Sunday, June 30, 2019

एक देश, एक चुनाव?


नई लोकसभा बनने के बाद संसद के संयुक्त अधिवेशन में अपने पहले अभिभाषण में राष्ट्रपति ने कहा, ‘‘आज समय की मांग है कि ‘एक राष्ट्र-एक साथ चुनाव’ की व्यवस्था लाई जाए.’’ पिछले तीन साल में कई बार यह बात कही गई है कि देश को ‘आम चुनाव’ की अवधारणा पर लौटना चाहिए. संसद की एक संयुक्त स्थायी समिति ने इसका रास्ता बताया है. एक मंत्रिसमूह ने भी इस पर चर्चा की. विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में इसका सुझाव दिया था. चुनाव सुधार के सिलसिले में चुनाव आयोग की भी यही राय है. चुनाव एक साथ कराने के पीछे प्रशासनिक और राजनीतिक दोनों प्रकार के दृष्टिकोणों पर विचार किया जाना चाहिए. इससे समय की बचत होगी, खर्चा भी कम होगा. आचार संहिता के कारण सरकारें बड़े फैसले नहीं कर पाती हैं. कई काम रुकते हैं. केंद्रीय बलों एवं निर्वाचन कर्मियों की तैनाती और बंदोबस्त में होने वाला खर्च कम होगा. वोटर को भी अतिशय चुनावबाजी से मुक्ति मिलनी चाहिए. सन 1952 से 1967 तक एकसाथ चुनाव होते भी रहे हैं.
विरोध क्यों? 
इस सलाह के विरोध में कुछ पार्टियों और विशेषज्ञों ने कहा है कि यह भारतीय लोकतंत्र की विविधता के विपरीत बात होगी. उनका तर्क है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के मुद्दे अलग होते हैं. एकसाथ चुनाव कराने पर केन्द्रीय मुद्दा चुनाव पर हावी हो जाता है, स्थानीय मुद्दे पीछे चले जाते हैं. इससे क्षेत्रीय दलों को नुकसान होगा. क्षेत्रीय भावनाओं की अवहेलना होगी. 73वें और 74वें संविधान संशोधनों के बाद लोकतंत्र की एक तीसरी सतह भी तैयार हो गई है. स्थानीय निकायों के मुद्दे और भी अलग होते हैं. तीनों सतहों पर चुनाव कराना और भी मुश्किल होगा. भारत में 4120 विधायकों और 543 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव होता है. ढाई लाख के आसपास ग्राम सभाएं हैं शहरी निकाय भी है. इसकी व्यावहारिकता पर विचार करना चाहिए.
दुनिया में व्यवस्थाएं कैसी हैं?
मेरिका में संविधान ने चुनावों के दिन तक तय कर रखे हैं, पर वहाँ की संघीय व्यवस्था में राज्य बहुत शक्तिशाली हैं. मतदान से जुड़ी राज्यों की व्यवस्थाएं अलग-अलग हैं. यूके में चुनाव का दिन गुरुवार को मुकर्रर है. सन 2011 में यहाँ फिक्स्ड टर्म पार्लियामेंट एक्ट पास हुआ और हर पाँच साल में मई के महीने में पहले गुरुवार को आम चुनाव कराने की व्यवस्था की गई है. विशेष परिस्थितियों में चुनाव समय से पहले कराने की छूट है. संयोग से 2017 में ऐसा हो भी गया. मई 2015 को पहले चुनाव हुए और अगले चुनाव की तिथि 7 मई 2020 तय कर दी गई थी. इस बीच ब्रेक्जिट के कारण अप्रैल, 2017 में संसद ने एक विशेष प्रस्ताव पास करके जल्दी चुनाव कराने का फैसला किया. बहरहाल 2022 के चुनावों की तिथियाँ तय हैं. इटली, बेल्जियम और स्वीडन में भी संसद और स्थानीय निकायों के चुनाव एकसाथ होते हैं. कनाडा में पालिका चुनावों का समय मुकर्रर है, पर प्रांतों और संघीय चुनावों का समय मुकर्रर नहीं है. दक्षिण अफ्रीका में राष्ट्रीय और प्रादेशिक प्रतिनिधि सदनों के चुनाव एकसाथ पाँच साल के लिए होते हैं. इनके अलावा हर दो साल बाद नगर पालिकाओं के चुनाव होते हैं.


