Showing posts with label प्रभात खबर अवसर. Show all posts
Showing posts with label प्रभात खबर अवसर. Show all posts

Sunday, April 5, 2020

आईआईपी क्या है?


औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (इंडेक्स ऑफ़ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन या आईआईपी) किसी अर्थव्यवस्था के औद्योगिक क्षेत्र में किसी खास अवधि में उत्पादन के स्थिति के बारे में जानकारी देता है. भारत में हर महीने इस सूचकांक के आँकड़े जारी किए जाते हैं. ये आंकड़े आधार वर्ष के मुकाबले उत्पादन में बढ़ोतरी या कमी के संकेत देते हैं. औद्योगिक सूचकांक तैयार करने की परम्परा ज्यादातर देशों में है, पर इस सिलसिले में पहल भारत ने की है और अन्य देशों के पहले यह हमारे यहाँ शुरू हो गया था. सबसे पहले भारत ने 1937 के आधार वर्ष को मानते हुए यह सूचकांक तैयार करना शुरू किया था, जिसमें 15 उद्योगों को शामिल किया गया था. देश का आईआईपी सन 1950 से जारी किया जा रहा है. सन 1951 में केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन की स्थापना के बाद से यह संगठन इसे तैयार कर रहा है. सन 1937 के बाद आधार वर्ष 1946, 1951, 1956, 1960, 1970, 1980-81, 1993-94, 2004-05 और 2011-12 माने गए. यह सूचकांक उद्योग क्षेत्र में हो रही बढ़ोतरी या कमी को बताने का सबसे सरल तरीका है. चूंकि यह सूचकांक है, इसलिए यह विभिन्न औद्योगिक क्षेत्रों के उत्पादन की मात्रा के आधार पर प्रतिशत सुधार या गिरावट को दर्शाता है. इसके लिए अलग-अलग सेक्टर बनाए गए हैं उनमें विनिर्माण, खनन और ऊर्जा तीन उप-क्षेत्र हैं.
क्या तीनों सेक्टर समान हैं?
नहीं, विनिर्माण को सबसे ज्यादा 77.6 प्रतिशत स्थान (वेटेज) दिया जाता है, उसके बाद खनन को 14.4 और ऊर्जा को 8 प्रतिशत. इनमें भी आठ कोर उद्योगों को 40.27 प्रतिशत वेटेज दिया गया है. ये कोर उद्योग हैं बिजली, इस्पात, रिफाइनरी, खनिज तेल, कोयला, सीमेंट, प्राकृतिक गैस और उर्वरक. एक बास्केट के औद्योगिक उत्पादन की तुलना उसके पहले की उसी अवधि के उत्पादन से की जाती है. औद्योगिक प्रगति को अलग-अलग सेक्टरों के साथ-साथ सकल औद्योगिक उत्पादन के रूप में भी देखा जा सकता है. एक वर्गीकरण उपयोग आधारित (यूज़ बेस्ड) भी है, जिसमें छह वर्ग होते हैं. ये हैं प्राथमिक सामग्री (खनन, विद्युत, ईंधन और उर्वरक), पूँजीगत सामग्री (मशीनरी), माध्यमिक सामग्री (धागा, रसायन, अर्ध निर्मित इस्पात की वस्तुएं वगैरह), इंफ्रास्ट्रक्चर सामग्री (पेंट, सीमेंट, केबल, ईंटें, टाइल्स, रेल सामग्री वगैरह), उपभोक्ता सामग्री (परिधान, टेलीफोन, यात्री वाहन इत्यादि), उपभोक्ता अल्पजीवी वस्तुएं (खाद्य सामग्री, दवाएं, टॉयलेटरी).
सूचकांक क्या बता रहा है?
नवीनतम आँकड़ों के अनुसार विनिर्माण क्षेत्र में नरमी रहने के कारण दिसंबर 2019 दौरान देश के औद्योगिक उत्पादन 0.3 फीसदी की गिरावट आई. एक साल पहले इसी महीने में देश के औद्योगिक उत्पादन में 2.5 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी. विनिर्माण क्षेत्र में बीते दिसंबर में 1.2 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई, जबकि एक साल पहले इसी महीने में 2.9 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गई थी. बिजली क्षेत्र का उत्पादन दिसंबर में 0.1 फीसदी घटा. केवल खनन क्षेत्र में ही सुधार देखा गया, जिसकी वृद्धि दर 5.4 फीसदी रही जबकि नवंबर में इसमें 1.7 फीसदी का इजाफा हुआ था.



Friday, April 3, 2020

कोरोनावायरस क्या है?


