Saturday, April 20, 2024

अनिवार्य मतदान का मतलब क्य़ा है?


चुनाव में भागीदारी को स्वस्थ लोकतांत्रिक-व्यवस्था के लिए ज़रूरी और मतदाता का अधिकार माना जाता है। कुछ देशों में इसे कर्तव्य भी माना जाता है और उसमें भाग लेना कानूनन अनिवार्य होता है। मतदान में भाग नहीं लेने पर वोटर की भर्त्सना या जुर्माने की व्यवस्था भी होती है।
यदि कोई वैध मतदाता, मतदान केन्द्र पहुंचकर अपना मत नहीं देता है तो उसे पहले से घोषित कुछ दंड का भागी बनाया जा सकता है।

यह कोई नई अवधारणा नहीं है। बेल्जियम में सबसे पहले 1893 में पुरुषों के लिए और फिर 1948 में स्त्रियों के लिए भी अनिवार्य मतदान का प्रावधान किया गया था। अर्जेंटीना में 1914 में और ऑस्ट्रेलिया में 1924 में। इनमें ऑस्ट्रेलिया, अर्जेंटीना और बेल्जियम के अलावा सायप्रस, सिंगापुर, बोलीविया, कोस्टारिका, इक्वेडोर, फिजी, थाईलैंड, मिस्र, उरुग्वाय, लक्ज़ेम्बर्ग, चिली और ब्राज़ील के नाम भी शामिल हैं।

कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें अनिवार्य मतदान की व्यवस्था कुछ समय लागू रही और फिर बाद में उसे खत्म कर दिया गया। ऐसे देशों में वेनेजुएला और द नीदरलैंड्स के नाम शामिल हैं। जनवरी 2023 तक की जानकारी के अनुसार दुनिया के 21 देशों में मतदान अनिवार्य है। कई देशों में मतदान ना करने पर दंड का प्रावधान है। हालांकि कुछ राजनीति शास्त्री मानते हैं कि मतदान एक महत्वपूर्ण अधिकार है, पर मतदान में भाग नहीं लेना भी उस अधिकार का हिस्सा है। भारत में नोटा (नन ऑफ द एबव) भी इसका एक रूप है।

वीवीपैट क्या है?

वोटर वैरीफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) या वैरीफाइड पेपर रिकार्ड (वीपीआर) इलेक्ट्रॉनिक वोटर मशीन का उपयोग करते हुए मतदाताओं को फीडबैक देने का एक तरीका है। यह एक स्वतंत्र सत्यापन प्रणाली है, जिससे मतदाताओं को जानकारी मिल जाती है कि उनका वोट सही ढंग से डाला गया है। इसमें वोट का बटन दबने के बाद एक पर्ची छपकर बाहर आती है। मतदाता सात सेकंड तक यह देख सकता है कि उसने जिस प्रत्याशी को वोट दिया है उसका नाम और चुनाव चिह्न क्या है। भारत में, 2014 के चुनाव में एक पायलट प्रोजेक्ट के रूप में 543 में से 8 संसदीय क्षेत्रों में वीवीपैट प्रणाली की शुरुआत की गई थी। ये क्षेत्र थे लखनऊ, गांधीनगर, बेंगलुरु दक्षिण, चेन्नई सेंट्रल, जादवपुर, रायपुर, पटना साहिब और मिजोरम। इनका पहली बार इस्तेमाल सितंबर 2013 में नगालैंड के नोकसेन विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र हुआ था। सन 2017 में गोवा विधानसभा चुनाव में संपूर्ण राज्य में इनका इस्तेमाल किया गया था। चुनाव आयोग ने इस वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में हरेक संसदीय क्षेत्र के हरेक विधानसभा क्षेत्र के एक पोलिंग स्टेशन पर वीवीपैट के इस्तेमाल का निर्देश जारी किया है।

 इनकी जरूरत क्यों पड़ी?