Friday, June 21, 2019

एससीओ शिखर सम्मेलन?

पिछली 13 और 14 जून को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी किर्गिस्तान की राजधानी बिश्केक में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के शिखर सम्मेलन में शामिल हुए थे. इस वजह से यह संगठन हाल में खबरों में रहा. इसकी शिखर वार्ता में 19 देशों के राष्ट्राध्यक्ष और तीन बड़ी बहुराष्ट्रीय संस्थानों के प्रतिनिधि शामिल होते हैं. इसके आठ सदस्य चीन, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, रूस, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, भारत और पाकिस्तान हैं. इसके अलावा चार पर्यवेक्षक देश अफ़ग़ानिस्तान, बेलारूस, ईरान और मंगोलिया हैं. तुर्कमेनिस्तान को विशेष अतिथि के रूप में बुलाया जाता है. छह डायलॉग पार्टनर आर्मेनिया, अजरबैजान, कंबोडिया, नेपाल, श्रीलंका और तुर्की हैं. शिखर सम्मेलन में इनके अलावा आसियान, संयुक्त राष्ट्र और सीआईएस के प्रतिनिधियों को भी बुलाया जाता है. मूलतः यह राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सहयोग का संगठन है, जिसकी शुरुआत चीन और रूस के नेतृत्व में यूरेशियाई देशों ने की थी. अप्रैल 1996 में शंघाई में हुई एक बैठक में चीन, रूस, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान जातीय और धार्मिक तनावों को दूर करने के इरादे से आपसी सहयोग पर राज़ी हुए थे. इसे शंघाई फाइव कहा गया था. इसमें उज्बेकिस्तान के शामिल हो जाने के बाद जून 2001 में शंघाई सहयोग संगठन की स्थापना हुई. 2005 में कजाकिस्तान के अस्ताना में हुए सम्मेलन में भारत, ईरान, मंगोलिया और पाकिस्तान के प्रतिनिधियों ने पहली बार इसमें हिस्सा लिया. अब भारत और पाकिस्तान भी इसके सदस्य हैं.

संगठन का विस्तार?

इस संगठन का मुख्य उद्देश्य मध्य एशिया में सुरक्षा सहयोग बढ़ाना है. पश्चिमी मीडिया मानता है कि एससीओ का मुख्य उद्देश्य नेटो के बराबर खड़े होना है. सन 1996 में जब इसकी शुरुआत हुई थी, तब उद्देश्य था सोवियत संघ के विघटन के बाद नए आज़ाद देशों से लगी रूस और चीन की सीमाओं पर तनाव रोकना और इन सीमाओं का पुनर्निर्धारण. यह काम तीन साल में पूरा हो गया. उज्बेकिस्तान को संगठन में जोड़ने के बाद 2001 में यह एक नए संगठन के रूप में सामने आया. अब इसका उद्देश्य ऊर्जा आपूर्ति से जुड़े मुद्दों पर ध्यान देना और आतंकवाद से लड़ना भी है. जून, 2010 में एससीओ ने नए सदस्य बनाने की प्रक्रिया को तय किया. अभी ईरान पर्यवेक्षक देश है, पर उसे पूर्ण सदस्य बनाने पर भी विचार किया जा रहा है. मिस्र और सीरिया ने पर्यवेक्षक देश बनने की अर्जी दी है. इसरायल, मालदीव और यूक्रेन ने डायलॉग पार्टनर बनने के लिए आवेदन किया है. इराक ने भी डायलॉग पार्टनर बनने का संकेत किया है. बहरीन और कतर भी इससे जुड़ना चाहते हैं.

भारत की भूमिका?

चीन और रूस के बाद इस संगठन में भारत तीसरा सबसे बड़ा देश है. भारत का कद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ रहा है. एससीओ धीरे-धीरे दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय संगठन बनता जा रहा है. भारत की दिलचस्पी अपनी ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने और प्रवासी भारतीयों के हितों की रक्षा करने के अलावा आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई में है. आतंकवाद के विरोध में अपनी नीतियों के कारण ही इसबार के शिखर सम्मेलन में नरेन्द्र मोदी ने सम्मेलन के हाशिए पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात नहीं की.

प्रभात खबर अवसर में प्रकाशित

Tuesday, June 18, 2019

यूरोपीय संघ क्या है?