कॉरोनावायरस कई तरह के वायरसों का एक समूह है, जो मनुष्यों और पशुओं में भी साधारण सर्दी-जुकाम से लेकर गम्भीर सार्स और मर्स जैसी बीमारियाँ फैलता है. हालांकि इस वायरस की पहचान 1960 के दशक में ही कर ली गई थी, पर इन दिनों जिस नोवेल कॉरोनावायरस (एनकोव या nCoV) के मनुष्यों में फैलने की खबरें हैं, उसकी पहचान 2019 में ही हुई है. कोरोनावायरस ज़ूनोटिक (zoonotic) हैं, यानी उनका पशुओं और मनुष्यों के बीच संक्रमण होता है. इन्हें लैटिन शब्द कोरोना से यह नाम मिला, जिसका अर्थ होता है किरीट (क्राउन) या आभा मंडल. जब इन्हें सूक्ष्मदर्शी से देखा जाता है, तो इनके चारों ओर सूरज के आभा मंडल जैसा बनता है. सांसों की तकलीफ़ बढ़ाने वाले इस वायरस की पहचान चीन के वुहान शहर में पहली बार 17 नवम्बर 2019 को हुई. तेज़ी से फैलने वाला ये संक्रमण निमोनिया जैसे लक्षण पैदा करता है. चीन में इस संक्रमण के अध्ययन से पता लगा है कि इस वायरस का असर स्त्रियों के मुकाबले पुरुषों पर ज्यादा होता है और बच्चों पर सबसे कम.
वायरस होता क्या है?
वायरस परजीवी होते हैं, इनके संक्रमण से जीवों में अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं और ये एक पोषी से दूसरे पर फैलते हैं. वायरस अकोशिकीय परजीवी हैं जो केवल जीवित कोशिका में ही वंश वृद्धि कर सकते हैं. ये नाभिकीय अम्ल और प्रोटीन से मिलकर गठित होते हैं, शरीर के बाहर तो ये मृत-समान होते हैं परंतु शरीर के अंदर जीवित हो जाते हैं. यह सैकड़ों साल तक सुशुप्तावस्था में रह सकता है और जब भी एक जीवित मध्यम या धारक के संपर्क में आता है उस जीव की कोशिका को भेद कर फैल जाता है और जीव बीमार हो जाता है. लैटिन में ‘वायरस’ शब्द का अर्थ है विष. उन्नीसवीं सदी के शुरू में इस शब्द का प्रयोग रोग पैदा करने वाले किसी भी पदार्थ के लिए किया जाता था. अब वायरस शब्द का प्रयोग रोग पैदा करने वाले कणों के लिए भी किया जाता है.
क्या ये उपयोगी भी हैं?
वायरस से रोग होते हैं परन्तु इनका उपयोग लाभदायक कार्यों के लिए भी किया जाता है. अनेक वायरस ऐसे हैं, जिनका इस्तेमाल इलाज के लिए किया जा सकता है. इनका इस्तेमाल कीटनाशकों की तरह हो रहा है, साथ ही ऐसी फसल और पौधों को तैयार करने में भी हो रहा, जिनमें रोग प्रतिरोधक, तेज गर्मी को सहन करने और कम पानी के इस्तेमाल से भी बढ़ने की क्षमता पैदा होती है. वायरसों की सहायता शरीर में रोग-प्रतिरोध क्षमता पैदा करने के लिए भी ली जा रही है. प्रयोगशाला में सुधार करके कुछ वायरसों का इस्तेमाल कैंसर पैदा करने वाली कोशिकाओं को नष्ट करने में भी किया जा रहा है. इसके अलावा कई तरह की जेनेटिक बीमारियों को रोकने में भी इनकी मदद ली जा रही है. वस्तुतः वायरोथिरैपी नाम से एक नया विज्ञान उभर कर सामने आ रहा है.


Thursday, April 2, 2020

पैंडेमिक घोषणा का अर्थ क्या है?



बुधवार 11 मार्च को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने कोविड-19 के प्रसार को पैंडेमिक या विश्वमारी घोषित किया है. चीन ने गत 31 दिसम्बर को इस बीमारी के तेज प्रसार की घोषणा की थी. इसके बाद 30 जनवरी उसने सार्वजनिक स्वास्थ्य आपत्काल की घोषणा की. डब्लूएचओ ने 72 दिन तक स्थिति का अध्ययन किया फिर गत 11 मार्च को इसे पैंडेमिक घोषित करते हुए डब्लूएचओ के डायरेक्टर जनरल टेड्रॉस एडेनॉम गैब्रेसस ने कहा कि इस शब्द का दुरुपयोग नहीं होना चाहिए. इससे भय पैदा हो सकता है और यह माना जा सकता है कि इसे रोकने में हम नाकामयाब हुए हैं. बीमारियों के बड़े स्तर पर प्रसार को लेकर अंग्रेजी के दो शब्द प्रयुक्त होते हैं. एक है एपिडेमिक (Epidemic) और दूसरा पैंडेमिक (Pandemic). हिंदी में सामान्यतः दोनों के लिए महामारी शब्द का इस्तेमाल हो रहा है. यों एपिडेमिक के लिए महामारी और पैंडेमिक के लिए विश्वमारी और देशांतरगामी महामारी शब्दों का इस्तेमाल तकनीकी शब्दावली में किया गया है, ताकि दोनों के फर्क को बताया जा सके. पैंडेमिक घोषित होने से स्वास्थ्यकर्मियों और डब्लूएचओ की कार्यशैली में कोई अंतर नहीं आएगा. विशेषज्ञ मानते हैं कि इससे सरकारों का ध्यान जाएगा, साथ ही आवागमन पर रोक लगने से प्रसार की गति रुकेगी. 
यह घोषणा अब क्यों?
डब्लूएचओ के महानिदेशक ने कहा, चूंकि शुरू में इसका प्रभाव केवल चीन तक सीमित था, इसलिए हमने ऐसी घोषणा नहीं की. पिछले दो हफ्तों में चीन के बाहर इससे प्रभावित लोगों की संख्या तेरह गुना और प्रभावित देशों की संख्या तिगुनी हुई है. उदाहरण के लिए 29 फरवरी को इटली में 888 केस थे, जो एक हफ्ते में 4,636 हो गए. वस्तुतः यह शब्द बीमारी की भयावहता से ज्यादा उसके प्रसार क्षेत्र को बताता है. जब कोई बीमारी काफी बड़े भौगोलिक क्षेत्र में फैलती है और बड़ी संख्या के लोगों के शरीर में उस बीमारी से लड़ने की क्षमता नहीं होती है, तब पैंडेमिक की घोषणा की जाती है. बीमारी से होने वाली मौतों से पैंडेमिक की घोषणा नहीं होती, बल्कि उसके प्रसार क्षेत्र से तय होती है.
पहले भी कभी बीमारियाँ फैलीं?
सबसे बड़ा उदाहरण है सन 1918 में फैला स्पेनिश फ्लू. इसमें दो से पाँच करोड़ लोगों की मौत हुई थी. यों सन 1817 से 1975 के बीच कॉलरा को कई बार पैंडेमिक घोषित किया गया है. डब्लूएचओ ने पिछली बार सन 2009 में एच1एन1 के प्रसार को पैंडेमिक घोषित किया था. एबोला वायरस, जिसके कारण पश्चिमी अफ्रीका में हजारों मौतें हो चुकी हैं, महामारी (एपिडेमिक) है. उसे पैंडेमिक नहीं माना गया. मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (2012) मर्स और एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (2002) सार्स जैसी बीमारियाँ क्रमशः 27 और 26 देशों में फैलीं, पर उन्हें पैंडेमिक घोषित नहीं किया गया, क्योंकि उनका प्रसार जल्द रोक लिया गया.  

