरिशस के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम ने विश्व स्तर पर हिन्दी सम्बद्ध गतिविधियों के समन्वयन के लिए एक संस्था की स्थापना का विचार रखा। विचार ने मंतव्य का रूप धारण किया और लगातार कई विश्व हिन्दी सम्मेलनों में मंथन के बाद मॉरिशस में विश्व हिंदी सचिवालय स्थापित करने पर भारत और मॉरिशस सरकारों के बीच सहमति हुई। दोनों सरकारों के बीच समझौते पर हस्ताक्षर किए गए तथा मॉरिशस की विधान सभा में अधिनियम पारित किया गया। 11 फ़रवरी, 2008 को विश्व हिंदी सचिवालय ने आधिकारिक रूप से काम शुरू किया। सचिवालय का मुख्य उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी का प्रचार करना तथा हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने के लिए एक वैश्विक मंच तैयार करना है।

(कादम्बिनी के सितम्बर 2016 के अंक में उपरोक्त उत्तर छपने के बाद मुझे श्री जयप्रकाश मानस का यह फेसबुक संदेश मिलाः-
जोशी जी नमस्कार. आपका उत्तर पढ़ा अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन के बारे में ....इसके अलावा 'अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन' 13 देशों में हो चुका है, इस सम्मेलन के पहले मनोनीत अध्यक्ष डॉ. सुप्रसिद्ध गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र थे, वर्तमान अध्यक्ष हैं सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, उपाध्यक्ष द्वय अशोक माहेश्वरी (दिल्ली) व डॉ. रंजना अरगड़े (गुजरात विवि) मैं समन्वयक. देश विदेश के हज़ारों रचनाकार, प्रोफेसर, शोधार्थी, हिन्दी सेवी आदि सदस्य हैं . आपकी सहज जानकारी के लिए :अगला यानी 13 वाँ सम्मेलन बाली/इंडोनेशिया में 2 से 9 फरवरी 2017 तक हो रहा है... आप भी सहभागिता हेतु आमंत्रित हैं.) यह अतिरिक्त जानकारी मैं यहाँ दे रहा हूँ।

Rx (आरएक्स) यह चिह्न-निशान किस बात का है, इसका क्या आशय है? यह निशान अक्सर डॉक्टर क्यों बनाते हैं?

मुहम्मद आसिफ सिद्दीकी, शिक्षामित्र, मलेसेमऊ, गोमती नगर, लखनऊ-226010

दरअसल यह निशान Rx (आरएक्स) नहीं होता बल्कि R की अंतिम रेखा को आगे बढ़ाते हुए उसपर क्रॉस लगाकर ℞ बनता है। आमतौर पर माना जाता है कि यह लैटिन शब्द रेसिपी का निशान है। यानी डॉक्टरी हिदायत की इलाज के लिए इस तरह लें। कुछ लोग इसे यूनानी जुपिटर के चिह्न जियस के रूप में लेते हैं।

कादम्बिनी के सितम्बर 2016 के अंक में प्रकाशित

Tuesday, January 3, 2017

क्या कुत्ते और बिल्ली भी कभी घास खाते हैं?

क्या कुत्ते और बिल्ली भी कभी घास खाते हैं? अगर खाते हैं, तो क्या भोजन के रूप में खाते हैं?

तेजस्विनी गोयल पुत्री: सुनील गोयल, मालाखेड़ा बाजार (हरि किशन न्यूज पेपर एजेंसी), राजगढ़ (अलवर)-301408 


आपने कुत्ते और बिल्ली को कई बार घास खाते देखा होगा। खासतौर से कुत्ते घास खाकर उलटी करते हैं। दरअसल प्रकृति ने उन्हें अपना इलाज करने का यह तरीका सिखाया है। बीमार होने पर वे ऐसा करते हैं। वे प्राकृतिक रूप से घास नहीं खाते, लेकिन बीमार पड़ने पर दोनों खास किस्म की घास खाते हैं। घास खाने के उनका पेट में अफारा होता और बीमारी पैदा कर रही चीज उल्टी या दस्त के साथ बाहर आ जाती है। पालतू कुत्ते ही नहीं जंगली कुत्ते भी इसी तरह अपना इलाज करते हैं। ऐसे अध्ययन सामने आए हैं, जिनसे पता लगता है कि कुत्ते अपनी पाचन शक्ति को बेहतर बनाने के लिए भी ऐसा करते हैं। कुत्ते-बिल्ली ही नहीं और भी कई जीव ऐसे ही अपना प्राकृतिक इलाज करते हैं। उनका यह सहज ज्ञान ध्यान खींचता है।

चिंपाजी जब विषाणुओं के संक्रमण से बीमार होते हैं या फिर उन्हें डायरिया या मलेरिया होता है तो वे एक खास पौधे तक जाते हैं। चिंपाजियों का पीछा कर वैज्ञानिक आसपिलिया नाम के पौधे तक पहुंचे। इसकी खुरदुरी पत्तियां चिंपाजियों का पेट साफ करती हैं। आसपिलिया की मदद से परजीवी जल्द शरीर से बाहर निकल जाते हैं। संक्रमण भी कम होने लगता है। तंजानिया के लोग भी इस पौधे का दवा के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। काला प्लम विटेक्स डोनियाना, बंदर बड़े चाव से खाते हैं। यह सांप के जहर से लड़ता है। यलो फीवर और मासिक धर्म की दवाएं बनाने के लिए भी इनका इस्तेमाल होता है। बीमार होने पर भेड़ ऐसे पौधे चरती है जिनमें टैननिन की मात्रा बहुत ज्यादा हो। ठीक होने के बाद वह फिर से सामान्य घास चरने लगती है। 

जीरो (शून्य) एफआईआर क्या होती है? इसमें और सामान्य एफआईआर में क्या अंतर है?

सत्य स्वरूप दत्त, 21, विजया हैरिटेज, कदमा, जमशेदपुर-831005


प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) पुलिस द्वारा तैयार किया गया एक लिखित अभिलेख है, जिसमें संज्ञेय अपराध की जानकारी होती है। मूलतः यह पीड़ित व्यक्ति की शिकायत है। यह एक महत्वपूर्ण दस्तावेज इसलिए है, क्योंकि इसके आधार पर ही भविष्य की न्यायिक प्रक्रिया चलती है। दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तला, यदि पुलिस थाने के भार-साधक अधिकारी को मौखिक दी गई हैं तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा ।

शून्य एफआईआर एक नई अवधारणा है, जो दिसम्बर 2012 में दिल्ली में हुए गैंगरेप के बाद सामने आई है। इसकी सलाह जस्टिस जेएस वर्मा की अध्यक्षता में बनाई गई समिति ने की थी। सामान्यतः एफआईआर उस थाने में दर्ज होती है जिसके क्षेत्राधिकार में अपराध हुआ हो। ज़ीरो एफआईआर किसी भी थाने में दर्ज कराई जा सकती है। इसके बाद पुलिस और न्याय प्रक्रिया से जुड़े विभागों को जिम्मेदारी बनती है कि एफआईआर का सम्बद्ध थाने में स्थानांतरण कराएं। मूलतः यह महिलाओं को सुविधा प्रदान कराने की व्यवस्था है। और इसका उद्देश्य यह भी है कि पुलिस फौरन कार्रवाई करे। अभी देश के तमाम पुलिस अधिकारी भी इस व्यवस्था से खुद को अनभिज्ञ बताते हैं।

रॉकेट वगैरह छोड़ते समय उल्टी गिनती गिनी जाती है, ऐसा क्यों? 

खुशी शर्मा, 2, नाथानी कांप्लेक्स, न्यू शांति नगर, रायपुर (छ.ग.)


