पहला टेस्ट ट्यूब बेबी कितने साल का है? आजकल क्या कर रहा है?
कर रहा है नहीं कर रही है। पुरुष पहले आया या स्त्री इसका
पता नहीं, पर टेस्ट ट्यूब बेबी के रूप में सबसे पहले लड़की का जन्म हुआ था। 25 जुलाई
1978 को ग्रेट ब्रिटेन में लेज़्ली ब्राउन ने दुनिया के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी को जन्म
दिया था। इस बेबी का नाम है लुइज़ जॉय ब्राउन। इनके पिता का नाम है जॉन ब्राउन। इनके
माता-पिता के विवाह के नौ साल बाद तक संतान नहीं होने पर उन्होंने डॉक्टरों से सम्पर्क
किया। डॉक्टर रॉबर्ट जी एडवर्ड्स कई साल से ऐसी तकनीक विकसित करने के प्रयास में थे,
जिसे इन विट्रो फर्टिलाइज़ेशन कहा जाता है। डॉक्टर एडवर्ड्स को बाद में चिकित्सा विज्ञान
का नोबेल पुरस्कार भी दिया गया। टेस्ट ट्यूब बेबी लुइज़ आज 34 वर्ष की हैं और वे एक
बच्चे की माँ हैं। उनके बेटे का नाम केमरन है, जिसकी उम्र पाँच साल है। लुइज़ का विवाह
सन 2004 में वेस्ली मलिंडर से हुआ था। और 20 दिसम्बर 2006 को केमरन का जन्म सामान्य
तरीके से हुआ।
ऑटोग्राफ देने का रिवाज़ कैसे शुरू हुआ?
ऑटोग्राफ शब्द का अर्थ है हस्तलेख। ऑटोस यानी स्व और ग्राफो
यानी लिखना। यानी जो आपने स्वयं लिखा है। पुराने वक्त में टाइपिंग या छपाई होती नहीं
थी। केवल हाथ से लिखा जाता था, पर जो जो पत्र, दस्तावेज़ या लेख व्यक्ति स्वयं लिखता
उसे ऑटोग्राफ कहते। ऐसा भी होता कि दस्तावेज़ कोई और लिखता और उसके नीचे उसे अधिकृत
करने वाला अपने हाथ से अपना नाम लिख देता। यह नाम उसकी पहचान था। ऑटोग्राफ इस अर्थ
में दस्तखत हो गया। किसी को याद रखने का सबसे अच्छा तरीका उसके हस्तलेख या ऑटोग्राफ
हासिल करना भी हो गया। राजाओं, राष्ट्रपतियों, जनरलों, कलाकारों, गायकों वगैरह के दस्तखत
अपने पास जमा करके रखने का चलन बीसवीं सदी में बढ़ा है। इस शौक को फिलोग्राफी कहते
हैं।
पारसमणि क्या है?
पारसमणि एक काल्पनिक पत्थर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके स्पर्श से
कोई भी चीज़ सोने की हो जाती है। ऐसा कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय रसायानाचार्य नागार्जुन
ने पारे को सोने में बदलने की तरकीब विकसित की थी। यह भी कहा जाता है कि उन्होंने ही
पारसमणि बनाई थी। पारसमणि पत्थर है या रासायनिक रचना इसे लेकर भी अलग-अलग राय है। अलबत्ता
झारखंड के गिरिडीह इलाके के पारसनाथ जंगल में आज भी लोग पारसमणि की खोज करते रहते हैं।
रविवार की छुट्टी किस देश में नहीं होती?
ऱविवार की छुट्टी ईसाई परम्परा है। बाइबिल के अनुसार
ईश्वर ने पृथ्वी की रचना सात दिन में की। और सातवें दिन आराम किया। सातवाँ दिन आराम
का और ईश्वर की प्रार्थना का दिन है। हर देश में रविवार को छुट्टी नहीं होती। हमारे पड़ोस
में नेपाल है, जहाँ शनिवार को साप्ताहिक छुट्टी होती है। बांग्लादेश है जहाँ शुक्रवार
को छुट्टी होती है।
रेडियो जॉकी की आवाज़ हम तक कैसे पहुँचती है?