 भारत में सन 1999 के लोकसभा चुनाव में आंशिक रूप से और 2004 के चुनाव में पूरी तरह से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल किया गया था। उस चुनाव में 10 लाख से ज्यादा वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया गया। इन मशीनों के इस्तेमाल के पहले हमारे देश में कागज के बैलट पेपरों का इस्तेमाल होता था। उन चुनावों में बूथ कैप्चरिंग की शिकायतें आती थीं। उनकी गिनती में काफी समय लगता था और मानवीय त्रुटि की सम्भावनाएं भी थीं। वोटिंग मशीनें बनाने की कोशिशें उन्नीसवीं सदी से चल रहीं थीं। अमेरिका में वोटिंग मशीन का पेटेंट भी कराया गया था। वह वोटिंग मशीन इलेक्ट्रॉनिक मशीन नहीं थी। पंचिंग मशीन थी। भारत में चुनाव आयोग ने वोटिंग मशीन का निर्माण भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड, बेंगलुरु और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड, हैदराबाद की मदद से किया था। सन 1980 में पहली वोटिंग मशीन बनाई गई थी। पहली बार इसका इस्तेमाल सन 1981 में केरल के उत्तरी पारावुर विधानसभा क्षेत्र के 50 पोलिंग स्टेशनों पर किया गया था।

यह खबरों में क्यों है? 

ईवीएम के इस्तेमाल के बाद उन्हें लेकर भी शिकायतें आईं हैं। इन शिकायतों के निवारण के लिए वीवीपैट बनाई गई है। इन मशीनों में भी गड़बड़ी की शिकायतें आती हैं। दूसरे इनकी संख्या बहुत ज्यादा नहीं है। संसदीय क्षेत्र के हरेक विधानसभा क्षेत्र के एक पोलिंग स्टेशन पर वीवीपैट के इस्तेमाल के विरोध में देश के 21 राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। इसपर सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से पूछा कि ज्यादा पोलिंग स्टेशनों पर वीवीपैट के इस्तेमाल में क्या दिक्कत है? इसपर चुनाव आयोग ने जवाब दिया था कि यदि किसी संसदीय क्षेत्र के 50 फीसदी वोटों के लिए वीवीपैट का इस्तेमाल किया जाए, तो मतगणना में छह दिन का विलम्ब होगा। बहरहाल अदालत ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया कि हरेक लोकसभा क्षेत्र में आने वाले पाँच विधानसभा क्षेत्रों के एक-एक पोलिंग स्टेशन पर वीवीपैट का इस्तेमाल किया जाए। अब माँग की जा रही है कि सभी वीवीपैट मशीनों में पड़े वोटों की गिनती भी की जाए। 

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 20 अप्रेल, 2024 को प्रकाशित

Thursday, April 11, 2024

कितनी होती है मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या?

भारत में 1 जनवरी 2004 के पहले तक मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या से जुड़ा कोई नियम नहीं था। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों के विवेक पर निर्भर था कि वे कितने सदस्यों को मंत्रिपरिषद में शामिल करते हैं। उपरोक्त तिथि से लागू 91वें संविधान संशोधन के बाद अब मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या, जिसमें प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री भी शामिल हैं, सदन के कुल सदस्यों की संख्या के 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकती। संविधान के अनुच्छेद 75 (1) के अनुसार मंत्रिपरिषद में प्रधानमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या सदन के सदस्यों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी। इसी तरह संविधान के अनुच्छेद 164 (1ए) के अनुसार राज्य में मंत्रिपरिषद में मुख्यमंत्री सहित मंत्रियों की कुल संख्या राज्य की विधानसभा के सदस्यों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।

Saturday, March 23, 2024

पहले आम चुनाव में हुए थे मतदान के 68 चरण

पहले आम चुनाव में 25 अक्तूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक मतदान के कुल 68 चरण हुए थे। पहले आम चुनाव के बाद चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सबसे ज्यादा समय पंजाब में लगा, जहाँ केवल होशियारपुर चुनाव-क्षेत्र का मतदान होने में ही 25 दिन लगे। ज्यादातर मतदान 1952 में हुआ, पर, मौसम को देखते हुए सबसे पहले 1951 में  चुनाव का पहला वोट 25 अक्तूबर, को हिमाचल प्रदेश की चीनी और पांगी में सबसे पहले मतदान हुआ। उस समय परिवहन की स्थिति यह थी कि मतदान के बाद चुनाव क्षेत्र के मुख्यालय चंबा और कसुंपटी तक मतपेटियों को लाने में एक हफ्ता लगा।

पहले चुनाव के बैलट बॉक्स

इन दिनों चुनाव ईवीएम मशीनों के माध्यम से होते हैं, पर इसके पहले बैलट के माध्यम से होते थे। इन मतपत्रों पर सभी प्रत्याशियों के नाम और चुनाव चिह्न होते थे। मतदाता, जिसे चुनना चाहता था उसके सामने मुहर लगाता था। उसके बाद मतपत्र को एक बक्से में डाल दिया जाता था, जिसे बैलट बॉक्स कहते थे।