Friday, February 21, 2020

वित्त आयोग की रिपोर्ट में क्या है?


भारत में संघीय राज-व्यवस्था है. यह व्यवस्था तीन स्तर पर काम करती है. मूलतः पहले यह द्विस्तरीय थी. केन्द्र, राज्य और केन्द्र शासित क्षेत्र. सन 1992 के 73वें और 74वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बन गया है. संविधान के अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व-संग्रहण और वितरण की व्यवस्था है. अनुच्छेद 280 के तहत भारत के राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करते हैं, जिसका उद्देश्य राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व के वितरण की व्यवस्था पर विचार करना है. हाल में 15वें वित्त आयोग कार्य ने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट दी है. गत 1 फरवरी को आम बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की कि आयोग की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है. पंद्रहवें वित्त आयोग ने विभाजन योग्य केंद्रीय करों की राशि में वित्त वर्ष 2020-21 में राज्यों के लिए 41 प्रतिशत कर हिस्सेदारी की सिफारिश की है. इसके साथ ही आयोग ने नवगठित संघ शासित प्रदेशों जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को एक प्रतिशत हिस्सा देने का सुझाव दिया है. इस तरह उसने पिछले आयोग के वितरण फॉर्मूले में राज्यों के हिस्से में एक फीसदी की कमी की है, पर कुल मिलाकर अनुपात वही है. आयोग इस साल बाद में 2021-22 से पांच साल के लिए अपनी अंतिम रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपेगा.
रिपोर्ट पर विवाद क्या है?
विवाद के पीछे राजस्व वितरण के बारे में 15वें आयोग के दो सैद्धांतिक आधार हैं. एक है जनसंख्या के 1971 के आँकड़ों के बजाय नवीनतम जनसंख्या को आधार बनाना, जिसके कारण दक्षिण के राज्यों को नुकसान होगा. दूसरे आयोग का यह सुझाव है कि धन वितरण के पहले रक्षा कोष की राशि को अलग कर लिया जाए. आयोग ने फिलहाल इस दूसरे सुझाव को स्थगित कर दिया है, पर जनसांख्यिकीय आँकड़ों को लेकर दक्षिण में आपत्तियाँ हैं. दक्षिण के राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर उत्तर के मुकाबले कम है, पर जब जनसंख्या के आधार पर धन वितरण होता है, तो उन्हें कम संसाधन मिलते हैं. 15वें वित्त आयोग ने कहा है कि अब सन 2011 के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
समाधान क्या है?
14वें वित्त आयोग का भी सुझाव था कि आबादी के पुराने आंकड़ों का इस्तेमाल करना उचित नहीं है, पर उसने एक तरीका सुझाया था. उसके अनुसार यह भी देखा जाना चाहिए कि उत्तर के अनेक लोग अस्थायी या स्थायी तौर पर उच्च आय वाले राज्यों में रहने चले जाते हैं. इसलिए आबादी के भार और जनसांख्यिकीय बदलाव के संकेतकों को अलग-अलग पेश किया जाना चाहिए. परेशानी केवल राजस्व वितरण को लेकर ही नहीं है. दक्षिण भारत के राज्यों में इस बात को लेकर चिंता है कि भविष्य में लोकसभा की सीटों का परिसीमन होने पर उत्तर की राजनीतिक शक्ति बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी. सन 2002 में हुए 84वें संविधान संशोधन के अनुसार संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन 2026 तक टल गया है, पर जब भी होगा, ये सवाल उठेंगे.



Friday, January 31, 2020

ई-मंडी क्या है?