आपने मुहावरा सुना होगा कि फलां की उलटी गिनती शुरू हो गई. यानी कि अंत करीब है। इस मुहावरे को बने अभी सौ साल भी नहीं हुए हैं, क्योंकि उलटी गिनती की अवधारणा बहुत पुरानी नहीं है। काउंटडाउन सिर्फ रॉकेट छोड़ने के लिए ही इस्तेमाल नहीं होता। फिल्में शुरू होने के पहले शुरुआती फुटेज पर उल्टी गिनतियाँ होती हैं। नया साल आने पर पुराने साल के आखिरी सप्ताह काउंटडाउन शुरू हो जाता है।

काउंटडाउन सिर्फ रॉकेट छोड़ने के लिए ही इस्तेमाल नहीं होता। बल्कि इसकी शुरुआत कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में नौका प्रतियोगिता में हुई थी। सन 1929 में फ्रिट्ज लैंग की एक जर्मन साइंस फिक्शन मूवी डाई फ्रॉ इम मोंड में चंद्रमा के लिए रॉकेट भेजने के पहले नाटकीयता पैदा करने के लिए काउंटडाउन दिखाया गया। पर अब इस काउंटडाउन का व्यावहारिक इस्तेमाल भी होता है। आमतौर पर एक सेकंड की एक संख्या होती है। उल्टी संख्या बोलने से बाकी बचे सेकंडों का पता लगता है। विमान के कॉकपिट में भी होता है।

उपग्रह प्रक्षेपण के लिए 72 से 96 घंटे पहले उलटी गिनती शुरू की जाती है. इस दौरान उड़ान से पहले की कुछ प्रक्रियाएं पूरी की जाती हैं. रॉकेट के साथ उपग्रह को जोड़ना, ईंधन भरना और सहायक उपकरणों का परीक्षण करना इसका हिस्सा है। इस चेकलिस्ट की मदद से उड़ान कार्यक्रम सुचारु चलता है। अगस्त 2013 में भारत के जीएसएलवी रॉकेट पर लगे क्रायोजेनिक इंजन के परीक्षण के लिए चल रहे काउंटडाउन के दौरान प्रक्षेपण से एक घंटे 14 मिनट पहले एक लीक का पता लगा और काउंटडाउन रोक दिया गया और उड़ान स्थगित कर दी गई। आपने देखा होगा कि एक दिनी और टी-20 क्रिकेट मैच शुरू करने के पहले काउंट डाउन होता है. यह सिर्फ नाटकीयता पैदा करने के लिए है.

कादम्बिनी के अगस्त 2016 के अंक में प्रकाशित

Saturday, November 26, 2016

स्वप्न क्यों आते हैं?

स्वप्न क्यों आते हैं? क्या ये गहरी नींद के द्योतक हैं या किसी संदेश के वाहक हैं?


अभय सिंह, 874, अवधपुरी कॉलोनी, फेज-1, बेनीगंज, फैजाबाद-224001 (उ.प्र.)



सपनों का मनोविज्ञान काफी जटिल है, पर सामान्य धारणा है कि आपके सपने आपके अवचेतन से ही बनते हैं। जैसे जागते समय आप विचार करते हैं वैसे ही सोते समय आपके विचार आपको दिखाई पड़ते हैं। इनमें काल्पनिक चेहरों की रचना कोई मुश्किल काम नहीं है। दूसरी बात यह है कि आप रोज जितने चेहरे देखते हैं सबको याद नहीं रख पाते। सपनों में ऐसे चेहरे भी आ सकते हैं।



हमें ज्यादातर सपने याद नहीं रहते। जिस वक्त हम सपने देखते हैं उस वक्त की हमारी नींद को मनोचिकित्साविद आरईएम (रैपिड आई मूवमेंट) कहते हैं। उस वक्त मस्तिष्क की न्यूरोकेमिकल स्थिति ऐसी होती है कि हमें बहुत कुछ याद नहीं रहता। इसके अलावा दूसरे कारण भी हो सकते हैं। एक कारण यह बताया जाता है कि मस्तिष्क के उस हिस्से में जिसे सेरेब्रल कॉर्टेक्स कहते हैं एक हॉर्मोन नोरेपाइनफ्राइन की कमी होती है। यह हॉर्मोन याददाश्त के लिए ज़रूरी होता है। 



सपनों पर बात करने के साथ हमें नींद के बारे में भी सोचना चाहिए। हम दिनभर की मेहनत में जो ऊर्जा खर्च करते हैं, वह आराम करने से ठीक हो जाती है। पर सच यह है कि एक रात की नींद में हम करीब 50 केसीएल कैलरी बचाते हैं। एक रोटी के बराबर। वास्तविक जरूरत शरीर की नहीं मस्तिष्क की है। यदि हम लम्बे समय तक न सोएं तो हमारी सोचने-विचारने की शक्ति, वाणी और नजरों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। नींद से हमारा मानसिक विकास भी होता है। रात में सोने की प्रवृत्ति हमारे जैविक विकास का हिस्सा है। 



हम दिन के प्राणी हैं। अनेक जंगली जानवरों की तरह रात में शिकार करके नहीं खाते हैं। हमारी निगाहें दिन की रोशनी में बेहतर काम करती हैं। ऐसा करते हुए कई लाख साल बीत गए हैं। हमारे शरीर में एक घड़ी है जिसे जैविक घड़ी कहते हैं। उसने हमारे रूटीन दिन और रात के हिसाब से बनाए हैं। जब हम निरंतर रात की पालियों में काम करते हैं तो शरीर उसके हिसाब से काम करने लगता है, पर शुरूआती दिनों में दिक्कतें पेश आती हैं।



वैज्ञानिकों का मानना है कि नींद के कई चरण होते हैं। इन्हें कच्ची नींद और पक्की नींद कहा जाता है। पक्की नींद में दिमाग इतना शांत हो चुका होता है कि सपने नहीं देखता। कच्ची नींद में बहुत हलचल होती है। इस दौरान आंखों की पुतलियां भी हिलती रहती हैं। इसे ही रैपिड आई मूवमेंट या आरईएम कहा जाता है। यह अचेतन मन की स्थिति है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि जगे होने और आरईएम के बीच भी एक चरण होता है। इसे चेतन और अवचेतन के बीच की स्थिति कहते हैं। इसमें व्यक्ति को पता होता है कि वह सपना देख रहा है और अगर वह कोशिश करे तो अपने सपनों पर नियंत्रण भी कर सकता है।




सबसे पहले शीशा कैसे बना? शीशे का लैंस कैसे बनता है?

रवि दत्त, म. नं.: एचएम-60, फेज-2, मोहाली-160055

काँच glass एक अक्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है, जिसे किसी भी आकार में ढाला जा सकता है। यह आमतौर पर पारदर्शी होता है, पर अपारदर्शी भी हो सकता है। दुनिया में सबसे ज्यादा और सबसे पुराना काँच ‘सिलिकेट ग्लास’ होता है, जिसका रासायनिक मूल सिलिकेट यौगिक सिलिका (सिलिकन डाईऑक्साइड या क्वार्ट्ज) होता है जो रेत सामान्य रेत का मूल तत्व है। विज्ञान की दृष्टि से 'कांच' की परिभाषा बहुत व्यापक है। इस लिहाज से उन सभी ठोसों को कांच कहते हैं जो द्रव अवस्था से ठंडे होकर ठोस अवस्था में आने पर क्रिस्टलीय संरचना नहीं प्राप्त करते। सबसे आम सोडा-लाइम काँच है जो सदियों से खिड़कियाँ और गिलास वगैरह बनाने के काम में आ रहा है। इसमें लगभग 75% सिलिका, सोडियम ऑक्साइड और चूना के अलावा कुछ अन्य चीजें मिली होती हैं।

इस प्रकार काँच बनता है रेत से। रेत और कुछ अन्य सामग्री को एक भट्टी में 1500 डिग्री सेल्सियस पर पिघलाया जाता है और फिर इस पिघले काँच को उन खाँचों में बूंद-बूंद करके उडेला जाता है जिससे मनचाही चीज़ बनाई जा सके। मान लीजिए, बोतल बनाई जा रही है तो खाँचे में पिघला काँच डालने के बाद बोतल की सतह पर और काम किया जाता है और उसे फिर एक भट्टी से गुज़ारा जाता है।

