मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” का जन्म 27 दिसम्बर 1776 को आगरा
मे एक सैनिक पृष्ठभूमि वाले परिवार में हुआ था। वे उर्दू और फ़ारसी के महान शायर
थे। उन्हें उर्दू के सार्वकालिक महान शायरों में गिना जाता है। ग़ालिब (और असद) नाम
से लिखने वाले मिर्ज़ा मुग़ल काल के आख़िरी शासक बहादुर शाह ज़फ़र के दरबारी कवि भी
रहे थे। 1850 मे शहंशाह बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने मिर्ज़ा गालिब को "दबीर-उल-मुल्क"
और "नज़्म-उद-दौला" के खिताब से नवाज़ा। बाद मे उन्हे "मिर्ज़ा नोशा"
का खिताब भी मिला। आगरा, दिल्ली और कलकत्ता में अपनी
ज़िन्दगी गुजारने वाले ग़ालिब को मुख्यतः उनकी ग़ज़लों को लिए याद किया जाता
है। उन्होने अपने बारे में स्वयं लिखा था, हैं और भी दुनिया में सुखन्वर बहुत अच्छे/ कहते हैं कि ग़ालिब का है अन्दाज़-ए बयां और।
बहरहाल ग़ालिब की कुछ पंक्तियाँ नीचे पढ़ें
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बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना/आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना
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इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना/ दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
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कोई उम्मीद बर नहीं आती/कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मु'अय्यन है/नींद क्यों रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी/अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ता'अत-ओ-ज़हद/पर तबीयत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ/वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं/मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता/बू-ए-चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी/कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की/मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'/शर्म तुमको मगर नहीं आती
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न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता !
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ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल[1]-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता
तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता
तेरी नाज़ुकी[2] से जाना कि बंधा था अ़हद[3] बोदा[4]
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार[5] होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश[6] को
ये ख़लिश[7] कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह[8]
कोई चारासाज़[9] होता, कोई ग़मगुसार[10] होता
रग-ए-संग[11] से टपकता वो लहू कि फिर न थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार[12] होता
ग़म अगर्चे जां-गुसिल[13] है, पर[14]
कहां बचे कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म
बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता
हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़[15]-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना[16] है वो यकता[17]
जो दुई[18] की बू भी होती तो कहीं दो चार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़[19], ये
तेरा बयान "ग़ालिब"!
तुझे हम वली[20] समझते, जो न बादाख़्वार[21] होता
शब्दार्थ:1 मिलन, 2 कोमलता, 3 प्रतिज्ञा, 4 खोखला, 5 दृढ़,अटल,
6 आधा खिंचा हुआ तीर, 7 पीड़ा,चुभन, 8 उपदेशक, 9 सहायक, 10 सहानुभूतिकर्ता, 11 पत्थर की नस, 12 अंगारा, 13 प्राणघातक, 14 आखिर, 15 डूब जाना, 16 बेमिसाल, 17 अद्वितीय, 18 दोगलापन, 19 सूफीवाद की समस्याएं, 20 पीर, औलिया, 21 शराबी
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रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो
हमसुख़न कोई न हो और हमज़बाँ कोई न हो
बेदर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिए
कोई हमसाया न हो और पासबाँ कोई न हो
पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाईये तो नौहाख़्वाँ कोई न हो