ई-मंडी नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट या कृषि मंडियों को जोड़ने वाले इलेक्ट्रॉनिक व्यापार मंच का नाम है. इसके अंग्रेजी संक्षिप्ताक्षर हैं ई-नाम. हिंदी में इसके लिए ई-मंडी शब्द प्रचलित है. इसकी मदद से किसानों को देशभर की कृषि मंडियों में कृषि उत्पादों का भाव पता चलता है, साथ ही वे अपनी उपज को बेच भी सकते हैं. हमारे देश में कृषि उत्पादों को एक राज्य से दूसरे राज्य में बेचने की प्रक्रियाएं जटिल हैं, जिसके कारण अक्सर किसानों को अपनी उपज कम कीमत पर बेचनी पड़ती है. केंद्रीय कृषि मंत्रालय के तहत काम करने वाला 'लघु कृषक कृषि व्यापार संघ' (एसएफएसी) ई-नाम को लागू करने वाली शीर्ष संस्था है. देशभर में करीब 2,700 कृषि उपज मंडियां और 4,000 उप-बाजार हैं. पहले कृषि उपज मंडी समितियों के भीतर या एक ही राज्य की दो मंडियों में कारोबार होता था. अब दो राज्यों की अलग-अलग मंडियों के बीच ई-नाम के माध्यम से व्यापार शुरू किया गया है. किसानों को इस अवधारणा के साथ खुद को जोड़ने में शायद समय लगे, पर मंडियों में व्याप्त बदइंतजामी का यह एक साफ-सुथरा विकल्प है. एक राष्ट्रीय बाजार बनाने के लिए राज्यों के कृषि मंडी कानूनों में बदलाव की जरूरत भी होगी. सरकार इसे 22,000 ग्रामीण बाजारों से जोड़ना चाहती है. इसकी सफलता के पीछे बुनियादी ताकत तकनीक की है. ट्रेडर्स अब खरीदारी से पहले जिंस की गुणवत्ता को चैक कर सकें इसके लिए सरकार ने देश की सभी मंडियों में क्वालिटी चैक लैब बनाने का भी फैसला किया है.
यह कब शुरू हुआ?
भारत सरकार ने अप्रेल 2016 में कृषि उत्पादों के लिए ऑनलाइन बाजार की शुरुआत की थी. ताजा समाचार है कि गत 31 दिसम्बर 2019 तक देश ई-नाम के माध्यम से होने वाला कारोबार 91,000 करोड़ रुपये का हो गया है. इस समय देश के 16 राज्यों में 585 कृषि मंडियाँ इस प्लेटफॉर्म से जुड़ चुकी हैं. अभी तक देश में 1.65 करोड़ किसान और 1.27 व्यापारी ई-नाम में पंजीकृत हैं. साल 2017 तक ई-मंडी से सिर्फ 17 हजार किसान ही जुड़े थे. सरकार का कहना है कि कारोबार जल्द एक लाख करोड़ रुपये को पार कर लेगा. इस सप्ताह आने वाले आम बजट में इस सिलसिले में कोई घोषणा हो सकती है. इस कार्यक्रम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि राज्य अपने कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) कानून में जल्द से जल्द बदलाव करें और छोटे किसानों को भी अच्छा बाजार उपलब्ध कराएं. किसानों की समस्या यह है कि उनके राज्यों के कानून ही उनकी उपज को बेहतर बाजारों में जाने से रोकते हैं.
एपीएमसी में बदलाव होगा?
पिछले नवम्बर में वित्तमंत्री वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि केंद्र सरकार राज्यों से अनुरोध कर रही है कि वे कृषि उत्पाद बाजार समिति (एपीएमसी) को खारिज कर दें और इलेक्ट्रॉनिक नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट (ई-नाम) को अपनाएं. वित्तमंत्री ही नहीं स्वयं प्रधानमंत्री जब भी किसानों के बीच जाते हैं इस कार्यक्रम का जिक्र जरूर करते हैं. जो महत्वपूर्ण खेतिहर राज्य इससे बाहर हैं, उनमें बिहार, केरल और कर्नाटक के नाम हैं. उम्मीद है कि मार्च के तक केरल और बिहार भी इसमें शामिल हो जाएंगे. कर्नाटक में राज्य स्तर का एक पोर्टल पहले से काम कर रहा है. केंद्र सरकार प्रयास कर रही है कि कर्नाटक भी जल्द से जल्द केंद्रीय पोर्टल से खुद को जोड़े.

ट्रंप पर महाभियोग का अर्थ?


अमेरिकी संविधान के अनुसार चुने हुए राष्ट्रपति के विरुद्ध शिकायतें हैं, तो वहाँ की संसद के दोनों सदन मिलकर एक प्रक्रिया पूरी करने के बाद राष्ट्रपति को हटा सकते हैं. यह प्रक्रिया संसद के दोनों सदनों में एक के बाद एक करके पूरी करनी होती है. इन दिनों वहाँ के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध संसद में महाभियोग की प्रक्रिया चल रही है, जिसका पहला चरण प्रतिनिधि हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में पूरा हो चुका है, जहाँ यह प्रस्ताव 193 के मुकाबले 228 वोटों से पास हो गया है. अब वहाँ की सीनेट को इस विषय पर विचार करना है. सीनेट से यह प्रस्ताव दो तिहाई बहुमत से पास होना जरूरी है, अन्यथा इसे रद्द माना जाएगा. अमेरिका के 230 साल के इतिहास में ट्रंप तीसरे राष्ट्रपति हैं, जिनके विरुद्ध महाभियोग लाया गया है. उनके पहले केवल दो राष्ट्रपतियों, 1886 में एंड्रयू जॉनसन और 1998 में बिल ​क्लिंटन के​ ख़िलाफ़ महाभियोग लाया गया था, लेकिन दोनों राष्ट्रपतियों को पद से हटाया नहीं जा सका. सन 1974 में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन पर अपने एक विरोधी की जासूसी करने का आरोप लगा था. इसे वॉटरगेट स्कैंडल का नाम दिया गया था. उस मामले में महाभियोग की प्रक्रिया शुरू होने के पहले उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया था.
महाभियोग क्यों?
हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स में महाभियोग की यह प्रक्रिया 24 सितंबर, 2019 को शुरू हुई थी और अब अंतिम पड़ाव यानी सीनेट तक आ पहुँची है. ट्रंप पर आरोप है कि उन्होंने राष्ट्रपति पद का आगामी चुनाव जीतने के लिए अपने एक प्रतिद्वंदी के ख़िलाफ़ साजिश की है. उन्होंने यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेन्स्की के साथ फ़ोन पर हुई बातचीत में ज़ेलेंस्की पर दबाव डाला कि वे जो बायडन और उनके बेटे के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार के दावों की जाँच करवाएं. जो बायडन डेमोक्रेटिक पार्टी के संभावित उम्मीदवार हैं. आरोप है कि ट्रंप ने ज़ेलेंस्की से कहा था कि हम आपके देश को रोकी गई सैनिक सहायता शुरू कर सकते हैं, बशर्ते आप जो बायडन, उनके बेटे हंटर और यूक्रेन की एक नेचुरल गैस कंपनी बुरिस्मा के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच बैठा दें. बुरिस्मा के बोर्ड में हंटर सदस्य रह चुके हैं.
अब क्या होगा?
अब सीनेट में ट्रंप के विरुद्ध आरोपों को रखा गया है. प्रतिनिधि सदन ने इस काम के लिए सात महाभियोग प्रबंधकों को चुना है. वे सीनेट में जाकर आरोप पढ़ेंगे. गत 15 जनवरी को ये प्रबंधक एक जुलूस के रूप में सीनेट गए थे और गुरुवार 16 जनवरी को उन्होंने सदन में इन आरोपों को जोरदार आवाज में पढ़ा. सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स ने इसके साथ ही सीनेट के सभी 100 सदस्यों को न्याय करने की शपथ दिलाई. वे इस सुनवाई की अध्यक्षता करेंगे. अगले सप्ताह सुनवाई की प्रक्रियाएं तय होंगी, जिनके पूरा होने के बाद इस प्रस्ताव पर मतदान होगा. अनुमान है कि यह प्रस्ताव पास नहीं हो पाएगा. देखना होगा कि इसका प्रभाव राष्ट्रपति पद के चुनाव पर पड़ेगा या नहीं.