काँच का आविष्कार मिस्र या मेसोपोटामिया में ईसा से लगभग ढाई हज़ार साल पहले हुआ था। हालांकि उसके पहले ज्वालामुखियों के आसपास प्राकृतिक रूप से बना काँच भी मिलता रहा होगा। शुरु में इसका इस्तेमाल साज-सज्जा के लिए किया गया। ईसा से लगभग डेढ़ हज़ार साल पहले काँच के बरतन बनने लगे थे। ईसवी पहली सदी आते-आते फलस्तीन और सीरिया में एक खोखली छड़ में फूंक मारकर पिघले काँच को मनचाहे रूप में ढालने की कला विकसित हुई और ग्यारहवीं शताब्दी में वेनिस शहर काँच की चीज़ें बनाने का केन्द्र बन गया।

लेंस प्रकाश से जुड़ी एक युक्ति है जो अपवर्तन के सिद्धान्त पर काम करती है। एक पारदर्शक माध्यम, जिससे अपवर्तन के बाद किसी वस्तु का वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रतिबिंब बनता है लेंस कहलाता है। मनुष्य ने पारदर्शी शीशे का आविष्कार करके उसके मार्फत देखना शुरू किया होगा तो उसे कई प्रकार के अनुभव हुए होंगे। उन्हीं अनुभवों के आधार पर प्रकाश के सिद्धांत बने। ग्यारहवीं सदी में अरब वैज्ञानिक अल्हाज़न बता चुके थे कि हम इसलिए देख पाते हैं, क्योंकि वस्तु से निकला प्रकाश हमारी आँख तक पहुँचता है न कि आँखों से निकला प्रकाश वस्तु तक पहुँचता है। सन 1021 के आसपास लिखी गई उनकी ‘किताब अल-मनाज़िर’ किसी छवि को बड़ा करके देखने के लिए उत्तल(कॉनवेक्स) लेंस के इस्तेमाल का जिक्र था। यानी लेंस उसके पहले बनने लगे थे। बारहवीं सदी में इस किताब का अरबी से लैटिन में अनुवाद हुआ। इसके बाद इटली में चश्मे बने।

अंग्रेज वैज्ञानिक रॉबर्ट ग्रोसेटेस्ट की रचना ‘ऑन द रेनबो’ में बताया गया है कि किस प्रकाश ऑप्टिक्स की मदद से महीन अक्षरों को दूर से पढ़ा जा सकता है। यह रचना 1220 से 1235 के बीच की है। सन 1262 में रोजर बेकन ने वस्तुओं को बड़ा करके दिखाने वाले लेंस के बारे में लिखा। दूरबीन यानी दूर तक दिखाने वाले यंत्र के आविष्कार का श्रेय हॉलैंड के चश्मा बनाने वालों को जाता है। इटली के वैज्ञानिक गैलीलियो गैलीली ने इसमें बुनियादी सुधार किए। आधुनिक इटली के पीसा नामक शहर में 15 फरवरी 1564 को गैलीलियो गैलीली का जन्म हुआ।

लेंस के आविष्कार के साथ ही सूक्ष्मदर्शी या माइक्रोस्कोप का आविष्कार भी जुड़ा है। यह वह यंत्र है जिसकी सहायता से आँख से न दिखने योग्य सूक्ष्म वस्तुओं को भी देखा जा सकता है। सामान्य सूक्ष्मदर्शी ऑप्टिकल माइक्रोस्कोप होता है, जिसमें रोशनी और लैंस की मदद से किसी चीज़ को बड़ा करके देखा जाता है। माना जाता है सबसे पहले सन 1610 में गैलीलियो ने सरल सूक्ष्मदर्शी बनाया। इस बात के प्रमाण भी हैं कि सन 1620 में नीदरलैंड्स में पढ़ने के लिए आतिशी शीशा बनाने वाले दो व्यक्तियों ने सूक्ष्मदर्शी तैयार किए। इनके नाम हैं हैंस लिपरशे (जिन्होंने पहला टेलिस्कोप भी बनाया) और दूसरे हैं जैकैरियस जैनसन। इन्हें भी टेलिस्कोप का आविष्कारक माना जाता है।
कादम्बिनी, जुलाई 2016 में प्रकाशित

Wednesday, October 5, 2016

पॉलीग्राफी टेस्ट व नार्को टेस्ट क्या हैं?

गौरीशंकर खीची, ‘प्रयास’, 42 बी, काटजू नगर, मेहरा नर्सिंग होम के पीछे, रतलाम-457001 (म.प्र.)
नार्को टेस्ट, पॉलीग्राफ टेस्ट और ब्रेन मैपिंग जैसे परीक्षणों का जिक्र आमतौर पर फोरेंसिक साइंस या आपराधिक छानबीन के काम में किया जाता है। नार्को परीक्षण में व्यक्ति के शरीर में एक विशेष प्रकार के रासायनिक यौगिक का प्रवेश कराया जाता है। इसे ट्रुथ ड्रग के नाम से भी जाना जाता है। ट्रुथ ड्रग एक साइकोएक्टिव दवा है, जो ऐसे लोगों को दी जाती है जो सच नहीं बताना चाहते हैं या बता पाने में असमर्थ होते हैं। दूसरे शब्दों मे यह किसी व्यक्ति के मन से सत्य निकलवाने लिए किया प्रयोग जाता है।

दवा के कारण व्यक्ति कृत्रिम निद्रा में आ जाता है। इस दौरान उसके दिमाग का त्वरित प्रतिक्रिया देने वाला हिस्सा काम करना बंद कर देता है। ऐसे में व्यक्ति बातें बनाना और झूठ बोलना भूल जाता है। यों यह भी संभव है कि नार्को टेस्ट के दौरान भी व्यक्ति सच न बोले। भारत में हाल के कुछ वर्षों से ही ये परीक्षण आरंभ हुए हैं। पर इन टेस्टों से प्राप्त जानकारी को साक्ष्य नहीं माना जाता। अलबत्ता यह जानकारी आगे पड़ताल करने में सहायक हो सकती है।

सन 1922 में अमेरिका में रॉबर्ट हाउस नामक टेक्सास के डॉक्टर ने स्कोपोलामिन नामक ड्रग का दो कैदियों पर प्रयोग किया था। नार्को विश्लेषण शब्द नार्क से लिया गया है, जिसका अर्थ है नार्कोटिक। अंतरराष्ट्रीय कानूनों के तहत ट्रुथ ड्रग के अनैतिक प्रयोग को यातना के रूप में वर्गीकृत किया गया है। मूल रूप में यह चिकित्सा कार्य है। मनोरोगियों का उपचार करने में इसका उपयोग होता है। इसका पहली बार प्रयोग डॉ. विलियम ब्लीकवेन ने किया था।

पॉलीग्राफ ऐसा उपकरण है जो रक्तचाप, नब्ज, सांसों की गति, त्वचा की स्निग्धता आदि को उस वक्त नापता और रिकॉर्ड करता है, जब किसी व्यक्ति से लगातार प्रश्न पूछे जाते हैं। इस दौरान पॉलीग्राफिक मशीन की मदद से उसका बीपी, धड़कन, सांसों की गति, त्वचा की स्निग्धता आदि रिकॉर्ड कर ली जाती है। सही जवाब और गलत जवाब के दौरान शरीर की प्रतिक्रिया में उतार-चढ़ाव होने लगता है। इसके आधार पर सच और झूठ का फैसला किया जाता है। वैज्ञानिकों के बीच इसकी विश्वसनीयता कम है।

ब्रेन मैपिंग तंत्रिकाविज्ञान की मदद से तैयार की गई तकनीक है। इसमें मस्तिष्क की अलग-अलग तस्वीरों के आधार पर सच और झूठ का फैसला किया जाता है। सभी प्रकार की न्यूरो इमेजिंग ब्रेन मैपिंग का हिस्सा हैं। ब्रेन मैपिंग में डाटा प्रोसेसिंग या एनालिसिस जैसे मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों के व्यवहार का खाका खींचा जाता है। यह तकनीक लगातार विकसित हो रही है और इस पर विश्वास भी किया जाता है।