इस बात का जवाब देने के लिए हम अपने स्टूडियो पर
नज़र डालते हैं। आशिमा जी ने जब यह सवाल पूछा तब उन्होंने माइक्रोफोन का इस्तेमाल किया
और जब मैंने जवाब दिया तब दूसरे माइक्रोफोन का इस्तेमाल किया। माइक्रोफोन ने हमारी आवाज
को इलेक्ट्रिकल सिग्नल में बदला। यह सिग्नल इतना ताकतवर नहीं होता कि सवाल पूछने वाले को मेरी आवाज़ सुनाई
पड़ जाए, इसलिए इसलिए इसे ट्रांसमीटर में भेजा जाता है। ट्रांसमीटर इस सिग्नल को कुछ
और ताकतवर सिग्नल्स के साथ मिला देता है। यह स्ट्रांग सिग्नल्स कैरियर वेव्स होती हैं।
रेडियो वेव इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन का एक रूप है। सन 1864 में ब्रिटिश वैज्ञानिक
जेम्स क्लार्क मैक्सवैल ने इसे सिद्धांत रूप में साबित किया था और 1880 में जर्मन वैज्ञानिक
हेनरिश हर्ट्ज़ ने इसे पुष्ट किया। हर्ट्ज़ ने पहली बार रेडियो तरंगों के प्रसारण और
ग्रहण करने के काम को करके दिखाया। 1896 में इटली के गुग्लिएल्मो मार्कोनी ने रेडियो
तरंगों का इस्तेमाल करते हुए टेलीग्राफ प्रणाली को पेटेंट कराया। बहरहाल रेडियो तरंगों
के माध्यम से हमारी आवाज़ श्रोताओं तक जा रही है। जब ये तरंगें आपके रेडियो के एंटीना
तक पहुंचती हैं तब एंटीना उन्हें कैच कर रेडियो के एम्प्लीफायर तक पहुंचाता है और एम्प्लीफायर
इसे और ताकत देकर स्पीकर तक पहुंचाता है। आपके कान इन्हें सुनकर आपके दिमाग तक पहुँचाते
हैं।
गांधीजी
को राष्ट्रपिता की उपाधि कैसे मिली?
गांधी जी
को यह उपाधि किसी ने दी नही, बल्कि यह जन-भावना का प्रतीक सम्बोधन है। अलबत्ता सन
1944 में रंगून से एक रेडियो प्रसारण में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उनके नाम के पहले
राष्ट्रपिता शब्द लगाया। इसी तरह 30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या के बाद राष्ट्र
के नाम सम्बोधन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित
किया। इसी तरह उनके महात्मा सम्बोधन के बारे में भी प्रमाण के साथ नहीं कहा जा सकता
कि किसने पहली बार उन्हें महात्मा कहा। सन 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत आने के
पहले उन्हें महात्मा कहा जाता था या नहीं। आमतौर पर माना जाता है कि उन्हें गुरुदेव
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने महात्मा कहा। पर यह नाम उन्होंने दिया या उससे पहले से उन्हें
महात्मा कहा जाता रहा था, इसपर मतभेद है। ऐसा प्रमाण ज़रूर है कि 21 जनवरी 1915 को
गुजरात के जेतपुर में नगरसेठ और स्वतंत्रता सेनानी नौतमलाल भगवानजी मेहता (कामदार)
ने उन्हें महात्मा कहा था। उस समय तक गांधी जी की गुरुदेव से भेंट नहीं हुई थी। गुरुदेव
से उनकी मुलाकात अप्रेल 1915 में हुई। इसी प्रकार का सम्बोधन बापू भी है।
कुम्भ
मेला का इतिहास क्या है?
कुम्भ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल-हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन
और नासिक में स्नान करते हैं। इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष में इस
पर्व का आयोजन होता है। मेला प्रत्येक तीन वर्षो के बाद नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन
और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है। इलाहाबाद में संगम के तट पर होने वाला
आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है। इसका आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है, लेकिन मेले का
प्रथम लिखित प्रमाण महान बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है जिसमें आठवीं
शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुम्भ का प्रसंगवश वर्णन किया
गया है। इस मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है। ऐसी मान्यता
है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है। धार्मिक मान्यता
है कि राक्षसों और देवताओं में जब अमृत के लिए लड़ाई हो रही थी तब भगवान विष्णु ने
एक 'मोहिनी' का रूप लिया और राक्षसों से अमृत को हासिल कर लिया।
भगवान विष्णु ने गरुड़ को अमृत पात्र दे दिया। राक्षसों और गरुड़ के संघर्ष में अमृत
की कुछ बूंदें इलाहाबाद, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन में गिर गई। तब से प्रत्येक
12 साल में इन सभी स्थानों में 'कुम्भ मेला' आयोजित किया जाता है। हरिद्वार और प्रयाग में दो
कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुंभ होता है।