Thursday, January 16, 2020

दफा 144 क्या होती है?


अपराध प्रक्रिया संहिता-1973 या सीआरपीसी की धारा 144 इन दिनों देशव्यापी आंदोलनों के कारण खबरों में है. गत वर्ष अगस्त के महीने से जम्मू कश्मीर में लगाई गई पाबंदियों के सिलसिले में फैसला सुनाते हुए 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 144 का इस्तेमाल किसी के विचारों को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता. अदालत ने कहा कि इस धारा का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता है, और लंबे समय तक के लिए नहीं लगा सकते हैं, इसके लिए जरूरी तर्क होना चाहिए. सामान्यतः जब किसी इलाके में कानून-व्यवस्था बिगड़ने का अंदेशा हो, तो इस धारा को लागू किया जाता है. इसे लागू करने के लिए मजिस्ट्रेट या प्राधिकृत अधिकारी एक अधिसूचना जारी करता है. जिस जगह भी यह धारा लगाई जाती है, वहां तीन या उससे ज्यादा लोग जमा नहीं हो सकते हैं. मोटे तौर पर इसका इस्तेमाल सभाएं करने या लोगों को जमा करने से रोकना है. उस स्थान पर हथियारों के लाने ले जाने पर भी रोक लगा दी जाती है. इसका उल्लंघन करने वाले को गिरफ्तार किया जा सकता है, जिसमें एक साल तक की कैद की सजा भी हो सकती है. यह एक ज़मानती अपराध है, जिसमें जमानत हो जाती है.
कितने समय के लिए लगती है?
धारा-144 को दो महीने से ज्यादा समय तक नहीं लगाया जा सकता है, पर यदि राज्य सरकार को लगता है कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए इसकी जरूरत है तो इसकी अवधि को बढ़ाया जा सकता है. इस स्थिति में भी इसे छह महीने से ज्यादा समय तक इसे नहीं लगाया जा सकता है. इस कानून को अतीत में कई बार अदालतों में चुनौती दी गई है. यह धारा अंग्रेजी राज की देन है और सबसे पहले सन 1861 में इसका इस्तेमाल किया गया था. इस धारा की आलोचना में यह बात कही जाती है कि इसका उद्देश्य जो भी हो, पर प्रशासन इसका दुरुपयोग करता है.
अदालतों में चुनौती दी गई?
सन 1939 में अर्देशिर फिरोज शॉ बनाम अनाम मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट की आलोचना की थी. सन 1961 के बाबूलाल पराटे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के पाँच सदस्यों की बेंच ने इस कानून को रद्द करने से इनकार कर दिया था. सन 1967 में समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने इसे चुनौती दी, पर अदालत ने कहा, यदि सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की खुली छूट दे दी जाएगा, तो कोई भी लोकतंत्र बचा नहीं रहेगा. सन 1970 में मधु लिमये बनाम सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट मामले में भी अदालत ने इसे रद्द करने से इनकार कर दिया. सन 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन सरकार की इस बात के लिए आलोचना की थी कि पुलिस ने रामलीला मैदान में सोते हुए लोगों की पिटाई की थी.


Friday, January 10, 2020

जनगणना कब होती है?