यूरोपीय संघ (ईयू) यूरोप के 28 देशों का राजनीतिक और आर्थिक संघ है. यूरोपीय संघ के विकास की पृष्ठभूमि को अलग से समझना होगा. इन सभी देशों का कुल क्षेत्र 44,75,757 वर्ग किलोमीटर है. इन देशों की कुल आबादी करीब 51.3 करोड़ है. यूरोपीय संघ ने नियमों और कानूनों की ऐसी व्यवस्था बना ली है, जिसके तहत काफी मामलों में आंतरिक रूप से पूरा संघ-क्षेत्र एक बाजार बन चुका है. इसके तहत लोगों का आना-जाना, सेवाओं, उत्पादों और पूँजी का आवागमन वैसे ही होता है, जैसे किसी एक देश के भीतर होता है. यूरोपीय संघ के भीतर एकल मुद्रा क्षेत्र यानी यूरो ज़ोन और शेंजेन क्षेत्र के बारे में भी जानकारी होनी चाहिए. यूरो ज़ोन उन 19 देशों के क्षेत्र को कहते हैं, जिन्होंने अपने यहाँ मुद्रा के रूप में यूरो को अपना लिया है. इसी तरह शेंजेन क्षेत्र, यूरोपीय संघ के उन 26 देशों का ऐसा समूह है, जो अपने नागरिकों को सदस्य देशों में बिना किसी सीमा नियंत्रण के आवागमन की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं. यूरोपीय संघ के देशों के बीच यह संधि लक्ज़ेम्बर्ग के शेंजेन शहर में होने के कारण इसका नाम ‘शेंजेन क्षेत्र संधि’ पड़ा.
संघ कब और कैसे बना?
यूरोपीय संघ एक झटके में नहीं बन गया था. वस्तुतः सन 476 में रोमन साम्राज्य के पतन के बाद भी यूरोप को एक करने का सैद्धांतिक विचार किसी न किसी रूप में बना रहा. बावजूद इसके यूरोप में राष्ट्रवादी लहरें भी आती रहीं और बीसवीं सदी में दो विश्व युद्धों का केन्द्र किसी न किसी रूप में यूरोप ही रहा. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद चरमपंथी राष्ट्रवाद के स्थान पर सामूहिकता के विचार ने अपनी जगह बनानी शुरू की. इस सिलसिले में 19 सितम्बर, 1946 को ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने ज्यूरिच विश्वविद्यालय में एक भाषण में यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ यूरोप की अवधारणा पेश की. सन 1948 में यूरोपीय देशों के हेग सम्मेलन में यूरोपियन मूवमेंट इंटरनेशनल और कॉलेज ऑफ यूरोप की स्थापना के विचार से यूरोप के एकीकरण की अवधारणा बनी. इसके बाद सन 1949 में कौंसिल ऑफ यूरोप की स्थापना हुई. हालांकि यह कौंसिल राजनीतिक-आर्थिक एकीकरण के लिए नहीं थी, पर इससे एकीकरण का रास्ता प्रशस्त हुआ. यूरोपीय एकीकरण का वास्तव में पहला कदम था सन 1951 में पेरिस की संधि के मार्फत छह देशों की यूरोपियन कोल एंड स्टील कम्युनिटी की स्थापना. फिर इसके बाद 1957 में रोम की संधि के मार्फत यूरोपीय आर्थिक समुदाय की स्थापना हुई. इसके बाद 1 नवम्बर, 1993 की मास्ट्रिख्ट संधि से यूरोपीय संघ की बुनियाद पड़ी.
आज की स्थिति क्या है?
यूरोपीय देशों के बीच कई तरह की संधियाँ होती रही हैं. इसमें शामिल देशों की संख्या भी बढ़ी है. इस संघ में नीति-निर्णय करने के लिए सात प्रमुख संस्थाएं हैं. ये हैं यूरोपीय संसद, यूरोपियन कौंसिल, कौंसिल ऑफ द यूरोपियन यूनियन, यूरोपियन कमीशन, कोर्ट ऑफ जस्टिस ऑफ द यूरोपियन यूनियन, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और यूरोपियन कोर्ट ऑफ ऑडिटर्स. सन 2012 में ईयू को नोबेल शांति पुरस्कार भी दिया गया था. हाल ब्रिटेन ने इस संघ से अलग होने का फैसला किया है, जिसे हम ब्रेक्जिट के नाम से जानते हैं. यूके सरकार के अनुरोध के अनुसार 29 मार्च, 2019 को रात्रि में 11 बजे ब्रिटेन को ईयू से अलग हो जाना चाहिए था, पर अभी वह प्रक्रिया पूरी नहीं हो पाई है.