छत्रपति शिवाजी के जीवन प्रसंग में ‘गढ़ आया मगर सिंह चला गया’ का प्रसंग बहुत ही प्रसिद्ध है। उसमें ‘गोह’ नाम के एक प्राणी का जिक्र आता है। वह क्या है? विस्तार से बताइए?
डॉ. हूंदराज बलवाणी, 172, महारथी सोसाइटी, सरदारनगर, अहमदाबाद-382475

गोह (Monitor lizard) सरीसृपों (रेप्टाइल) के स्क्वामेटा (Squamata) गण के वैरानिडी (Varanidae) कुल के जीव हैं, जिनका शरीर छिपकली जैसा लेकिन उससे बहुत बड़ा होता है। ये अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, अरब और एशिया आदि देशों में फैले हुए हैं। ये छोटे बड़े सभी तरह के होते है, जिनमें से कुछ की लंबाई तो 10 फुट तक पहुँच जाती है। इनकी जबान साँप की तरह दुफंकी, पंजे मजबूत, दुम चपटी और शरीर गोल रहता है। इनकी कई जातियाँ हैं। इनमें सबसे बड़ा ड्रैगन ऑव द ईस्ट इंडियन ब्लैंड लंबाई में लगभग 10 फुट तक होता है। नील का गोह नाइल मॉनिटर अफ्रीका का बहुत प्रसिद्ध गोह है और तीसरा अफ्रीका के पश्चिमी भागों में काफ़ी संख्या में पाया जाता है। भारत में गोहों की छह जातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें कवरा गोह सबसे प्रसिद्ध है।

गोह की पकड़ बहुत ही मज़बूत होती है। यह अगर अपने पंजे से किसी चीज को पकड़ ले तो एक साथ दो आदमी भी मिलकर छुड़ाना चाहें तो नहीं छुड़ा सकते| इसी ख़ासियत की वजह से पुराने समय में युद्ध के समय दुश्मन के किले पर ऊँची दीवार पर चढ़ने में इसकी मदद ली जाती थी। शिवाजी के सेनापति तानाजी के पास एक गोह थी। जिसका नाम यशवंती था। इसकी कमर में रस्सी बाँध कर तानाजी क़िले की दीवार पर ऊपर फेंकते थे। यह गोह दीवार से चिपक जाती थी। इस रस्सी को पकड़ कर वे क़िले की दीवार चढ़ जाते थे।

इनकी दूसरी ख़ासियत है इसकी मजबूत शारीरिक संरचना इससे यह प्रतिकूल परिस्थितियों में भी ज़िंदा रह सकता है| इसकी चमड़ी भी बहुत मजबूत होती है| राजस्थान की घुमंतू कालबेलिया,बनजारे, भील, बावरिया आदि जातियों के लोग इसकी चमड़ी से जूतियाँ बनवाते हैं, जो बहुत टिकाऊ होती हैं। भारत में इन्हें वन्य जीव अधिनियम के अंतर्गत संरक्षित जीव घोषित किया गया है। इन्हें पालने, पकड़ने पर पाबंदी है।

रंगों का आविष्कार एवं प्रचलन कब और किस काल में शुरू हुआ था?
श्रीकांत व्यास, डी-750, एम.डी. व्यास नगर, बीकानेर-334004 (राज.)

मनुष्य की आँखों का एक गुण है रंगों की पहचान करना। लाल, नीले, हरे, पीले या और बहुत सारे लाखों, करोड़ों रंग प्रकृति में बिखरे हैं। इनका आविष्कार नहीं हुआ, यह प्रकृति का गुण है। मनुष्य सभ्यताओं ने इन्हें कब अपनाया कहना मुश्किल है, पर उसके परिधानों, उपकरणों, घरों वगैरह-वगैरह में रंग अनादि काल से चले आ रहे हैं। रंग हज़ारों वर्षों से हमारे जीवन में अपनी जगह बनाए हुए हैं। यहाँ आजकल कृत्रिम रंगों का उपयोग जोरों पर है वहीं प्रारंभ में लोग प्राकृतिक रंगों को ही उपयोग में लाते थे। मोहेन-जोदाड़ो और हड़प्पा की खुदाई में सिंधु घाटी सभ्यता की जो चीजें मिलीं उनमें ऐसे बर्तन और मूर्तियाँ भी थीं, जिन पर रंगाई की गई थी। उनमें एक लाल रंग के कपड़े का टुकड़ा भी मिला। विशेषज्ञों के अनुसार इस पर मजीठ या मजिष्‍ठा की जड़ से तैयार किया गया रंग चढ़ाया गया था। हजारों वर्षों तक मजीठ की जड़ और बक्कम वृक्ष की छाल लाल रंग का मुख्य स्रोत थी। पीपल, गूलर और पाकड़ जैसे वृक्षों पर लगने वाली लाख की कृमियों की लाह से महावर रंग तैयार किया जाता था। पीला रंग और सिंदूर हल्दी से प्राप्‍त होता था। प्राकृतिक नील था।

रंग क्या है? ये क्यों दिखाई पड़ते हैं, इस विषय की पहली व्यवस्थित पड़ताल आइजक न्यूटन ने की। यह बहुत पहले से पता था कि सफ़ेद रोशनी काँच के प्रिज़्म से देखने पर रंगीन दिखाई देती है। न्यूटन ने इस पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि सफ़ेद रंग प्रिज़्म द्वारा सात रंगों में विभाजित हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि जो प्रकाश से मिलकर रंग दिखाई देता है, वह वास्तव में सात रंगों के प्रकाश से मिलकर बना है। न्यूटन ने एक गोल चकती को इंद्रधनुष के सात रंगों से उसी अनुपात में रंग दिया जिस अनुपात में वे इंद्रधनुष में है। इस चकती को तेजी से घुमाने पर यह सफ़ेद दिखाई देती थी। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सफ़ेद प्रकाश सात रंगों से मिलकर बना है। वर्ण या रंग का आभास बोध मानवीय गुण धर्म है।

मूल रंग लाल, नीला, और पीला हैं। इनमें सफेद और काला भी मूल रंग में अपना योगदान देते है। लाल रंग में अगर पीला मिला दिया जाए, तो केसरिया रंग बनता है। यदि नीले में पीला मिल जाए, तब हरा बन जाता है। इसी तरह से नीला और लाल मिला दिया जाए, तब जामुनी बन जाता है। हालांकि हजारों साल से हम रंगों का इस्तेमाल जीवन में देखते रहे हैं, पर औद्योगिक क्रांति के बाद से रंग भी एक औद्योगिक उत्पाद के रूप में शामिल हो गया। कपड़ा उद्योग के साथ रंगों की खपत बढ़ी। प्राकृतिक रंग सीमित मात्रा में उपलब्ध थे इसलिए बढ़ी हुई मांग की पूर्ति के लिए कृत्रिम रंगों की तलाश आरंभ हुई। उन्हीं दिनों रॉयल कॉलेज ऑफ़ केमिस्ट्री, लंदन में विलियम पार्कीसन एनीलीन से मलेरिया की दवा कुनैन बनाने में जुटे थे। तमाम प्रयोग के बाद भी कुनैन तो नहीं बनी, लेकिन बैंगनी रंग ज़रूर बन गया। महज संयोगवश 1856 में तैयार हुए इस कृत्रिम रंग को मोव कहा गया। आगे चलकर 1860 में रानी रंग, 1862 में एनलोन नीला और एनलोन काला, 1865 में बिस्माई भूरा, 1880 में सूती काला जैसे रासायनिक रंग अस्तित्व में आए। वानस्पतिक रंगों के मुक़ाबले रासायनिक रंग काफ़ी सस्ते थे। इनमें चमक-दमक भी खूब थी। यह आसानी से उपलब्ध भी हो जाते थे। इसलिए हमारी प्राकृतिक रंगों की परंपरा में ये रंग आसानी से क़ब्ज़ा जमाने में कामयाब हो गए।

कादम्बिनी के मई 2016 अंक में प्रकाशित

Tuesday, October 4, 2016

वेटर को ‘टिप’ क्यों दी जाती है?

