सूर्य प्रातः एवं सायंकाल ही सिंदूरी क्यों दिखाई देता है? दोपहर में क्यों नहीं?
कनुप्रिया शर्मा, जी-24, सुभाष नगर, कुन्हाड़ी, कोटा-324008 (राजस्थान)
आसमान का रंग नीला क्यों?
इस सवाल का जवाब जानने के लिए पहले यह समझना होगा कि आसमान का रंग नीला या आसमानी क्यों होता है। धरती के चारों ओर वायुमंडल यानी हवा है। इसमें कई तरह की गैसों के मॉलीक्यूल और पानी की बूँदें या भाप है। गैसों में सबसे ज्यादा करीब 78 फीसद नाइट्रोजन है और करीब 21 फीसद ऑक्सीजन। इसके अलावा ऑरगन गैस और पानी है। इसमें धूल, राख और समुद्री पानी से उठा नमक वगैरह है। हमें अपने आसमान का रंग इन्हीं चीजों की वजह से आसमानी लगता है। दरअसल हम जिसे रंग कहते हैं वह रोशनी है। रोशनी वेव्स या तरंगों में चलती है। हवा में मौजूद चीजें इन वेव्स को रोकती हैं। जो लम्बी वेव्स हैं उनमें रुकावट कम आती है। वे धूल के कणों से बड़ी होती हैं। यानी रोशनी की लाल, पीली और नारंगी तरंगें नजर नहीं आती। पर छोटी तरंगों को गैस या धूल के कण रोकते हैं। और यह रोशनी टकराकर चारों ओर फैलती है। रोशनी के वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम में नीला रंग छोटी तरंगों में चलता है। यही नीला रंग जब फैलता है तो वह आसमान का रंग लगता है। दिन में सूरज ऊपर होता है। वायुमंडल का निचला हिस्सा ज्यादा सघन है। आप दूर क्षितिज में देखें तो वह पीलापन लिए होता है। कई बार लाल भी होता है। सुबह और शाम के समय सूर्य नीचे यानी क्षितिज में होता है तब रोशनी अपेक्षाकृत वातावरण की निचली सतह से होकर हम तक पहुँचती है। माध्यम ज्यादा सघन होने के कारण वर्णक्रम की लाल तरंगें भी बिखरती हैं। इसलिए आसमान अरुणिमा लिए नज़र आता है। कई बार आँधी आने पर आसमान पीला भी होता है। आसमान का रंग तो काला होता है। रात में जब सूरज की रोशनी नहीं होती वह हमें काला नजर आता है। हमें अपना सूरज भी पीले रंग का लगता है। जब आप स्पेस में जाएं जहाँ हवा नहीं है वहाँ आसमान काला और सफेद सूरज नजर आता है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस के लिए ‘नेताजी’ शब्द कब,
किसने और क्यों इस्तेमाल किया?
रविप्रकाश,
एजी-584, शालीमार बाग़, समीप रिंग रोड, दिल्ली-110088
कुछ लोग कहते हैं कि अनुसार सुभाष बोस को सबसे पहले
रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने नेताजी का संबोधन दिया। इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। उनके नाम का प्रचलन 1942 में
हुआ, जबकि रवीन्द्रनाथ ठाकुर का निधन 1941 में हो गया था। सन
1940 के अंत में सुभाष बोस के मन में देश के बाहर जाकर स्वतंत्रता दिलाने की योजना
तैयार हो चुकी थी। वे पेशावर और काबुल होते हुए इतालवी दूतावास के सहयोग से अनेक 28 मार्च 1941 को बर्लिन (जर्मनी) पहुँचे। बर्लिन में उन्होंने स्वतंत्र भारत केन्द्र की
स्थापना की। यहाँ उन्होंने सिंगापुर तथा उत्तर अफ्रीका से लाए गए भारतीय युद्धबंदियों
को एकत्र करके सैनिक दल का गठन किया। इस सैनिक दल के सदस्य सुभाष को ‘नेताजी’ के
नाम से संबोधित करते थे। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि हिटलर ने उन्हें यह संबोधन
दिया। पर भारतीय नाम नेताजी तो कोई भारतीय ही दे सकता है। सुभाष ने नियमित प्रसारण
हेतु आज़ाद हिंद रेडियो की शुरुआत करवाई। अक्तूबर 1941 से इसका
प्रसारण प्रारम्भ हुआ, यहाँ से भारतवासियों तथा पूर्वी एशिया के
भारतीयों के लिए अंग्रेजी, हिन्दुस्तानी, बांग्ला,
तमिल, तेलुगु, फ़ारसी व पश्तो इन सात भाषाओं में संस्था की गतिविधियों का प्रसारण किया जाता
