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Sunday, April 5, 2015

एटीएम का इस्तेमाल कैसे शुरू हुआ?

एटीएम का पूरा अर्थ क्या है?
एटीएम का अर्थ है ऑटोमेटेड टैलर मशीन। टैलर को सामान्यत: क्लर्क या कैशियर के रूप में पहचानते हैं। एटीएम की ज़रूरत पश्चिमी देशों में वेतन बढ़ने तथा प्रशिक्षित कर्मियों की संख्या में कमी होने के कारण पैदा हुई। काम को आसान और सस्ता बनाने के अलावा यह ग्राहक के लिए सुविधाजनक भी है। व्यावसायिक संस्थानों में सेल्फ सर्विस की अवधारणा बढ़ रही है। इसके आविष्कार का श्रेय आर्मेनियाई मूल के अमेरिकी लूथर जॉर्ज सिमियन को जाता है। उसने 1939 में इस प्रकार की मशीन तैयार कर ली थी, जिसे शुरू में उसने बैंकमेटिक नाम दिया। पर इस मशीन को किसी ने स्वीकार नहीं किया। बैंक अपने कैश को लेकर संवेदनशील होते हैं। वे एक मशीन के सहारे अपने कैश को छोड़ने का जोखिम मोल लेने को तैयार नहीं थे। लूथर इसके विकास में लगा रहा और 21 साल बाद जून 1960 में उसने इसका पेटेंट फाइल किया। फरवरी 1963 में उसे पेटेंट मिला। इस बीच उसने सिटी बैंक ऑफ न्यूयॉर्क (आज का सिटी बैंक) को इसे प्रयोगात्मक रूप से इस्तेमाल करने के लिए राज़ी कर लिया। छह महीने के ट्रायल में यह मशीन लोकप्रिय नहीं हो पाई। साठ के दशक में ही क्रेडिट कार्ड का चलन शुरू होने के कारण जापान में इस तरीके की मशीन की ज़रूरत महसूस की गई। तब तक कुछ और लोगों ने मशीनें तैयार कर ली थीं। जापान में 1966 में एक कैश डिस्पेंसर लगाया गया, जो चल निकला। उधर 1967 में लंदन में बार्कलेज़ बैंक ने ऐसी मशीन लगाने की घोषणा की। उस मशीन को तैयार किया था भारत में जन्मे स्कॉटिश मूल के जॉन शै़फर्ड ने। इस मशीन में तब से काफी बदलाव हो चुके हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स और इंस्ट्रूमेंटेशन के बुनियादी तौर-तरीकों में काफी बदलाव हो चुका है। मैग्नेटिक स्ट्रिप के कारण इसकी कार्य-पद्धति बदल गई है। प्लास्टिक मनी की संस्कृति विकसित होने के कारण इसका चलन बढ़ता ही जा रहा है। अब तो आप भारतीय बैंक के कार्ड से अमेरिका में भी पैसा निकाल सकते हैं।
एमआरपी अधिकतम खुदरा मूल्य तय करने का मानक क्या है?
भारत के उपभोक्ता सामग्री (उत्पादन और अधिकतम मूल्य का अनिवार्य मुद्रण) अधिनियम 2006 के अनुसार देश में बिकने वाली उपभोक्ता सामग्री का अधिकतम मूल्य पैकेट पर छपा होना चाहिए। दुनिया के तमाम देशों में इस आशय के अपने-अपने कानून हैं। इनका उद्देश्य एक ओर उपभोक्ता के अधिकारों की रक्षा करना है वहीं छोटे व्यापारियों की बड़े व्यापारियों से प्रतियोगिता में छोटे व्यापारियों और उपभोक्ता के हितों की रक्षा करना भी है। जब इस प्रकार की व्यवस्था नहीं थी, बड़े व्यापारी बाजार में अपने ढंग से कीमत तय करते थे। अब उत्पादक पर यह जिम्मेदारी है कि वह अपनी उत्पादन लागत के अलावा खुदरा व्यापारी तक उस वस्तु के जाने तक होने वाली मूल्य वृद्धि, माल भाड़े, चुंगी तथा अन्य टैक्स और वाजिब मुनाफे को जोड़कर अधिकतम सम्भावित कीमत तय कर दे। दुकानदार उससे अधिक कीमत पर उसे नहीं बेचेगा और यदि वह डिस्काउंट देगा तो ग्राहक को पता होगा कि कितनी छूट दी गई है।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित
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