Monday, June 17, 2019

मंत्रियों की संख्या कैसे तय होती है?



सरकार के सभी मंत्रियों के समूह को मंत्रिपरिषद कहते हैं. हमारे संविधान के अनुच्छेद 74 में केन्द्रीय मंत्रिपरिषद के गठन के बारे में उल्लेख किया गया है जबकि अनुच्छेद 75 में मंत्रियों की नियुक्ति, उनके कार्यकाल, जिम्मेदारी, शपथ, योग्यता और वेतन-भत्तों से सम्बद्ध जानकारियाँ हैं. सन 2003 में हुए 91वें  संविधान संशोधन के बाद केन्द्र और राज्यों की मंत्रिपरिषदों के सदस्यों की अधिकतम संख्या का निर्धारण हुआ. अनुच्छेद 75 (1क) के अनुसार केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्‍या लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्‍या के पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी. लोकसभा में 543 सांसद होते हैं और इस लिहाज से 15 फीसदी होता है 81. इसी अनुच्छेद के उपखंड (5) के अनुसार कोई मंत्री, जो निरंतर छह मास की किसी अवधि तक संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं है, उस अवधि की समाप्ति पर मंत्री नहीं रहेगा. यानी उसे छह महीने के भीतर किसी न किसी का सदस्य बन जाना चाहिए. राज्यों के संदर्भ में संविधान के अनुच्छेद 164 (1क) में कहा गया है कि किसी राज्य की मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या राज्य विधानसभा की कुल सदस्य-संख्या के पंद्रह प्रतिशत से अधिक नहीं होगी, परंतु यह संख्या बारह से कम भी नहीं होगी.
मंत्री कितने प्रकार के होते हैं?
सामान्यतः मंत्रिपरिषद के तीन स्तर होते हैं.1.कैबिनेट मंत्री- कैबिनेट मंत्री के पास एक या एक से ज्यादा विभागों की जिम्मेदारी होती है. सरकार के सभी फैसलों में कैबिनेट मंत्री शामिल होते हैं. आमतौर पर हर सप्ताह कैबिनेट की बैठक होती है. सरकार अपने निर्णय, अध्यादेश, नए कानून, कानूनों में संशोधन वगैरह कैबिनेट की बैठक से ही पास कराती है. 2.राज्य मंत्री- स्वतंत्र प्रभार- मंत्रिपरिषद में स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य-मंत्रियों के पास आवंटित मंत्रालय और विभाग की पूरी जवाबदेही होती है लेकिन वे आमतौर पर कैबिनेट की बैठक में शामिल नहीं हो सकते. कैबिनेट इनको उनके मंत्रालय या विभाग से संबंधित मसलों पर चर्चा और फैसलों के लिए खास मौकों पर बुला सकती है. 3.राज्य मंत्री-ये कैबिनेट मंत्री के अधीन काम करने वाले मंत्री हैं. एक कैबिनेट मंत्री के अधीन एक या उससे ज्यादा राज्य मंत्री हो सकते हैं.
कैबिनेट कमेटियाँ?
मंत्रीfपरिषद में शामिल कैबिनेट मंत्रियों की कुछ कमेटियाँ भी होती है. इन्हें बोलचाल में सुपर कैबिनेट भी कह सकते हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है सीसीएस यानी कैबिनेट कमिटी ऑन सिक्योरिटी यानी सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी. इसमें सामान्यतः प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री, रक्षामंत्री, विदेशमंत्री और वित्तमंत्री शामिल होते हैं. यह कमेटी अहम नीतिगत और राजनयिक प्रश्नों पर विचार करती है. सीसीएस दूसरे देशों से संधियों, समझौतों, हथियारों की खरीद-बिक्री, देश के अंदर सुरक्षा हालात पर फैसले करती है. सीसी यानी अपॉइंटमेंट्स कमेटी ऑफ द कैबिनेट भी महत्वपूर्ण होती है. इसमें प्रधानमंत्री के अलावा गृहमंत्री होते हैं. यह कमेटी कैबिनेट सचिव और सचिवों जैसे महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति करती है. इनके अलावा कैबिनेट कमेटी ऑन इकोनॉमिक अफेयर्स,  कैबिनेट कमेटी ऑन पार्लियामेंट्री अफेयर्स, कैबिनेट कमेटी ऑन पॉलिटिकल अफेयर्स भी होती हैं.