सुनीता वार्ष्णेय, पत्नी: राजीव वार्ष्णेय, पुरानी पैंठ, चंदौसी (उ.प्र.)
अंग्रेजी में टिप का मतलब है ग्रैच्युटी यानी अनुग्रह राशि। किसी की सेवा से खुश होकर दिया गया उपहार। जैसे पुराने बादशाह किसी कलाकार को दिया करते थे। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार टिप शब्द की व्युत्पत्ति स्पष्ट नहीं है और यह बोलचाल से निकला है। इसका इस्तेमाल सन 1600 के आसपास शुरू हुआ होगा। अकसर घर में आने वाले मेहमान जाते वक्त घर के सेवकों को कुछ नजराना देते थे। यही टिप है। हमारे देश में मुग़लकाल से भी पहले से नजराने, इनाम-इकराम, बख्शीश या पुरस्कार का चलन चला आ रहा है। सत्रहवीं सदी में लंदन के कॉफी हाउसों से इसका प्रचलन बढ़ा। धीरे-धीरे साहित्य में भी इसका इस्तेमाल होने लगा।

हींग कहां से और कैसे प्राप्त होती है? असली हींग की क्या कोई खास पहचान होती है?
-मधुलिका राठौर, अजमेर (राज.)


हींग एशिया में पाए जाने वाले सौंफ की प्रजाति के फेरूला फोइटिस नामक पौधे का चिकना रस है। ये पौधे-ईरान, अफगानिस्तान, तुर्की, बलूचिस्तान, अफगानिस्तान के पहाड़ी इलाकों में अधिक होते हैं। भारत में हींग की खेती बहुत कम मात्रा में होती है। इस पौधे की टहनियाँ 6 से 10 फ़ुट ऊँची हो जाती हैं और इसपर हरापन लिए पीले रंग के फूल निकलते हैं। इसकी जड़ों को काटा जाता है जहाँ से एक दूधिया रस निकलता है। फिर इसे इकट्ठा कर लिया जाता है। सूखने पर ये भूरे रंग के गोंद जैसा हो जाता है जिसे हींग कहा जाता है। ईरान में लगभग हर तरह के भोजन में इसका प्रयोग किया जाता है। भारत में भी हींग का भरपूर इस्तेमाल होता है। इसे संस्कृत में 'हिंगु' कहा जाता है। इसमें ओषधीय गुण भी अनेक हैं। हाजमे के लिए हींग बहुत अच्छी है। यह खाँसी भी दूर करती है। अगर कोई अफ़ीम खा ले तो हींग उसके असर को ख़त्म कर सकती है।

हींग अब ज्यादातर पाउडर के रूप में मिलती है, जिसे आटे या आरारोट में हींग को मिलाकर बनाया जाता है। ऐसे में उसकी पहचान करना काफी मुश्किल है। अलबत्ता टुकड़े वाली हींग भी बाजार में उपलब्ध है। मिलावटी हींग की पहचान के कुछ तरीके यहाँ बताए गए हैं, जो अनुभव से प्राप्त किए गए हैं। माचिस की जलती तीली हींग के करीब ले जाने पर उस की लौ चमकदार हो जाती है। हींग नकली होगी तो ऐसा नहीं होगा। इसी तरह शुद्ध हींग पर पानी डाल कर रगड़ने से पानी का रंग दूधिया हो जाता है, जबकि नकली हींग से पानी का रंग दूधिया यानी सफेद नहीं होता। चूंकि यह पौधे की जड़ के दूध से बनी होती है इसलिए इसका दूधिया होना सम्भव है।

‘पीत-पत्रकारिता’ क्या होती है? इसका आरंभ कब और कैसे हुआ?
-महेंद्र प्रसाद सिंगला, शिव कॉलोनी, रेलवे रोड, शांति पब्लिक स्कूल के पास, पलवल-121102


पीत पत्रकारिता (Yellow journalism) उस पत्रकारिता को कहते हैं जिसमें सही समाचारों की उपेक्षा करके सनसनी फैलाने वाले समाचार या ध्यान-खींचने वाले शीर्षकों का बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। इससे समाचारपत्रों की बिक्री बढ़ाने का घटिया तरीका माना जाता है। पीत पत्रकारिता में समाचारों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया जाता है; घोटाले खोदने का काम किया जाता है; सनसनी फैलाई जाती है; या पत्रकारों द्वारा अव्यावसायिक तरीके अपनाए जाते हैं। मूलतः अब इससे आशय अनैतिक और भ्रष्ट पत्रकारिता है।

जिन दिनों यह शब्द चला था तब इसका मतलब लोकप्रिय पत्रकारिता था। इसका इस्तेमाल अमेरिका में 1890 के आसपास शुरू हुआ था। उन दिनों जोज़फ पुलिट्जर के अख़बार ‘न्यूयॉर्क वर्ल्ड’ और विलियम रैंडॉल्फ हर्स्ट के ‘न्यूयॉर्क जर्नल’ के बीच जबर्दस्त गलाकाट प्रतियोगिता चली थी। दोनों अखबारों पर ‘सर्कुलेशन वॉर’ का आरोप लगा। हालांकि उन्हें अखबारों को उबाऊ बनने से रोकने का श्रेय भी मिलना चाहिए। इस पत्रकारिता को यलो कहने के बीच प्रमुख रूप से पीले रंग का इस्तेमाल है, जो दोनों अखबारों के कार्टूनों का प्रभाव बढ़ाता था। दोनों अखबारों का हीरो पीले रंग का कुत्ता था। अलबत्ता यलो जर्नलिज्म शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल उन्हीं दिनों न्यूयॉर्क प्रेस के सम्पादक एरविन वार्डमैन ने किया।

वॉट्सएप के सिक्योरिटी फीचर के बारे में बताएं?
-रजनी गुप्ता, 9-एमआईजी ममफोर्ड गंज, त्रिपाठी चौराहे के पास, इलाहाबाद-211002

वॉट्सएप मैसेंजर स्मार्ट फोनों पर चलने वाली तत्क्षण मैसेजिंग सेवा है। इसकी सहायता से इन्टरनेट के द्वारा दूसरे वॉट्सएप उपयोगकर्ता के स्मार्टफोन पर टेक्स्ट संदेश के अलावा ऑडियो, छवि, वीडियो तथा अपनी स्थिति (लोकेशन) की जानकारी भी भेजी जा सकती है। वॉट्सएप ने हाल में चैट्स के लिए 256 बिट सिक्योरिटी से एंड टु एंड एनक्रिप्शन की घोषणा की है। हालांकि भारत सरकार ने अभी इस विषय पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है, पर कानूनी जानकार बताते हैं कि देश में अभी ऐसा कानून नहीं है जो इसे रोक सके। पिछले साल सरकार ने राष्ट्रीय एनक्रिप्शन (कूटलेखन) नीति का मसौदा तैयार करके उसे कानून की शक्ल देने की योजना बनाई थी। इसके अनुसार एनक्रिप्टेड डेटा को 90 दिन तक सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी नागरिक पर डाली गई थी। पर भारी विरोध के कारण वह मसौदा वापस ले लिया गया।

दुनियाभर में इन दिनों एनक्रिप्शन को लेकर विचार-विमर्श चल रहा है। एक तरफ लोगों की निजता का सवाल है और दूसरी तरफ अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा का, क्योंकि इस्लामी स्टेट जैसे संगठन अब अपने संदेशों के लिए एनक्रिप्शन का इस्तेमाल करने लगे हैं। भारत सरकार की नीति का उद्देश्य इंटरनेट पर कूटभाषा में भेजे जाने वाले संदेशों पर निगरानी रखने का था। इनमें वॉट्सएप, फेसबुक जैसे संदेश भी आते हैं, जिन्हें कूटभाषा के माध्यम से भेजा जाता है। सारी दुनिया में इन दिनों ऐसे संदेशों पर निगरानी बढ़ाई जा रही है, क्योंकि सुरक्षा के लिहाज से यह जरूरी है। आतंकवादी और संगठित अपराधी भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। पश्चिम एशिया में इस्लामी स्टेट के उदय में ट्विटर हैंडल का इस्तेमाल किया गया। इसी तरह तालिबान जैसे संगठन इसका इस्तेमाल कर रहे हैं। साइबर आतंकी ऐसे एनक्रिप्शन टूल्स का इस्तेमाल कर रहे हैं जो पहले केवल सरकारी एजेंसियों को ही उपलब्ध थे।