भारत में हर दस साल बाद जनगणना होती है. दुनिया में अपने किस्म की यह सबसे बड़ी प्रशासनिक गतिविधि है. पिछली जनगणना सन 2011 में हुई थी और अगली जनगणना अब 2021 में होगी. जनगणना में आबादी के साथ ही साक्षरता, शिक्षा, बोली-भाषा, लिंगानुपात, शहरी तथा ग्रामीण निवास तथा अन्य जनसांख्यिकीय जानकारियाँ मिलती हैं. सन 2011 की जनगणना के अनुसार विश्व की कुल आबादी की तुलना में 17.5 फीसदी लोग भारत में रहते हैं. उससे पिछली जनगणना यानी 2001 में यह आंकड़ा 16.8 प्रतिशत का था. 2001 से 2011 में भारत की जनसंख्या 17.6 प्रतिशत की दर से 18 करोड़ बढ़ी है. यह वृद्धि वर्ष 1991-2001 की वृद्धि दर  21.5 प्रतिशत, से करीब 4 प्रतिशत कम थी. 2011 की जनगणना से यह भी पता लगा था कि भारत और चीन की आबादी का अंतर दस साल में घटकर 23 करोड़ 80 लाख से 13 करोड़ 10 लाख रह गया. इसी तरह देश में साक्षरता की दर 10 प्रतिशत बढ़कर करीब 74 प्रतिशत हो गई. जनगणना 2021 भारत की 16वीं और आजादी के बाद आज़ादी के बाद यह आठवीं जनगणना होगी. पहली जनगणना सन 1872 में हुई थी.
क्या यह एनपीआर से अलग है?
जनगणना बुनियादी तौर पर सभी निवासियों की गिनती है. जबकि राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर या एनपीआर में व्यक्तियों के नाम और उनके जन्म, निवास तथा अन्य जानकारियों का विवरण दर्ज होगा. यह काम जनगणना की तरह घर-घर जाकर होगा. यह भारतीयों के साथ भारत में रहने वाले विदेशी नागरिकों के लिए भी अनिवार्य होगा. इसका उद्देश्य देश में रहने वाले लोगों की पहचान से जुड़ा डेटाबेस तैयार करना है. पहला एनपीआर 2010 में तैयार किया गया था और उसे 2015 में अपडेट किया गया था. इसे नागरिकता क़ानून 1955 और सिटीजनशिप (रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटीजन्स एंड इश्यू ऑफ नेशनल आइडेंटिटी कार्ड्स) रूल्स, 2003 के प्रावधानों के तहत गाँव, पंचायत, ज़िला, प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर पर किया जाएगा.
जातीय जनगणना क्या है?
देश में जो जनगणना होती है, उसमें धर्म के साथ ही अनुसूचित जातियों और जनजातियों का विवरण भी होता, पर सभी जातियों का विवरण नहीं होता. देश में केवल 1931 में जातीय जनगणना हुई थी. इस बात की माँग होती रही है कि जाति आधारित जनगणना होनी चाहिए. इसकी जरूरत शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को आरक्षण देने के लिए भी हुई थी. मंडल आयोग ने 1931 की जनगणना को आधार बनाते हुए यह पाया था कि 52 प्रतिशत लोग ओबीसी वर्ग में आते हैं. सन 2011 की जनगणना के साथ जातीय आधार पर जनगणना कराने की बात भी हुई थी. इस सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारियाँ सन 2015 में जारी की गईं, पर इसे जाति आधारित जनगणना नहीं कहा जा सकता. इसे लेकर कई प्रकार की पेचीदगियाँ बनी हुई हैं.



Thursday, December 26, 2019

सीडीएस क्या है?


इस साल स्वतंत्रता दिवस के अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि देश की सेनाओं के नेतृत्व को प्रभावशाली बनाने और उनके बीच बेहतर समन्वय के लिए शीघ्र ही चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की नियुक्ति की जाएगी. सेना के सभी अंगों के बीच समन्वय की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. माना जाता है कि जिन देशों में यह पद होता है, वहाँ की सेनाओं के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता नहीं होती है. खासतौर से युद्ध के समय उसकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. अमेरिका में चेयरमैन जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (सीजेसीएससी) ऐसा ही पद है. इस पद पर नियुक्त अधिकारी को वरिष्ठतम सेनाधिकारी माना जाता है और वह राष्ट्रपति का सलाहकार होता है. अमेरिका में सेना की सर्वोच्च संस्था जॉइंट चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (जेसीएससी) होती है, जिसमें थलसेना, वायुसेना, नौसेना, मैरीन कोर और नेशनल गार्ड के अध्यक्ष इस कमेटी के सदस्य होते हैं. सीजेसीएससी इसके प्रमुख होने के नाते मुख्य सैनिक सलाहकार होते हैं, पर वे विभिन्न थिएटरों के ऑपरेशनल प्राधिकारी नहीं होते. सेनाओं को निर्देश देने का अधिकार राष्ट्रपति के पास ही होता है. भारत में उसके समतुल्य चेयरमैन चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी (सीओएससी) का पद है, पर वह पर्याप्त अधिकार संपन्न नहीं है.
इसकी जरूरत क्यों?
सन 1999 में करगिल युद्ध के बाद रक्षा विशेषज्ञ के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में एक समीक्षा समिति बनाई गई थी, जिसने 2000 में दाखिल अपनी रिपोर्ट में पाँच सितारा अधिकारी के रूप में सीडीएस की नियुक्ति का सुझाव दिया गया था. हालांकि तब उसकी नियुक्ति तो नहीं हुई थी, पर 23 नवंबर, 2001 को इंटीग्रेटेड डिफेंस स्टाफ (आईडीएस) की स्थापना हो गई थी, पर सीडीएस की नियुक्ति का मामला टलता रहा. प्रधानमंत्री और रक्षामंत्री तक सीधे संपर्क में रहने वाले सैनिक अधिकारी की नियुक्ति को लेकर देश के नागरिक प्रशासन के मन में झिझक थी. इसके अलावा भी कई और संदेह थे. सन 2011 में तत्कालीन सरकार ने सुरक्षा मामलों को लेकर नरेश चंद्रा कमेटी का गठन किया. इस कमेटी ने भी 2012 की अपनी रिपोर्ट में सीडीएस की नियुक्ति का सुझाव दिया. फिर लेफ्टिनेंट जनरल डीबी शेकतकर कमेटी (2016) ने भी इसी आशय की सलाह दी.
कब होगी नियुक्ति?
भारतीय सेना के सह-प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल मनोज मुकुंद नरवाने इस महीने के अंत में जनरल बिपिन रावत से सेनाध्यक्ष का कार्यभार संभालेंगे, जो 31 दिसंबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं. इस नियुक्ति के बाद संभावना है कि सीडीएस की नियुक्ति होगी। इस पद के लिए निवृत्तमान सेनाध्यक्ष जनरल बिपिन रावत का नाम लिया जा रहा है। उपयुक्त पात्र का चयन करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल की अध्यक्षता में एक कार्यान्वयन समिति का गठन किया था, जिसे सीडीएस पद की भूमिका, उसकी नियुक्ति और उससे जुड़ी अन्य बातों को परिभाषित करने का काम दिया गया था. इस समिति ने अपनी सिफारिशें रक्षा मामलों से संबद्ध कैबिनेट कमेटी (सीसीएस) को सौंप दी हैं.



Thursday, December 19, 2019

फास्टैग क्या है?