Friday, June 14, 2019

एग्जिट पोल का मतलब?


एग्जिट पोल का इस्तेमाल चुनाव के सिलसिले में होता है. इसके मतलब है चुनाव देकर बाहर आ रहे व्यक्ति की राय लेना. सामान्यतः चुनाव पूर्व सर्वे में मतदाताओं से यह जानने का प्रयास किया जाता है कि वे किसे वोट देने का मन बना रहे हैं, जबकि एग्जिट पोल में यह जानने की कोशिश की जाती है कि वे किसे वोट देकर आए हैं. सामान्यतः अखबारों और मीडिया-हाउसों के लिए रिसर्च से जुड़ी कम्पनियाँ यह काम करती हैं. ये कम्पनियाँ उपभोक्ता सामग्री तथा अन्य कारोबारी वस्तुओं के बारे में सर्वेक्षण वगैरह करती हैं. इसके अलावा वोटरों तथा उपभोक्ताओं के बारे में दूसरी जानकारियाँ भी ये एजेंसियाँ एकत्र करती हैं. मसलन किस उम्र के व्यक्ति क्या सोचते हैं, महिलाओं की धारणा क्या है, किस आय वर्ग के लोगों की पसंद क्या हैं, किस विचार को सबसे ज्यादा समर्थन हासिल है या किस बात को लोग सबसे ज्यादा नापसंद करते हैं. मतदाता का वोटिंग व्यवहार और जनमत के प्रभाव का अध्ययन राजनीति शास्त्र का विषय है. इसमें कुल मतदाताओं के अनुपात से एक छोटे नमूने से राय ली जाती है. मसलन दस लाख मतदाता हैं, तो दो-तीन सौ ऐसे मतदाताओं के विचार दर्ज किए जाते हैं, जिनमें हर वर्ग, हर आयु समूह और स्त्री-पुरुष सभी तरह के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व हो.
इनकी शुरुआत कैसे हुई?
कई मत हैं कि इनकी शुरुआत कैसे हुई. शुरुआती वर्षों में पत्रकार जनता की राय लेने के लिए ऐसे पोल का सहारा लेते थे. इन्हें शुरू करने का श्रेय सर्वे-सैम्पलिंग के अमेरिकी विशेषज्ञ जॉर्ज गैलप और क्लॉड रॉबिनसन को जाता है. काफी लोग मानते हैं कि डच समाज-शास्त्री और पूर्व राजनीतिक नेता मार्सेल वैन डैम (Marcel van Dam) ने 15 फरवरी, 1967 को पहली बार एग्जिट पोल के रूप में इनका इस्तेमाल किया. कुछ दूसरे स्रोत कहते हैं कि अमेरिकी चुनाव-विशेषज्ञ वॉरेन मितोफस्की (Warren Mitofsky) ने इनका इस्तेमाल पहली बार किया. सन 1967 में ही नवम्बर के महीने में अमेरिका के केंटकी राज्य के गवर्नर के चुनाव के दौरान सीबीएस न्यूज के लिए उन्होंने पहला एग्जिट पोल आयोजित किया. पर इतना जरूर है कि जनमत संग्रह करने का काम पिछली सदी के तीसरे-चौथे दशक में शुरू हो चुका था.
भारत में ये कब शुरू हुए?
देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों का चलन नब्बे के दशक से बढ़ा. यों जनमत सर्वेक्षणों की योजना साठ के दशक में सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) ने बनाई थी. अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में अर्थशास्त्री से पत्रकार बने प्रणय रॉय ने इंडिया टुडे पत्रिका में इनकी शुरुआत की. फिर 1996 के लोकसभा चुनाव के दौरान दूरदर्शन ने देश भर में एग्जिट पोल की अनुमति दी.  देखा-देखी कई पोल शुरू हो गए. इनके दुरुपयोग की शिकायतें मिलने पर 1999 में चुनाव आयोग ने इनपर रोक लगा दी. अंततः मामला सुप्रीम कोर्ट तक गया. सन 2009 में सरकार ने जन-प्रतिनिधित्व कानून, 1951 में संशोधन करके व्यवस्था की कि जबतक मतदान की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती इनका प्रसारण नहीं किया जा सकता.