एपल भी अपने आई-मैसेज के लिए एंड टू एंड एनक्रिप्शन का इस्तेमाल करता है। हाल में एपल और अमेरिका की खुफिया एजेंसी एफबीआई के बीच कानूनी लड़ाई चल चुकी है। वॉट्सएप के यूजर्स की संख्या एपल के यूजर्स की तुलना में बहुत अधिक है। खबर है कि इस बारे में सुरक्षा एजेंसियां दूरसंचार मंत्रालय से बात करेंगी। वे चाहती हैं कि इस फीचर को ध्यान में रखते हुए कुछ एहतियाती कदम उठाए जाएं।
कादम्बिनी के जून 2016 अंक में प्रकाशित




Friday, April 22, 2016

छुई-मुई के पौधे की पत्तियों को स्पर्श करने से वे पत्तियां आपस में सिकुड़ क्यों जाती हैं?

शैलेंद्र द्विवेदी, 32, कार्तिक चौकवराह माता गलीउज्जैन-456006 (म.प्र.)

लाजवंती को आमतौर पर छुई-मुई के नाम से जाना जाता है। इस पौधे का वानस्पतिक नाम मिमोसा प्यूडिका है। इस पौधे की पत्तियां अत्यंत संवेदनशील होती है। छुई-मुई की पत्तियां किसी बाहरी वस्तु के स्पर्श से मुरझाती हैं। ये पत्तियां कोई कीड़ालकड़ी यहां तक कि तेज हवा चलने और पानी की बूंदों के स्पर्श मात्र से ही मुरझा जाती है। आसपास ढोल बजाने से भी इसकी पत्तियाँ मुरझाने लगती है। यह संयुक्त पत्तियों वाला पौधा है। इसमे छोटी-छोटी पत्तियां या पर्णक होते हैं जिनको सामान्यतया पत्तियां ही समझा जाता है। ये छोटी-छोटी पत्तियां (पर्णक) मुख्य पत्ती के बीचों-बीच स्थित मध्य शिरा के दोनों तरफ लगी होती हैं। यह पौधा अपनी प्रतिक्रिया इन छोटी-छोटी पत्तियों को आपस में चिपका कर अथवा खोलकर व्यक्त करता है जिसे छुई-मुई का मुरझाना या शर्माना भी कहते हैं।

इसकी पत्तियाँ कई कोशिकाओं की बनी होती हैं। इनमें द्रव पदार्थ भरा रहता है। यह द्रव कोशिका की भित्ति को दृढ़ रखता है तथा पर्णवृन्त को खड़ा रखने में सहायक होता है। जब इन कोशिकाओं के द्रव का दाब कम ही जाता है तो पर्णवृन्त तथा पत्तियों की कोशिका को दृढ़ नहीं रख पाता। जैसे ही कोई व्यक्ति इसकी पत्तियों को छूता है एक संदेश पत्तियों और उनके आधार तक पहुँचता है। इससे पत्तियों के निचले भाग की कोशिकाओं में द्रव का दाब गिर जाता है जबकि ऊपरी भाग की कोशिका के दाब में कोई परिवर्तन नहीं होता हैअतः पत्तियाँ मुरझा जाती है।

देखा गया है कि इस पौधे में जहां पहले स्पर्श होता हैवहां की पत्तियां पहले बंद होती हैं।  इस गुण की वजह से छुई-मुई का पौधा पशुओं द्वारा चरने से बच जाता है क्योंकि पशु के किसी अंग के हल्के स्पर्श से ही पूरा पौधा मुरझा जाता है। इससे पशु पौधे को बेजान समझ कर आगे बढ़ जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पौधा भी हमारी तरह रात को सोता है।

गेट वे ऑफ इंडिया व इंडिया गेट किसने बनवाए, इनका क्या इतिहास है?
ज्योत्सना छाजेड़ द्वारा: सुंदर लाल छाजेड़, डाकघर के पास, पुरानी लेन, पो.: गंगाशहर, जिला: बीकानेर-334401 (राज.)

इंडिया गेट दिल्ली में है और गेटवे ऑफ इंडिया मुंबई में। इंडिया गेट दिल्ली के राजपथ पर स्थित है। इसकी ऊँचाई 42 मीटर है। यह प्रथम विश्वयुद्ध और अफगान युद्ध में शहीद होने वाले भारतीय जवानों की याद में 1931 में तैयार किया गया था। इस पर इन जवानों के नाम भी उकेरे गए हैं। गेटवे ऑफ इंडिया मुंबई में समुद्र तट पर बना है। इसकी ऊँचाई 26 मीटर है जिसे ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम और रानी मैरी की भारत यात्रा की याद में बनाया गया था। इसकी बुनियाद 31 मार्च 1911 में रखी गई थी। इसके वास्तुविद् थे जॉर्ज विटेट। यह सन 1924 में बनकर तैयार हुआ था और आजादी के बाद अंतिम ब्रिटिश सेना इसी द्वार से होकर गई थी। यह संरचना पेरिस के आर्क डी ट्रायम्‍फ की प्रतिकृति है।

इंडिया गेट नई दिल्ली के राजपथ पर स्थित 43 मीटर ऊँचा द्वार है। इसे सर एडविन लुटियन ने डिजाइन किया था। इसकी बुनियाद ड्यूक ऑफ कनॉट ने 1921 में रखी थी और 1931 में तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने इसका उद्घाटन किया। मूल रूप से इस स्मारक का निर्माण उन 70,000 ब्रिटिश भारतीय सेना के सैनिकों की स्मृति में हुआ था जो प्रथम विश्वयुद्ध और अफ़ग़ान युद्धों में शहीद हुए थे। उनके नाम इस स्मारक में खुदे हुए हैं। यह स्मारक लाल और पीले बलुआ पत्थरों से बना हुआ है।

शुरु में इंडिया गेट के सामने अब खाली चंदवे के नीचे जॉर्ज पंचम की एक मूर्ति थी, लेकिन बाद में अन्य ब्रिटिश दौर की मूर्तियों के साथ इसे कॉरोनेशन पार्क में हटा दिया गया। भारत की स्वतंत्रता के बाद, इंडिया गेट पर भारतीय सेना के अज्ञात सैनिक का स्मारक मकबरे भी बनाया गया। इसे अमर जवान ज्योति के रूप में जाना जाता है। सन 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के शहीद सैनिकों की स्मृति में यहाँ एक राइफ़ल के ऊपर सैनिक की टोपी सजाई गई है जिसके चार कोनों पर सदैव अमर जवान ज्योति जलती रहती है। इसकी दीवारों पर हजारों शहीद सैनिकों के नाम खुदे हैं।

उत्पत्ति और व्युत्पत्ति में क्या अंतर है?
अभ्युदय शर्मा, डी-301, बिल्डिंग नं.:10, मंगल मूर्ति कॉम्प्लेक्स, मानखुर्द घाटकोपर लिंक रोड, मानखुर्द (पश्चिम) मुंबई-400043

सामान्यतः उत्पत्ति शब्द का मतलब है जन्म या पैदाइश। इसी अर्थ के कुछ दूसरे शब्द हैं उद्गम, जन्म, उद्भव, सृष्टि और आरंभ वगैरह। व्युत्पत्ति के अर्थ में उसकी रचना प्रक्रिया भी जुड़ जाती है। किसी पदार्थ आदि की विशिष्ट उत्पत्ति। किसी चीज का मूल उद्गमन या उत्पत्ति स्थान। आमतौर पर यह शब्दों की व्युत्पत्ति के अर्थ में ज्यादा इस्तेमाल होता है। शब्द व्युत्पत्ति माने शब्द का मूल। शब्द का विकास।

भाषा के शब्दों के इतिहास के अध्ययन को व्युत्पत्ति शास्त्र (etymology) कहते हैं। यह शब्द यूनानी भाषा के यथार्थ अर्थ में प्रयुक्त Etum तथा लेखा-जोखा के अर्थ में प्रयुक्त Logos के योग से बना है, जिसका आशय शब्द के इतिहास का वास्तविक अर्थ सम्पुष्ट करना है| इसमें विचार किया जाता है कि कोई शब्द उस भाषा में कब और कैसे प्रविष्ट हुआ किस स्रोत से अथवा कहाँ से आया उसके स्वरूप और अर्थ में समय के साथ कैसे बदलाव हुआ वगैरह। 



कादम्बिनी के अप्रेल 2016 अंक में प्रकाशित

Wednesday, April 20, 2016

फोन पर बात करने से पहले ‘हैलो’ क्यों कहते हैं?

