Sunday, October 25, 2015

साबुन शब्द कहाँ से आया?

साबुन शब्द किस भाषा का है और इसका शाब्दिक अर्थ क्या होता है?
धीरज कुमार, 38, बैचलर्स आश्रम, निकट आईटी कॉलेज, निराला नगर, लखनऊ-20 (उ.प्र.)
हिन्दी शब्दों के मूल पर शोध करने वाले अजित वडनेरकर के अनुसार साबुन शब्द मूलतः यूरोपीय भाषाओं में इस्तेमाल होने वाला शब्द है। माना जाता है कि दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में साबुन शब्द पुर्तगालियों की देन है। एशिया-अफ्रीका-यूरोप में इसके साबू, साबन, साबुन, सेबॉन, सेवन, सोप, साबौन, सैबुन, सबुनी आदि रूप मिलते हैं जो भारत की तमाम भाषाओं सहित अरब, इराक, ईरान, मलेशिया, श्रीलंका, सिंगापुर, कम्बोडिया, जावा और जापान आदि क्षेत्रों की विभिन्न बोलियों में प्रचलित हैं। उनके अनुसार दक्षिण-पूर्वी एशिया में चाहे साबुन शब्द पुर्तगालियों के जरिए पहुंचा होगा परंतु भारत में इसके पीछे पुर्तगाली नहीं रहे होंगे। यह मानने का कारण है कबीर का यह दोहा- निन्दक नियरे राखिए, आँगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय।।

भारत में वास्को डी गामा पहला पुर्तगाली माना जाता है जो 1498 में कालीकट के तट पर उतरा था। जबकि कबीर का जन्म इससे भी सौ बरस पहले 1398 का माना जाता है। कुछ विद्वान उन्हें 1440 की पैदाइश भी मानते हैं तो भी साफ है कि पुर्तगालियों के आने से पहले कबीर साबुन शब्द का प्रयोग कर चुके थे। कबीर के वक्त तक हिन्दी में अरबी-फारसी शब्द घुल-मिल चुके थे। लगता है कि हिन्दी में साबुन शब्द अरबी-फारसी के रास्ते आया है।  

साबुन के मूल रूप में एक शब्द सोप भी है जो अंग्रेजी का है। यह पुरानी अंग्रेजी में सेप था। प्रोटो जर्मेनिक में सेपॉन, डच में ज़ीप। इसमें धुलाई, धार, टपकना आदि भाव समाए थे। फ्रेंच में इसका रूप है सेवन। लैटिन में इसका रूप हुआ सैपो-सैपोनिस। अर्थ है खिज़ाब या हेयर डाई। लैटिन से यह शब्द ग्रीक में बना सैपोन। इतालवी में सैपोन और स्पेनिश में जबॉन बना। अरबी में बना साबुन और हिब्रू में सैबोन। पुर्तगाली में लैटिन से गया सैपो शब्द सबाओ बना। भारत की पश्चिमी तटवर्ती भाषाओं कन्नड़ कोंकणी, मराठी, गुजराती में इसके सबाओ, साबू, सबू जैसे रूप भी हैं जो इस इलाके पर पुर्तगाली प्रभाव बताते हैं। शेष भारत में अरबी रूप साबुन ही प्रचलित हुआ। अरबों से भारत के कारोबारी रिश्ते काफी पुराने हैं, पर साबुन शब्द संस्कृत ने ग्रहण नहीं किया।

विनोबा भावे के बारे में कृपया विस्तार से बताइए? उनके योगदान को युवा पीढ़ी कितना विश्लेषण कर आत्मसात कर पाई है?
अशोक कुमार ठाकुर, ग्राम: मालीटोल, पोस्ट: अदलपुर, जिला: दरभंगा (बिहार)
आचार्य विनोबा भावे (11 सितम्बर 1895 - 15 नवम्बर 1982) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता तथा महात्मा गांधी के अनुयायी थे। स्वतंत्रता के बाद चलाए गए भूदान आंदोलन के लिए उन्हें खासतौर से याद किया जाता है। उनका मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। नरहरि उनके पिता का नाम था। विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे ‘बा’ लगाने का चलन है। वैसे ही जैसे तुकोबा, विठोबा और विनोबा। विनोबा ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष पुनार, महाराष्ट्र के आश्रम मे गुजारे।

महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र में उनका पैतृक गाँव है, गागोदा। 1915 में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। उन दिनों इंटर की परीक्षा के लिए मुंबई जाना पड़ता था। विनोबा 25 मार्च 1916 को मुंबई जाने वाली रेलगाड़ी में सवार हुए। उस समय उनका मन डांवांडोल था। पूरा विश्वास था कि परीक्षा पास कर ही लेंगे, पर उसके बाद क्या? जब गाड़ी सूरत पहुंची, विनोबा उससे नीचे उतर आए। दूसरे प्लेटफॉर्म पर पूर्व की ओर जाने वाली रेलगाड़ी खड़ी थी।

विनोबा को लगा कि हिमालय उन्हें आमंत्रित कर रहा है। हिमालय की ओर यात्रा के बीच में काशी का पड़ाव आया। जिन दिनों विनोबा सत्यान्वेषण के लिए काशी में भटक रहे थे, उन्हीं दिनों भारत को पहचानने और उससे आत्मीयता का रिश्ता कायम करने के लिए दक्षिण अफ्रीका से भारत आए महात्मा गांधी देश का भ्रमण करने निकले थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हुए एक सम्मेलन में गांधी जी ने धनवानों से कहा कि अपने धन का सदुपयोग राष्ट्र निर्माण के लिए करें। उसको गरीबों के कल्याण में लगाएं। यह क्रांतिकारी अपील थी। विनोबा ने समाचारपत्र के माध्यम से गांधी जी के बारे में जाना। उन्हें लगा कि जिस लक्ष्य की खोज में वे घर से निकले हैं, वह पूरी हुई।

उन्होंने गांधी जी के नाम पत्र लिखा। जवाब आया। गांधी जी के आमंत्रण के साथ। वे अहमदाबाद स्थित गांधी जी के कोचरब आश्रम की ओर रवाना हो गए। 7 जून 1916 को विनोबा की गांधी से पहली भेंट हुई। उसके बाद वे गांधी जी के ही होकर रह गए। बाद में गांधी जी ने उन्हें वर्धा आश्रम में भेजा। बहुत ज्यादा काम करने के कारण जब उनका स्वास्थ्य गिरने लगा और किसी पहाड़ी स्थान पर जाने की डाक्टर ने सलाह दी, तब 1937 में वे पवनार आश्रम में गए। तब से जीवन पर्यन्त उनका यही केन्द्रीय स्थान रहा।

विनोबा ने सन 1951 में भूदान आंदोलन शुरू किया। यह स्वैच्छिक भूमि सुधार आन्दोलन था। वे चाहते थे कि भूमि का पुनर्वितरण केवल सरकारी कानूनों के जरिए नहीं हो, बल्कि एक आंदोलन के माध्यम से इसकी कोशिश की जाए। उन्होंने सर्वोदय समाज की स्थापना की। 18 अप्रैल 1951 को जमीन का पहला दान मिला था। उन्हें यह जमीन तेलंगाना क्षेत्र में स्थित पोचमपल्ली गांव में मिली थी। विनोबा पदयात्राएं करते और गांव-गांव जाकर बड़े भूस्वामियों से अपनी जमीन का कम से कम छठा हिस्सा भूदान के रूप में भूमिहीनों के बीच बांटने के लिए देने का अनुरोध करते थे। तब पांच करोड़ एकड़ जमीन दान में हासिल करने का लक्ष्य रखा गया था जो भारत में 30 करोड़ एकड़ जोतने लायक जमीन का छठा हिस्सा था। मार्च 1956 तक दान के रूप में 40 लाख एकड़ से भी अधिक जमीन बतौर दान मिल चुकी थी। पर इसके बाद आंदोलन का बल बिखरता गया।

विनोबा ने जब देख लिया कि वृद्धावस्था ने उन्हें आ घेरा है तो उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया। उन्होंने कहा, मृत्यु का दिवस विषाद का नहीं उत्सव का दिवस है। उन्होंने अपनी मृत्यु के लिए दीपावली दिन चुना। अन्न जल त्यागने के कारण एक सप्ताह के अन्दर 15 नवम्बर 1982 को  वर्धा में उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। युवा वर्ग ने उनकी शिक्षा को कितना आत्मसात किया, कहना मुश्किल है। लगता है काफी लोगों का उनके जीवन से परिचय भी नहीं है।
कादम्बिनी के सितम्बर 2015 अंक में प्रकाशित

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