था। उधर फरवरी 1942 में अंग्रेज सेना ने सिंगापुर में जापानी सैनिकों के समक्ष आत्मसमर्पण किया।
इनमें भारतीय सेना के अधिकारी और पाँच हज़ार सैनिक थे जिन्हें जापानी सेना ने बंदी
बना लिया था। इन्हीं सैनिकों ने आजाद हिंद फौज तैयार की। सुभाष जर्मनी बोस को तार
भेजकर जर्मनी से पूर्वी एशिया में आकर भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का नेतृत्व
स्वीकार करने हेतु बुलाया गया। 8 फरवरी 1943 को जर्मनी से आबिद अली हसन के साथ एक पनडुब्बी में सवार होकर 90 दिन की खतरनाक यात्रा कर 6 मई को सुमात्रा के पेनांग
फिर वहाँ से 16 मई 1943 को तोक्यो पहुँचे। 21 जून 1943 को नेताजी ने तोक्यो रेडियो से भाषण दिया। देश का सबसे प्रसिद्ध नारा ‘जैहिन्द’ नेताजी ने ही दिया था।
दामोदर घाटी निगम के विषय में
विस्तार से जानकारी दीजिए।
अशोक कुमार
ठाकुर, ग्राम-मालीटोल, पोस्ट-अदलपुर, जिला-दरभंगा (बिहार)
दामोदर घाटी निगम देश की पहली बहु
उद्देश्यीय नदी घाटी परियोजना है। यह निगम 7 जुलाई, 1948 को अस्तित्व में आया। दामोदर नदी तत्कालीन बिहार
जो अब झारखंड है और पश्चिम बंगाल से होकर तकरीबन 25,000 वर्ग किलोमीटर इलाके में
फैली है। दामोदर नदी झारखंड के लोहरदगा और लातेहार जिले की सीमा पर बसे बोदा पहाड़
के चूल्हापानी नामक स्थान से निकलकर पश्चिम बंगाल के गंगा सागर से कुछ पहले गंगा
में हुगली के पास मिलती है। झारखंड में इसकी लंबाई करीब 300 किलोमीटर और पश्चिम
बंगाल में करीब 263 किलोमीटर है। दामोदर बेसिन का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 16,93,380
हेक्टेयर है।
आजादी के पूर्व इस नदी को 'बंगाल का शोक' कहा जाता था। झारखंड में यह नदी पहाड़ी और खाईनुमा स्थलों
से होकर गुजरती है लेकिन बंगाल में इसे समतल भूमि से गुजरना पड़ता है। बाढ़ आने पर
झारखंड को तो खास नुकसान नहीं होता था, लेकिन बंगाल में इसके आसपास की सारी फसलें बरबाद हो जाती
थी। 1943 में आई भयंकर बाढ़ ने बंगाल को हिलाकर रख दिया। इस स्थिति से निपटने के
लिए वैज्ञानिक मेघनाथ साहा की पहल पर अमेरिका की 'टेनेसी वैली अथॉरिटी' के तर्ज पर 'दामोदर घाटी निगम' की स्थापना की गई। इसके बाद पश्चिम बंगाल का प्रभावित इलाका
जल प्रलय से मुक्त होकर उपजाऊ जमीन में परिवर्तित हो गया। झारखंड में इसी नदी पर
चार बड़े जलाशयों के निर्माण के बाद यहां विस्थापन की समस्या तो बढ़ी ही ,उपयोगी व उपजाऊ जमीन डूब गई। इस नदी के दोनों किनारे
अंधाधुंध उद्योगों का विकास हुआ और इससे नदी का जल प्रदूषित होने लगा। नदी को
नियंत्रित करने की योजना अंग्रेजी शासन काल में ही बन गई थी। अप्रैल 1947 तक योजना
के क्रियान्वयन के लिए केन्द्रीय, पश्चिम बंगाल तथा बिहार सरकारों के बीच करार हो गया था। मार्च
1948 में दामोदर घाटी निगम के गठन के उद्देश्य हेतु भारत सरकार, पश्चिम बंगाल
सरकार और बिहार (अब झारखंड) की संयुक्त सहभागिता को ध्यान में रखते हुए केन्द्रीय
विधानमंडल ने दामोदर घाटी निगम अधिनियम (1948 ) पास किया। इस योजना के प्राथमिक
उद्देश्य निम्नलिखित हैं- बाढ़ नियंत्रण व सिचाई, विद्युत उत्पादन,
पारेषण व वितरण, पर्यावरण संरक्षण
तथा वनीकरण, दामोदर घाटी के निवासियों का सामाजिक-आर्थिक कल्याण
औद्योगिक और घरेलू उपयोग हेतु
जलापूर्ति। कोयला, जल
तथा तरल र्इंधन तीनों स्रोतों से बिजली पैदा करने वाला भारत सरकार का यह पहला
संगठन है। मैथन में भारत का पहला भूमिगत पन बिजली केन्द्र है।
बंदूक चलाने पर पीछे की तरफ झटका
क्यों लगता है?