देश में सबसे पहले जो चुनाव हुए उसमें भी बैलट बॉक्स होते थे, पर वे कुछ अलग थे।
उस दौर में हरेक प्रत्याशी के लिए अलग बैलट बॉक्स होते थे, जिनपर चुनाव चिह्न होते थे. मतदाता को अपनी पसंद के प्रत्याशी के बक्से में मतपत्र डालना होता था। पहले लोकसभा चुनाव में करीब 25 लाख बैलट बॉक्स का इस्तेमाल किया गया। इन बक्सों में विशेष तरह के ताले का प्रयोग किया गया था। यह व्यवस्था इसलिए क गई थी ताकि बॉक्स को खोल कर वोट से छेड़छाड़ कर पुनः बंद न किया जा सके।

पहले आम चुनावों के लिए बैलेट बॉक्स की यह व्यवस्था अव्यावहारिक लगी, क्योंकि कुछ चुनाव क्षेत्रों में प्रत्याशियों की संख्या काफी ज्यादा थी। अब तो कई बार पचास या उससे भी ज्यादा प्रत्याशी होने लगे हैं। हरेक बूथ में इतने ज्यादा बक्सों की व्यवस्था करना बहुत मुश्किल है। इसलिए 1957 के दूसरे चुनाव से व्यवस्था बदल दी गई और मतपत्र पर सभी प्रत्याशियों के नाम और चुनाव चिह्न होने लगे। मतदाता किसी एक प्रत्याशी को वोट देकर एक सामान्य बक्से में उसे डालने लगा।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 23 मार्च, 2024 को प्रकाशित


Saturday, March 9, 2024

‘वोक’ का मतलब क्या?

अंग्रेजी का ‘वोक’ शब्द वेक यानी जागने का पास्ट टेंस है। इसका अर्थ है ‘जागा हुआ, जाग्रत या जागरूक।’ इस अर्थ में यह व्यक्ति के गुण को बताता है। मूलतः यह अफ्रीकन-अमेरिकन वर्नाक्युलर इंग्लिश (एएवीई) से निकला शब्द है, जिसकी पृष्ठभूमि अमेरिकी जन-जीवन से जुड़ी है। इसका इस्तेमाल रंगभेद और सामाजिक भेदभाव के विरुद्ध जाग्रति के अर्थ में किया जाता है। यह 1930 के दशक में ही गढ़ लिया गया था। तब इसका अर्थ था अश्वेतों के अधिकारों के पक्ष में जाग्रत।

पिछली सदी के अमेरिकी अश्वेत संगीतकार लीड बैली और हाल के वर्षों में एरिका बैडू ने इसे लोकप्रिय बनाया। अलबत्ता 2010 के शुरुआती वर्षों में इसका इस्तेमाल प्रजातीय, लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध और एलजीबीटी अधिकारों के लिए भी होने लगा। तब इसका अर्थ-विस्तार हो गया। यानी केवल रंगभेद या प्रजातीय भेदभाव के अलावा अमेरिकी वामपंथियों ने सामाजिक पहचान, सामाजिक-न्याय के पक्ष में और गोरों की श्रेष्ठता जैसी धारणाओं के विरुद्ध खड़े लोगों के लिए इस विशेषण का इस्तेमाल करना शुरू किया। 2014 में एक अश्वेत व्यक्ति की मौत के बाद शुरू हुए फर्ग्युसन आंदोलन और ब्लैक लाइव्स मैटर जैसे आंदोलनों से यह और लोकप्रिय हुआ। वोक शब्द 2017 में ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में भी शामिल हो गया। इस दौर में इनक्लूसिव या समावेशी धारणाओं, लैंगिक समानता, पर्यावरण-सुरक्षा और राजनीतिक सतह पर धर्मनिरपेक्षता जैसे विचारों की बात होती है। इन विचारों के अंतर्विरोधों को उभारने के लिए वामपंथ के विरोधी इस शब्द का नकारात्मक अर्थ में या मज़ाक में भी इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।

स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव

स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले आम चुनाव 25 अक्तूबर, 1951 से 21 फरवरी, 1952 तक हुए। उसमें लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिए जन-प्रतिनिधियों का चुनाव 17 करोड़ 30 लाख अधिकृत मतदाताओं में से 10 करोड़ 60 लाख ने वोट डालकर किया। लोकसभा की 489 सीटों के लिए कुल 1,874 प्रत्याशी मैदान में थे, जिनमें से 533 निर्दलीय प्रत्याशी थे। चुनाव में कुल 53 पार्टियों ने हिस्सा लिया। चुनाव में कांग्रेस के 364 प्रत्याशी जीते, दूसरे स्थान पर कम्युनिस्ट पार्टी रही, जिसके 16 और तीसरे स्थान पर सोशलिस्ट पार्टी के 12 प्रत्याशी जीते। जनसंघ को कुल तीन सीटें मिलीं और डॉ भीमराव आंबेडकर की पार्टी शेड्यूल्‍ड कास्ट फेडरेशन को दो सीटें मिलीं। डॉ आंबेडकर स्वयं चुनाव हार गए थे।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित

Thursday, March 7, 2024

संसद के उच्च सदन को जानिए

दुनिया के काफी देशों में एक सदन वाली संसदीय व्यवस्था काम करती है। हमारे पड़ोस में श्रीलंका और बांग्लादेश में एक सदनात्मक व्यवस्था है। पश्चिम एशिया और अफ्रीका के देशों में बड़ी संख्या में एक सदन ही हैं। इंडोनेशिया में एक सदन है और स्कैंडिनेवियाई देशों में भी। दुनिया में एक सदन वाले देशों की संख्या ज्यादा हैकरीब दो तिहाई, पर इंग्लैंडफ्रांसअमेरिकाकनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में दो सदनों की व्यवस्था है। अतीत में कुछ देशों ने तीन सदनों वाली व्यवस्था भी शुरू की थी। दो सदन होने पर एक को उच्च सदन और दूसरे को निम्न सदन कहते हैं। सामान्यतः निम्न सदनों का आकार और प्रतिनिधित्व प्रत्यक्ष होता है। उसके पास अधिकार भी ज्यादा होते हैं। कार्यपालिका की जवाबदेही उनके प्रति होती है। उच्च सदन की भूमिका प्रायः सलाह देने की होती है। कुछ देशों में उच्च सदन काफी प्रभावशाली होता है। अमेरिकी सीनेट के पास प्रशासन को चलाने की काफी शक्तियाँ होती हैं। नीदरलैंड्स में उच्च सदन किसी प्रस्ताव को रोक सकता है। भारत में राज्यसभाअमेरिकाऑस्ट्रेलिया और कनाडा में सीनेटयुनाइटेड किंगडम में लॉर्डसभामलेशिया में दीवान नेगाराजर्मनी में बुंडेसराट और फ्रांस में सीने उच्च सदन हैं। इटली की सीनेट के पास वही अधिकार होते हैंजो निम्न सदन के पास हैं। 

सीएजी क्या होता है?

भारत का नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक जिसे अंग्रेजी में कंप्ट्रोलर ऑडिटर जनरल कहते हैं, जिसका संक्षिप्त रूप है सीएजी। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 148 द्वारा स्थापित एक प्राधिकारी है जो भारत सरकार, सभी प्रादेशिक सरकारों तथा सरकारी पूँजी से बने सभी सार्वजनिक उपक्रमों और संस्थाओं के सभी तरह के हिसाब-किताब की परीक्षा करता है। उसकी रिपोर्ट पर संसद की लोकलेखा समिति (पीएसी) तथा सार्वजनिक उपक्रमों की समिति विचार करती है। यह एक स्वतंत्र संस्था है, जिसपर सरकार का नियंत्रण नहीं होता। सीएजी की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं। सीएजी ही भारतीय लेखा परीक्षा और लेखा सेवा का भी मुखिया होता है। सीएजी से सम्बद्ध व्यवस्थाएं हमारे संविधान के अनुच्छेद 148 से 151 तक की गईं हैं। देश के वरीयता अनुक्रम में सीएजी का स्थान नौवाँ होता है, जो सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश के बराबर है। देश के वर्तमान सीएजी हैं गिरीश चंद्र मुर्मू, जिन्होंने 8 अगस्त, 2020 को कार्यभार संभाला था। वे देश के 14वें सीएजी हैं। उनका कार्यकाल 6 वर्ष या 65 वर्ष की उम्र, जो भी पहले होगा,  तक के लिए होता है।

डाक टिकट पर देश का नाम नहीं

यूनाइटेड किंगडम ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड के डाक टिकटों पर देश का नाम नहीं होता। इसकी वजह यह है कि इन देशों में ही डाक टिकटों की शुरूआत हुई थी और इन्होंने तब अपने देशों के नाम टिकट पर नहीं डाले थे। यह परंपरा अब भी चली आ रही है। अलबत्ता इन टिकटों पर देश के राजतंत्र की छवि ज़रूर होती है।

यूरोस्टार क्या है?