कुसुम राजावत, प्लॉट नं.1, श्रीराम कॉलोनी, कारोठ रोड, राजगढ़ (अलवर)-301408

ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार हैलो शब्द पुराने जर्मन शब्द हाला, होला से बना है, जिसका इस्तेमाल नाविक करते थे। हैलो या हलो मूलतः अपनी तरफ ध्यान खींचने वाला शब्द है। काफी लोगों का कहना है कि यह शब्द पुराने फ्रांसीसी या जर्मन शब्द होला से निकला है। इसका मतलब होता है 'कैसे हो' यानी, हाल कैसा है जनाब का? और यह शब्द 1066 ईस्वी के नॉरमन हमले के समय इंग्लैंड पहुंचा था। अंग्रेज कवि चॉसर के ज़माने में यानी 1300 के बाद यह शब्द हालो (Hallow) बन चुका था। इसके दो सौ साल बाद यानी शेक्सपियर के ज़माने में हालू (Halloo) बन गया। फिर यह शिकारियों और मल्लाहों के इस्तेमाल से कुछ और बदला और Hallloa, Hallooa, Hollo बना।

शब्दों के सफर की खोज करने वाले अजित वडनेरकर के अनुसार सभ्यता के विकास के साथ मनुष्य ने एक-दूसरे का ध्यानाकर्षण करने के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग किया, दुनियाभर में उनमें आश्चर्यजनक समानता है। ज्यादातर कण्ठ्य ध्वनियां हैं जो सीधे गले से निकलती हैं। जिसके लिए जीभ, दांत अथवा तालू का कोई काम नहीं है जैसे अ-आ अथवा ह। एक अन्य दिलचस्प समानता यह भी है कि यह शब्दावली पूर्व में भी और पश्चिम में भी मल्लाहों द्वारा बनाई गई है। भारत के ज्यादातर मांझी या मल्लाह ओSSSSहैSS या, हैया होSSS जैसी ध्वनियों का प्रयोग करते हैं।

अरबी, फारसी, उर्दू में शोर-गुल के लिए “हल्ला” शब्द प्रचलित है जिसका रिश्ता भी इन्हीं ध्वनियों से है। इसे ही “हो-हल्ला” या “हुल्लड़” कहते हैं। यूरोप में भी नाविकों के बीच ध्यानाकर्षण का प्रचलित ध्वनि-संकेत था ahoy यानी हॉय। ये आदिम ध्वनियां हैं और मनुष्य के कंठ में भाषा का संस्कार आने से पहले से पैठी हुई हैं। आप्टे के संस्कृत कोश में हंहो शब्द का उल्लेख है जिसका प्रयोग प्राचीन काल में था। बहरहाल वर्ष 1800 तक इस शब्द का एक विशेष रूप तय हो चुका था और वह था हलो (Hullo)।

बहरहाल जब टेलीफोन का आविष्कार हुआ तो शुरूआत में लोग फोन पर बजाए पूछा करते थे आर यू देयर?’(Are you there)? तब उन्हें यह विश्वास नहीं था कि उनकी आवाज़ दूसरी ओर पहुंच रही है। लेकिन अमेरिकी आविष्कारक टॉमस एडीसन को इतना लंबा वाक्य पसंद नहीं था। उन्होंने जब पहली बार फ़ोन किया तो उन्हें य़कीन था कि दूसरी ओर उनकी आवाज़ पहुंच रही है। चुनांचे उन्होंने कहा, हलो। 10 मार्च 1876 को अलेक्जेंडर ग्राहम बैल के टेलीफोन आविष्कार को पेटेंट मिला। वे शुरू में टेलीफोन पर बात शुरू करने के लिए नाविकों के शब्द हॉय का इस्तेमाल करते थे। सन 1877 में टॉमस एडीसन ने पिट्सबर्ग की सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट एंड प्रिंटिंग टेलीग्राफ कम्पनी के अध्यक्ष टीबीए स्मिथ को लिखा कि टेलीफोन पर स्वागत शब्द के रूप में हैलो का इस्तेमाल करना चाहिए। उनकी सलाह को अंततः सभी ने मान लिया। उन दिनों टेलीफोन एक्सचेंज में काम करने वाली ऑपरेटरों को हैलो गर्ल्स कहा जाता था।

क्या हमारे राष्ट्रीय चिह्नों की तरह, हर राज्य के अलग-अलग प्रतीक राजकीय चिह्न हैं?
शिखा जैन, 19, अबुल फजल रोड, बंगाली मार्केट, नई दिल्ली-110001

जिस तरह हमारे राष्ट्रीय चिह्न हैं लगभग उसी तर्ज पर कुछ राज्यों ने भी अपने राजचिह्न बनाए हैं और दूसरे प्रतीक भी तय किए हैं। कुछ राज्यों में अशोक चिह्न को राज्य का चिह्न बनाया है। उत्तर प्रदेश के राजकीय चिह्न में दो मछलियाँ, तीर कमान तथा दो नदियों का संगम दिखाया गया है। बिहार में दो स्वस्तिक चिह्नों के बीच बोधिवृक्ष राजचिह्न है। मध्य प्रदेश के राजचिह्न में अशोक स्तम्भ के साथ वटवृक्ष है। महाराष्ट्र के चिह्न में दीपाधार है। तमिलनाडु का राजचिह्न है श्रीविल्लिपुत्तूर अंडाल मंदिर।  इसी तरह राज्यों के अलग-अलग पक्षी, पशु, वृक्ष, फूल वगैरह हैं। कर्नाटक का अपना राज्य नृत्य यक्षगान और राज्य गान भी है।

आंख के चश्मे की खोज कब हुई? पहला चश्मा किस देश ने बनाया?
बद्री प्रसाद वर्मा अंजान, गल्लामंडी, गोलाबाजार-273408 गोरखपुर (उ.प्र.)

आँख के चश्मे या तो नज़र ठीक करने के लिए पहने जाते हैं या फिर धूप, धूल या औद्योगिक कार्यों में उड़ती चीजों से आँखों को बचाने के लिए भी इन्हें पहना जाता है। शौकिया फैशन के लिए भी। स्टीरियोस्कोपी जैसे कुछ विशेष उपकरण भी होते हैं, जो कला, शिक्षा और अंतरिक्ष अनुसंधान में काम करते हैं। सामान्यतः ज्यादा उम्र के लोगों को पढ़ने और नजदीक देखने के लिए चश्मा लगाने की जरूरत होती है।

सम्भवतः सबसे पहले 13वीं सदी में इटली में नजर के चश्मे पहने गए। पर उसके पहले अरब वैज्ञानिक अल्हाज़न बता चुके थे कि हम इसलिए देख पाते हैं, क्योंकि वस्तु से निकला प्रकाश हमारी आँख तक पहुँचता है न कि आँखों से निकला प्रकाश वस्तु तक पहुँचता है। सन 1021 के आसपास लिखी गई उनकी किताब अल-मनाज़िर किसी छवि को बड़ा करके देखने के लिए उत्तल(कॉनवेक्स) लेंस के इस्तेमाल का जिक्र था। बारहवीं सदी में इस किताब का अरबी से लैटिन में अनुवाद हुआ। इसके बाद इटली में चश्मे बने।

अंग्रेज वैज्ञानिक रॉबर्ट ग्रोसेटेस्ट की रचना ऑन द रेनबो में बताया गया है कि किस प्रकाश ऑप्टिक्स की मदद से महीन अक्षरों को दूर से पढ़ा जा सकता है। यह रचना 1220 से 1235 के बीच की है। सन 1262 में रोजर बेकन ने वस्तुओं को बड़ा करके दिखाने वाले लेंस के बारे में लिखा। बारहवीं सदी में ही चीन में धूप की चमक से बचने के लिए आँखों के आगे धुंधले क्वार्ट्ज पहनने का चलन शुरू हो गया था। बहरहाल इतना प्रमाण मिलता है कि सबसे पहले सन 1286 में इटली में चश्मा पहना गया। यह स्पष्ट नहीं है कि उसका आविष्कार किसने किया। चौदहवीं सदी की पेंटिंगों में एक या दोनों आँखों के चश्मा धारण किए पात्रों के चित्र मिलते हैं। 
कादम्बिनी के मार्च 2016 अंक में प्रकाशित

Monday, April 18, 2016

कच्चे हरे फल पकने पर पीले क्यों हो जाते हैं?