फास्टैग भारत का इलेक्ट्रॉनिक टोल कलेक्शन सिस्टम है. दुनिया के अलग-अलग देशों में टोल कलेक्शन की इलेक्ट्रॉनिक प्रणालियाँ हैं. फास्टैग का संचालन राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) करता है. यह सिस्टम इस साल 15 दिसंबर से पूरे देश में लागू हो गया है. इस प्रकार एनएचएआई के अधीन काम करने वाले सभी 560 टोल प्लाजा इसके अंतर्गत आ गए हैं. इसकी शुरुआत 4 नवम्बर 2014 में अहमदाबाद और मुम्बई के बीच स्वर्ण चतुर्भुज राजमार्ग पर हुई थी. जुलाई 2015 में चेन्नई-बेंगलुरु राजमार्ग के टोल प्लाजा इसके सहारे भुगतान को स्वीकार करने लगे. इसके कारण अब राजमार्गों पर बने टोल प्लाजा काउंटरों के सामने लाइनें लगना बंद हो जाएगा. सरकार ने सभी वाहन स्वामियों के लिए फास्टैग अनिवार्य कर दिया है. फास्टैग को अमेज़न डॉट इन के अलावा बैंकों से खरीदा जा सकता है. पिछले कुछ समय से देश में बिकने वाले नए वाहनों में फास्टैग पहले से लगा होता है. शुरुआत में टोल प्लाजा पर एक लेन ऐसी भी होगी, जिसमें नकद भुगतान स्वीकार किया जा सकेगा. फास्टैग वाहन पर नहीं लगाएंगे, तो ऐसे वाहनों को टोल प्लाजा पर सिर्फ एक लेन से गुजरने की अनुमति मिलेगी और उन्हें जाम से जूझना पड़ सकता है.  
यह कैसे काम करता है?
यह रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडैंटिफ़िकेशन (आरएफआईडी) तकनीक पर काम करने वाली प्रणाली है. यह वैसी ही प्रणाली है, जो मेट्रो ट्रेन के स्मार्ट यात्रा-कार्ड में होती है. यह ऐसी व्यवस्था है, जिसमें वाहन स्वामी टोल प्लाजा पर या तो अपने किसी प्रीपेड या सेविंग्स बैंक खाते से भुगतान करता है. यह वाहन के विंड स्क्रीन पर लगा होता है, जिसके कारण टोल प्लाजा पर उसे रुककर भुगतान नहीं करना होता है और इलेक्ट्रॉनिक भुगतान हो जाता है. जनवरी 2019 में इंडियन ऑयल, भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम जैसी कंपनियों ने पेट्रोल पम्पों पर फास्टैग के मार्फत पेट्रोल खरीदने की व्यवस्था भी कर दी थी.
पैसा कहाँ से आएगा?
फास्टैग पेटीएम या ऐसे ही किसी वॉलेट से या डैबिट/क्रेडिट कार्ड से जुड़ा होता है. वाहन के स्वामी को रिचार्ज या टॉप अप करना पड़ता है. यदि यह एकाउंट किसी बचत खाते से जुड़ा है, तो उसके खाते से पैसा खुद ब खुद कट जाएगा, पर खाते में इतना पैसा होना चाहिए कि वह कम न पड़े. जैसे ही वाहन टोल प्लाजा पर करेगा वाहन स्वामी के पास पैसा कटने का एसएमएस आएगा. बैंकों के अलावा राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण की ओर से जारी फास्टैग भी उपलब्ध हैं. शुरुआती दिनों में फास्टैग कई तरह के कैशबैक और छूट भी दे रहे हैं. फास्टैग खरीदने के लिए वाहन के रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट की एक कॉपी और वाहन स्वामी के पासपोर्ट साइज के फोटो की जरूरत होती है. इसके अलावा केवाईसी दस्तावेज के रूप में आईडी और एड्रेस प्रूफ की जरूरत होगी. इसके लिए पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, पासपोर्ट, वोटर आईडी, आधार काम करेंगे.

Saturday, December 14, 2019

डेटा संरक्षण बिल क्या है?


केंद्रीय मंत्रिमंडल ने बुधवार 4 दिसम्बर को व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक-2019 को अपनी मंजूरी दे दी. यह विधेयक संसद में पेश किया जाएगा. संभव है कि इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक पेश कर दिया गया हो. विधेयक के पास हो जाने के बाद भारतीय विदेशी कंपनियों को व्यक्तियों के बारे में प्राप्त व्यक्तिगत जानकारियों के इस्तेमाल को लेकर कुछ मर्यादाओं का पालन करना होगा. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में प्राइवेसी को मौलिक अधिकार घोषित किया था, पर अभी तक देश में व्यक्तिगत सूचनाओं के बारे में कोई नियम नहीं है. यह विधेयक एक उच्चस्तरीय समिति की सिफारिशों के आधार पर तैयार किया गया था. इस समिति की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बीएन श्रीकृष्ण ने की थी. विधेयक के महत्व को समझने के पहले सूचनाओं के महत्व को समझना भी जरूरी होगा. जैसे-जैसे इंटरनेट का विस्तार हो रहा है और जीवन में उसकी भूमिका बढ़ रही है, वैसे-वैसे जीवन में सुविधाओं और सहूलियतों के साथ-साथ कई तरह की पेचीदगियाँ भी बढ़ रही हैं. हालांकि देशों ने इंटरनेट के इस्तेमाल को अपने-अपने तरीके से नियंत्रित किया है, पर इसपर हम विश्व-नागरिक के रूप में भ्रमण करते हैं, इसलिए इसकी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिधियों पर भी विचार करना होगा. साथ ही हमें गूगल जैसे सर्च इंजनों की दुविधाओं को भी समझना होगा, जिनका कार्यक्षेत्र पूरा विश्व है.
कानून में क्या है?
यह कानून पास हो जाने के बाद कम्पनियों को कुछ समय इसके लिए दिया जाएगा, ताकि वे अपनी व्यवस्थाएं कर सकें. इस विधेयक में संवेदनशील डेटा, वित्तीय डेटा, स्वास्थ्य डेटा, आधिकारिक पहचान, लैंगिक रुझान, धार्मिक या जातीय डेटा, बायोमीट्रिक डेटा तथा अनुवांशिकी डेटा जैसी जानकारियों को परिभाषित किया गया है. कंपनियों के लिए ये जरूरी नहीं होगा कि वे तमाम तरह के निजी डेटा को भारत में ही स्टोर और प्रोसेस करें. संवेदनशील और क्रिटिकल निजी डेटा को लेकर भौगोलिक बंदिशों का प्रावधान बिल में है. यानी किस प्रकार की सूचनाओं को देश के बाहर भी प्रोसेस किया जा सकता है और किस प्रकार के बेहद महत्वपूर्ण डेटा को केवल देश में ही प्रोसेस किया जा सकता है.
सोशल मीडिया पर असर?
देश के टेक्नोलॉजी उद्योग ने इस विधेयक पर खुशी भी जाहिर की है और अपने अंदेशे भी जाहिर किए हैं. विधेयक में सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों पर यूजर्स के स्वैच्छिक वैरीफिकेशन का प्रस्ताव किया है. साथ ही कंपनियों से कहा है कि वे अपने गोपनीय डेटा की जानकारी सरकार को दें. वैरीफिकेशन की जरूरत सोशल मीडिया को और ज्यादा जिम्मेदार बनाने के लिए है. उससे जुड़ी कंपनियों से कहा जाएगा कि वे ऐसी व्यवस्थाएं बनाएं, जिसमें यूजर्स खुद ही वैरीफाई करें और जो खुद को वैरीफाई नहीं करें, उनकी पहचान अलग कर दी जाए. इससे फेक एकाउंटों का पहचान हो सकेगी.