यूरोस्टार यूरोप में चलने वाली अंतरराष्ट्रीय ट्रेन सेवा है जो बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड्स और ब्रिटेन को जोड़ती है। यह ट्रेन ब्रिटेन और यूरोप के बीच के सागर इंग्लिश चैनल के नीचे बनी एक सुरंग से होकर जाती है। यह ट्रेन 300 किलोमीटर प्रति घंटा की अधिकतम रफ्तार से चलती है और सामान्यतः इसे लंदन से पेरिस पहुंचने में 2 घंटे 35 मिनट लगते हैं।

प्रोटोकॉल क्या होता है?

प्रोटोकॉल का सामान्य अर्थ शिष्टाचार या कुछ मान्य सिद्धांत है। जैसे डिप्लोमेसी में काम करने के तौर-तरीके होते हैं। प्रोटोकॉल का एक आशय संधियों और समझौते भी है। इसके अलावा चिकित्सा, सरकारी कार्यों और सेना जैसी सेवाओं में कुछ कार्यों के निश्चित नियम भी प्रोटोकॉल कहलाते हैं। जैसे कोविड-19 के इलाज का प्रोटोकॉल। इसका एक अर्थ मर्यादाओं से भी है।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 24 फरवरी, 2024 को प्रकाशित

Wednesday, February 21, 2024

रणजी ट्रॉफी क्या है?

रणजी ट्रॉफी भारत की प्रथम श्रेणी घरेलू क्रिकेट चैम्पियनशिप है, जिसमें क्षेत्रीय क्रिकेट संघों के साथ रेलवे और सेना की टीमें भाग लेती हैं। देश में नए खिलाड़ियों को तैयार करने में इस प्रतियोगिता की सबसे बड़ी भूमिका है। वर्तमान समय में इसमें 38 टीमें शामिल होती हैं। इनमें 28 राज्यों की टीमें और आठ केंद्र शासित क्षेत्रों में से चार की टीमें शामिल होती हैं। इनके अलावा चार ऐसी टीमें हैं, जो किसी राज्य का एक इलाका है। जैसे महाराष्ट्र से मुंबई और विदर्भ तथा गुजरात से सौराष्ट्र और बड़ौदा। इनके अलावा रेलवे और सेना की टीम है। हैदराबाद की टीम तेलंगाना का प्रतिनिधित्व करती है।

यह प्रतियोगिता नवानगर (वर्तमान में जामनगर) स्टेट के महाराजा कुमार श्री रणजीतसिंहजी जाडेजा के नाम पर है, जो रणजी नाम से प्रसिद्ध थे और बहुत अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी थे। वे भारत के पहले क्रिकेटर थे, जिन्हें इंग्लैंड की क्रिकेट टीम की ओर से खेलने का मौका मिला था। प्रतियोगिता पहली बार 1934-35 में खेली गई। जुलाई 1934 में भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड की एक बैठक के बाद इसे देश की राष्ट्रीय चैंपियनशिप के रूप में शुरू किया गया था। पहले साल इसका नाम क्रिकेट चैंपियनशिप ऑफ इंडिया था। 1935 में इसका नाम रणजी इसकी ट्रॉफी को पटियाला के महाराजा भूपिंदर सिंह ने दान में दिया था।

प्रतियोगिता का पहला मैच 4 नवंबर 1934 को तत्कालीन मद्रास और अब चेन्नई में चेपक के मैदान पर मद्रास और मैसूर के बीच खेला गया। पहली चैंपियनशिप बंबई की टीम ने जीती। फाइनल में उसने उत्तर भारत की टीम को पराजित किया। 2022-23 की विजेता सौराष्ट्र की टीम रही। कोविड के कारण 2020-21 की प्रतियोगिता नहीं हो पाई। इसका फॉर्मेट बदलता रहा है। पहले यह पाँच क्षेत्रों में विभाजित थी। 2002-03 से जोनल सिस्टम खत्म करके प्रतियोगिता को दो स्तरों में बाँट दिया गया। एक सुपर लीग और दूसरा प्लेट वर्ग। इसमें भी बदलाव होता रहा। 2018-19 से यह प्रतियोगिता तीन स्तरीय हो गई है।