Thursday, June 13, 2019

राजनीतिक दलों की संख्या?


सन 1951 के चुनाव में हमारे यहाँ 14 राष्ट्रीय और 39 अन्य मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं. सन 2009 के लोकसभा चुनाव में 363 पार्टियाँ उतरीं थीं. इनमें 7 राष्ट्रीय, 34 प्रादेशिक और 242 पंजीकृत गैर-मान्यता प्राप्त पार्टियाँ थीं. सन 2014 के लोकसभा चुनाव में जिन दलों ने हिस्सा लिया उनकी संख्या इस प्रकार थी-राष्ट्रीय दल 6 भाजपा, बसपा, भाकपा, माकपा, कांग्रेस और राकांपा. राज्य स्तर के दल 46 और पंजीकृत गैर मान्यता प्राप्त पार्टियाँ 464. चुनाव आयोग की 15 मार्च, 2019 की विज्ञप्ति के अनुसार इस समय देश में सात राष्ट्रीय, राज्य स्तर के 55 मान्यता प्राप्त दल और पंजीकृत पर गैर-मान्यता प्राप्त दलों की संख्या 2044 है. चुनाव आयोग की 25 मार्च, 2019 की विज्ञप्ति के अनुसार 15 मार्च के बाद 48 और दलों का पंजीकरण किया गया. इस प्रकार पंजीकृत दलों की संख्या 2092 हो गई है. राज्य स्तरीय मान्यता प्राप्त दलों में आम आदमी पार्टी का नाम दिल्ली और पंजाब दो राज्यों में है. इसी तरह अन्ना द्रमुक, द्रमुक और पीएमके तमिलनाडु के अलावा पुदुच्चेरी में भी मान्यता प्राप्त दल हैं. जनता दल सेक्यूलर कर्नाटक के अलावा केरल में भी मान्यता प्राप्त दल है. राष्ट्रीय जनता दल बिहार के अलावा झारखंड में भी मान्यता प्राप्त दल है. तेलंगाना राष्ट्र समिति और तेलुगु देशम पार्टी आंध्र और तेलंगाना दोनों राज्यों में मान्यता प्राप्त दल हैं.
राष्ट्रीय दल कौन से हैं?
इस समय जो मान्यता प्राप्त राष्ट्रीय दल हैं उनके नाम हैं 1.भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (हाथ), 2.भारतीय जनता पार्टी (कमल), 3.भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (गेहूँ की बाली और हँसिया), 4.भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (हँसिया-हथौड़ा), 5.राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (घड़ी), 6.बहुजन समाज पार्टी (हाथी), 7.अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (पुष्प और तृण). मान्यता प्राप्त दलों का विशेष चुनाव चिह्न आरक्षित होता है. इसके अलावा उनके प्रत्याशियों को नामांकन भरते समय केवल एक प्रस्तावक की जरूरत होती है, साथ ही उन्हें मतदाताओं की सूची की एक प्रति निःशुल्क दी जाती है. मान्यता प्राप्त दलों को 40 स्टार प्रचारकों के इस्तेमाल की अनुमति मिलती है. इन स्टार प्रचारकों का यात्रा व्यय प्रत्याशी के खर्च में शामिल नहीं किया जाता.
मान्यता का आधार
किसी राज्य में राजनीतिक दल को मान्यता लेने के लिए निम्नलिखित शर्तें पूरी करनी होती हैं: 1.पार्टी ने विधानसभा की तीन फीसदी सीटों पर जीत हासिल की हो. यह संख्या कम से कम तीन होनी चाहिए. 2.लोकसभा चुनाव में पार्टी राज्य को आबंटित प्रत्येक 25 लोकसभा सीटों में से एक सीट पर जीत हासिल करे. 3.लोकसभा या विधानसभा के चुनाव में पार्टी लोकसभा की एक और विधानसभा की दो सीटें जीतने के साथ पूरे राज्य में कम से कम छह फीसदी वोट हासिल करे. 4.आम चुनाव या विधानसभा चुनाव में पार्टी राज्य में आठ फीसदी वोट हासिल करे. राष्ट्रीय स्तर की मान्यता के लिए 1.पार्टी कम से कम तीन राज्यों से चुनाव लड़कर लोकसभा की कम से कम दो फीसदी सीटों (11 सीटें) पर जीत हासिल करे. आम चुनाव में पार्टी चार राज्यों में लोकसभा की चार सीटें जीते और साथ ही कम से कम छह फीसदी वोट प्राप्त करे. पार्टी को कम से कम चार राज्यों में मान्यता प्राप्त हो. 