Thursday, December 5, 2019

जीडीपी और जीवीए क्या हैं?


ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट यानी सकल राष्ट्रीय उत्पाद का सूचकांक आर्थिक उत्पादन की जानकारी देता है. इसमें निजी खपत, अर्थव्यवस्था में सकल निवेश, सरकारी निवेश, सरकारी खर्च और शुद्ध विदेशी व्यापार (निर्यात और आयात का फर्क) शामिल होता है. पिछले कुछ वर्षों से आर्थिक विकास की दर के आकलन के लिए ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) का इस्तेमाल होने लगा है. जीवीए से अर्थ-व्यवस्था के किसी खास अवधि में सकल आउटपुट और उससे होने वाली आय का पता लगता है. यानी इनपुट लागत और कच्चे माल का दाम निकालने के बाद कितने के सामान और सर्विसेज का उत्पादन हुआ. मोटे तौर पर जीडीपी में सब्सिडी और टैक्स निकालने के बाद जो आंकड़ा मिलता है, वह जीवीए होता है. जीवीए से उत्पादक यानी सप्लाई साइड से होने वाली आर्थिक गतिविधियों का पता चलता है जबकि जीडीपी में डिमांड या उपभोक्ता की नजर से तस्वीर नजर आती है. जरूरी नहीं कि दोनों ही आंकड़े एक से हों क्योंकि इन दोनों में नेट टैक्स के ट्रीटमेंट का फर्क होता है. उपादान लागत या स्थायी लागत (फैक्टर कॉस्ट) के आधार पर जीडीपी का मतलब होता है कि औद्योगिक गतिविधि में-वेतन, मुनाफे, किराए और पूँजी-यानी विभिन्न उपादान के मार्फत सकल प्राप्ति. इस लागत के अलावा उत्पादक अपने माल की बिक्री के पहले सम्पत्ति कर, स्टाम्प ड्यूटी और पंजीकरण शुल्क वगैरह भी देता है. जीडीपी में ये सब शामिल होते हैं, जीवीए में नहीं. जीवीए में वह लागत शामिल होती है, जो उत्पाद को बेचने के पहले लगी थी.
जीडीपी स्लोडाउन क्या है?
जीडीपी संवृद्धि दर में लगातार गिरावट को स्लोडाउन माना जा रहा है. गत 30 अगस्त को घोषित आंकड़ों के अनुसार इस वित्त वर्ष की पहली तिमाही यानी अप्रेल से जून के दौरान जीडीपी की दर घटकर 5 फीसदी हो गई थी. अब 29 नवम्बर को घोषित आँकड़ों के अनुसार दूसरी तिमाही (जुलाई, अगस्त, सितम्बर) में यह दर कम होकर 4.5 प्रतिशत हो गई है. दूसरी तिमाही में जीवीए की दर 4.3 फीसदी रही. इन दोनों तिमाहियों के आधार पर इस साल के पहले छह महीनों की औसत जीडीपी संवृद्धि दर 4.8 प्रतिशत है, जबकि पिछले वित्त वर्ष यानी 2018-19 में पहले छह महीनों की औसत दर 7.5 फीसदी थी.
इसे लेकर चिंता क्यों?
पिछली 26 तिमाहियों में यह सबसे कम दर है. इससे पहले जनवरी-मार्च 2012-13 की तिमाही में जीडीपी संवृद्धि की दर 4.3 प्रतिशत थी. देश की जीडीपी की औसत सालाना दर को 5.00 फीसदी बनाए रखने के लिए अगली दो तिमाहियों यानी छह महीने में औसत विकास दर 5.2 प्रतिशत रखनी होगी. अर्थशास्त्रियों के नजरिए से इस धीमी संवृद्धि की बड़ी वजह है ग्रामीण क्षेत्र की घटती माँग. कृषि उत्पादों की कम कीमतों और खेती के लगातार अलाभकारी होते जाने के कारण ग्रामीण क्षेत्रों में उपभोक्ता सामग्री की माँग कम हुई है.



Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...