टी-20 डकवर्थ-लुईस

क्रिकेट के टी-20 मैच में एक टीम अपने पूरे 20 ओवर खेल लेती है और दूसरी टीम पूरे 20 ओवर नहीं खेल पाती है, तो एक नियम के तहत बचे हुए ओवरों में नया लक्ष्य निर्धारित किया जाता है इस लक्ष्य निर्धारण को एक स्टैटिस्टिकल टेबल की मदद से निकाला जाता है। इस नियम का विकास इंग्लैंड के दो सांख्यिकी विद्वानों फ्रैंक डकवर्थ और टोनी लुईस ने किया था, इसलिए इसे डकवर्थ-लुईस पद्धति कहा जाता है। टी-20 में इसका सहारा तभी लिया जाता है जब दूसरी पाली में 20 में से कम से कम 5 ओवरों का खेल हो चुका हो।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 17 फरवरी, 2024 को प्रकाशित

Sunday, December 31, 2023

दुनिया का सबसे पुराना शहर

दुनिया के कई शहर सबसे पुराना होने का दावा करते हैं। इनमें सीरिया का दमिश्क, लेबनॉन का बाइब्लोस, अफगानिस्तान का बल्ख और फलस्तीन के जेरिको का नाम भी है। पर मैं अपने वाराणसी का नाम लूँगा, जो सम्भवतः दुनिया के उन सबसे पुराने शहरों में एक है जो आज भी आबाद हैं। जनश्रुति है कि इसे भगवान शिव ने बसाया।  इसमें दो राय नहीं कि यह शहर तीन से चार हजार साल पुराना है। मार्क ट्वेन ने इस शहर के बारे में लिखा है,‘वाराणसी, इतिहास से पुराना, परम्पराओं से पुराना, किंवदंतियों से पुराना है और इन सबको मिलाकर भी उनसे दुगना पुराना है।

5000 वर्ष पुरानी सोने की खान

जर्मन शहर बोखुम के माइनिंग म्यूजियम के खनन पुरातत्वशास्त्रियों को हैरानी है कि इतनी नीचे जाने के लिए उन्होंने कौन सा रास्ता चुना. खदान का मुहाना खोजते समय इन पुरातत्वशास्त्रियों को एक और आश्चर्यजनक चीज मिली वह थे, पत्थरों के औजार. इन्हीं धारदार औजारों से उस समय इंसान ने खुदाई की थी. पुरातत्वशास्त्री थोमास श्टोएल्नेर बताते हैं, "उनके लिए यह मुश्किल भरा रहा होगा, इस तरह के हथौड़े से पत्थरों को तोड़ना और इतनी संकरी जगह पर खनन करना. हमें बहुत खास हथौड़े मिले जो साफ तौर पर ऐसी संकरी खदान के लिए बनाए गए."

सिर्फ पत्थर को औजार बनाकर प्राचीन काल में लोगों ने यहां 70 मीटर की सुरंग बना डाली. बहुत ही संकरी जगह पर पहले बच्चों को भेजा गया. मृतकों के अवशेष बताएंगे कि इतना जोखिम क्यों उठाया गया. नमूनों में सोने के अंश मिले हैं. नंगी आंखों से इसे देखना मुमकिन नहीं. धीरे धीरे पुरातत्वशास्त्री उस तकनीक तक पहुंच रहे हैं जो सबसे पहले सोना निकालने वालों ने अपनाई. टीम को शोध के दौरान पांच हजार साल पुराना तारकोल भी मिला है.

टीम ने दुनिया की अब तक की सबसे पुरानी सोने की खान खोज निकाली. माना जा रहा है कि यह शुरुआती कांस्य युग की निशानी है. खदान में सोने की कितनी मात्रा है, वह कहां है, इसका पता लगाने के लिए मोबाइल लेजर स्कैनर से सुरंग का खाका बनाया गया. "यह पहली ऐसी सुरंग है जिसके जरिए हम खनन की पुरानी तकनीक के बारे में जान रहे हैं. यहां हमें पहली बार एक बहुत उच्च स्तर की तकनीक का पता चला. ऐसी तकनीक जो खोज के हजार साल बाद लोकप्रिय हुई. जरा सोचिए, यहां जमीन के 25 मीटर नीचे एक सुरंगों वाली खदान है, यह विश्व स्तर की कामयाबी है. यह देखना रोमांचक है कि सोने के खनन में उन्होंने किस तरह की विशेषता का इस्तेमाल किया." दावे साबित कर रहे हैं कि आज से 5000 साल पहले कॉकेशस में इंसान ने चट्टानों को चूर कर सोना निकालना शुरू कर दिया था. यानी इंसान तभी से सोने के मोह में डूबा है. 

जर्मन रेडियो से साभार

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 30 दिसंबर, 2023 को प्रकाशित

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...