Friday, June 7, 2019

लोया जिरगा क्या होता है?


अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के पश्तून इलाकों में पश्तूनवाली नाम से एक अलिखित विधान चलता है, जिसका सभी कबीले आदर करते हैं. हाल में सोमवार 29 अप्रैल से शुक्रवार 3 मई तक लोया जिरगा का अधिवेशन हुआ, जिसमें अफगानिस्तान में तालिबान के साथ मिलकर सरकार चलाने से जुड़े मसलों पर विचार किया गया. यह नियमों की एक व्यवस्था है. इसके अंतर्गत कबायली परिषद को लोया जिरगा नाम से जाना जाता है. तालिबान के शासन के दौरान पश्तूनवाली के साथ-साथ शरिया कानून भी लागू किए गए थे. करीब एक सदी पुरानी इस संस्था का उपयोग अंतर्विरोधी कबायली गुटों और जातीय समूहों के बीच सहमति बनाने के लिए किया जाता है. 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद भी इस परिषद का उपयोग किया गया था. लोया जिरगा की बैठक अंतिम बार 2013 में हुई थी. सन 2013 के लोया जिरगा में अमेरिका के साथ किए गए द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते को स्वीकृति दी गई थी. अब अफ़ग़ानिस्तान के संविधान में लोया जिरगा की व्यवस्था शामिल है. सन 2004 में बने वर्तमान अफ़ग़ान संविधान में लोया जिरगा का उल्लेख है. यह एक प्रकार से जनमत संग्रह का प्रतीक है और इसे असाधारण स्थितियों में ही बुलाया जाता है.
इसकी शुरूआत कैसे हुई?
यों तो यह सैकड़ों साल पुरानी व्यवस्था है, जो परम्परा से चलती थी, पर सौ साल पहले बादशाह अमानुल्ला (1919-29) ने आधुनिक युग में इसकी शुरूआत की. उन्होंने अपने शासन के संचालन के लिए लोया जिरगा का सहारा लिया. इसका मतलब है कि वे तमाम महत्वपूर्ण सवालों पर जनता की राय लेते रहते थे. वर्तमान संविधान के अनुसार इसमें संसद के दोनों सदनों के सदस्यों के अलावा सभी प्रांतों और जिलों के प्रतिनिधि सदनों के सभापतियों की भागीदारी होती है. लोया जिरगा मूलतः सलाह और राय देने वाली प्रक्रिया है. इसमें आमराय बनती है. हालांकि इसका महत्व देश की संसद से भी ज्यादा है, पर निर्भर करता है कि इसमें प्रतिनिधित्व किस प्रकार का है.
कितनी बार हुआ?
सन 2001 के बाद की व्यवस्था में अबतक छह बार लोया जिरगा के अधिवेशन हो चुके हैं. पिछले हफ्ते छठा अधिवेशन हुआ. पहला अधिवेशन 2002 में हुआ था, जिसमें 1600 प्रतिनिधि शामिल हुए थे. तबतक देश का वर्तमान संविधान बना नहीं था. दिसम्बर 2003 के अंत और जनवरी 2004 के शुरुआती दिनों में बुलाए गए लोया जिरगा में देश के वर्तमान संविधान को स्वीकृति दी गई थी. इसके बाद जून 2010 में इसका एक अधिवेशन हुआ था. नवम्बर 2011 में एक परम्परागत लोया जिरगा भी हुआ. इसके बाद नवम्बर 2013 में इसका एक अधिवेशन हुआ. इस बार लोया जिरगा में आमंत्रित तीन हजार से ज्यादा लोगों को संबोधित करते हुए अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ ग़नी ने कहा, 'हम तालिबान के साथ वार्ताओं के लिए मुख्य बातों को स्पष्ट करना चाहते हैं. इसके लिए हम आप सभी से स्पष्ट सलाह चाहते हैं.' इस बैठक के लिए तालिबान को भी आमंत्रित किया था, लेकिन तालिबान ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया.

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