साइबर क्राइम’ क्या हैएक आम व्यक्ति इंटरनेट पर अपने आर्थिक लेन-देन अथवा व्यक्तिगत निजता को सुरक्षित रखने के लिए साइबर क्राइम से अपनी सुरक्षा किस प्रकार कर सकता है?
विनोद कुमार लाल, 48, आर्यपुरीसाकेत बुक्सरातू रोडरांची-834001 (झारखंड)

साइबर अपराध गैरकानूनी गतिविधियाँ हैं जिनमें कंप्यूटर या तो एक उपकरण या लक्ष्य या दोनों है। साइबर अपराध सामान्य अपराधों जैसे ही हैं जैसे चोरीधोखाधड़ीजालसाजीमानहानि और शरारत। चूंकि कम्प्यूटर के कारण इन अपराधों में तकनीक का इस्तेमाल होने लगा है इसलिए इनकी प्रकृति अलग हो जाती है। यानी कंप्यूटर का दुरुपयोग इसकी बुनियाद है। इन अपराधों के लिए भारत में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम2000 है, जिसका 2008 में संशोधन किया गया। साइबर अपराधों को दो तरह वर्गीकृत कर सकते हैं। एक, लक्ष्य के रूप में कंप्यूटर। यानी दूसरे कंप्यूटरों पर आक्रमण करने के लिए कंप्यूटर का उपयोग करना। मसलन हैकिंगवायरस आक्रमण आदि। दो, शस्त्र के रूप में कंप्यूटर का इस्तेमाल। यानी अपराध करने के लिए कंप्यूटर का उपयोग करना। उदाहरणार्थ: साइबर आतंकवादबौद्धिक संपदा अधिकारों के उल्लंघनक्रेडिट कार्ड धोखाधड़ीईएफ़टी धोखाधड़ीअश्लीलता आदि।

साइबर अपराधों से बचने के लिए सावधानी और तकनीकी समझ की जरूरत होगी। खासतौर से हैकिंग आदि से बचने के उपकरणों का इस्तेमाल करना चाहिए।
  
क्या कारण है कि कच्चे हरे फल पकने पर पीले दिखाई देते हैं?
संचित मिश्रा, 78/114, जीरो रोड, आर्य समाज मंदिर के ठीक सामने (चौक), इलाहाबाद-211003

फलों के पकने की प्रक्रिया उनके स्वाद, खुशबू और रंग में भी बदलाव लाती है। यह उनकी आंतरिक रासायनिक क्रिया के कारण होता है। ज्यादातर फल मीठे और नरम हो जाते हैं और बाहर से उनका रंग हरे से बदल कर पीला, नारंगी, गुलाबी और लाल हो जाता है। फलों के पकने के साथ उनमें एसिड की मात्रा बढ़ती है, पर इससे खट्टापन नहीं बढ़ता, क्योंकि साथ-साथ उनमें निहित स्टार्च शर्करा में तबदील होता जाता है। फलों के पकने की प्रक्रिया में उनके हरे रंग में कमी आना, चीनी की मात्रा बढ़ना और मुलायम होना शामिल है। रंग का बदलना क्लोरोफिल के ह्रास से जुड़ा है। साथ ही फल के पकते-पकते नए पिंगमेंट भी विकसित होते जाते हैं।

कंप्यूटर की क्षमता नापने की इकाइयों केबी, एमबी, जीबी, टीबी, में आपस में क्या संबंध होता है?
अनमोल मेहरोत्रा, 13/380, मामू-भांजा (ख्यालीराम हलवाई के सामने) अलीगढ़ (उ.प्र.)

ये स्टोरेज की इकाइयाँ हैं। किलो बाइट (केबी), मेगा बाइट (एमबी), गीगा बाइट (जीबी) और टेरा बाइट (टीबी)। सामान्यतः अंग्रेजी गणना पद्धति में संख्याएं हजार पर बदलती है। 8 बिट का एक बाइट होता। 1000 बाइट का एक किलो बाइट। 1000किलो बाइट का एक मेगा बाइट। 1000 मेगा बाइट  का एक गीगा बाइट और 1000 गीगा बाइट का एक टेरा बाइट। कंप्यूटर प्रणाली में ये संख्याएं बाइनरी सिस्टम में हैं 2-4-8-16-32-64-128-256-512-1024। इस वजह से आधार बना 1024। बाइनरी नंबर सिस्टम में 8 बिट  के बराबर 1 बाइट होता है, 1024 बाइट के बराबर एक किलो बाइट, 1024 किलो बाइट बराबर 1 मेगा बाइट, 1024 मेगा बाइट बराबर 1 गीगा बाइट और 1024 गीगा बाइट बराबर 1 टेरा बाइट होता है। यह इकाई पेटा बाइट, एक्सा बाइट, जेटा बाइट और योटा बाइट तक जाती हैं।
   
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में बंगाल के तीन किशोर बिनॉय, बादोल, दिनेश (जिनके नाम से कलकत्ता में पार्क है) के विषय में विस्तार से बताइए?
मनिकना मुखर्जी, 98, सिविल लाइंस, झांसी-284001 (उ.प्र.)
कोलकाता के प्रसिद्ध बीबीडी बाग (बिबादि बाग़) का नाम तीन युवा क्रांतिकारियों पर रखा गया है, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जान दे दी थी। इनके नाम थे बिनॉय (विनय) बसु, बादोल (बादल) गुप्त और दिनेश गुप्त। तीनों क्रांतिकारी आंदोलन में सक्रिय थे। उन्होंने अंग्रेजी राज की पुलिस के उन अधिकारियों को निशाना बनाया जो जनता पर अत्याचार करने के लिए बदनाम थे। इनमें जेल महानिरीक्षक कर्नल एनएल सिम्पसन भी था।

तीनों ने 8 दिसम्बर 1930 को कोलकाता के डलहौजी स्क्वायर इलाके में स्थित रायटर्स बिल्डिंग यानी सचिवालय भवन में घुसकर सिम्पसन को गोली से उड़ा दिया। दोनों ओर से गोली चली जिसमें कुछ पुलिस अधिकारी घायल हुए। इसके बाद पुलिस ने तीनों को घेर लिया। तीनों ने तय किया कि पुलिस के हाथ नहीं पड़ना है। बादोल ने पोटेशियम सायनाइड खा लिया। बिनॉय और दिनेश ने अपने रिवाल्वरों से खुद को गोली मार ली। बिनॉय को अस्पताल ले जाया गया जहाँ 13 दिसम्बर 1930 को उनकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के समय बिनॉय की उम्र 22 साल, बादोल की 18 और दिनेश की 19 साल थी। तीनों की आहुति ने बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन में जान दी। स्वतंत्रता के बाद पश्चिम बंगाल सरकार ने डलहौजी स्क्वायर का नाम तीनों के नाम पर रख दिया।  
कादम्बिनी के फरवरी 2016 अंक में प्रकाशित
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