परी चतुर्वेदी.
ए-1103, आईडीपीएल कॉलोनी, ऋषिकेश-249201 (उत्तराखंड)
न्यूटन का गति का तीसरा नियम है कि
प्रत्येक क्रिया की सदैव बराबर एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है। जब बंदूक
की गोली आगे बढ़ती है तब वह पीछे की ओर भी धक्का देती है। गोली तभी आगे बढ़ती है
जब बंदूक का बोल्ट उसके पीछे से प्रहार करता है। इससे जो शक्ति जन्म लेती है वह
आगे की और ही नहीं जाती पीछे भी जाती है। तोप से गोला दगने पर भी यही होता है। आप
किसी हथौड़े से किसी चीज पर वार करें तो हथौड़े में भी पीछे की और झटका लगता है।
रेव पार्टी शब्द आजकल खासा प्रचलन
में है। यह शब्द किस अर्थ में आता है?
धीरज कुमार, 38,
बैचलर्स आश्रम, निकट आईटी कॉलेज, निराला नगर, लखनऊ-226020
अंग्रेजी शब्द रेव का मतलब है मौज
मस्ती। टु रेव इसकी क्रिया है यानी मस्ती मनाना। पश्चिमी देशों में भी यह शब्द
बीसवीं सदी में ही लोकप्रिय हुआ। ब्रिटिश स्लैंग में रेव माने ‘वाइल्ड पार्टी।’ इसमें
डिस्क जॉकी, इलेक्ट्रॉनिक म्यूज़िक का प्राधान्य होता है। अमेरिका में अस्सी के
दशक में एसिड हाउस म्यूज़िक का चलन था। रेव पार्टी का शाब्दिक अर्थ हुआ 'मौज मस्ती
की पार्टी'। इसमें ड्रग्स, तेज़ पश्चिमी संगीत, नाचना, शोर-गुल
और सेक्स का कॉकटेल होता है। भारत में ये मुम्बई, दिल्ली
से शुरू हुईं। अब छोटे शहरों तक पहुँच गई हैं, लेकिन नशे के घालमेल ने रेव पार्टी
का उसूल बदल दिया है। पहले यह खुले में होती थीं अब छिपकर होने लगी हैं।
महामहिम और महामना शब्द से क्या
तात्पर्य है?
एसपी बिस्सा,
एफ-250, मुरलीधर व्यास नगर, भैरव मंदिर के पास, बीकानेर-334004 (राजस्थान)
शब्दकोश के अनुसार महामना (सं.) [वि.]
बहुत उच्च और उदार मन वाला; उदारचित्त; बड़े दिलवाला। [सं-पु.] एक सम्मान सूचक
संबोधन। और महामहिम (सं.) [वि.] 1. जिसकी महिमा बहुत अधिक हो; बहुत
बड़ी महिमा वाला; महामहिमायुक्त 2. अति महत्व शाली। [सं-पु.] एक सम्मान
सूचक संबोधन। आधुनिक अर्थ में हम राजद्वारीय सम्मान से जुड़े व्यक्तियों को
महामहिम कहने लगे हैं। मसलन राष्ट्रपति और राज्यपालों को। अब तो जन प्रतिनिधियों
के लिए भी इस शब्द का इस्तेमाल होने लगा है। इस शब्द से पुरानी सामंती गंध आती है
और शायद इसीलिए राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को अपने पदनाम से पहले 'महामहिम
' जोड़ना पसंद नहीं है, इसलिए पिछले कुछ समय से उनके कार्यक्रमों
से जुड़े बैनर,पोस्टर या निमंत्रण पत्रों में 'महामहिम' नहीं
लिखा गया। यहाँ तक, कि उनके स्वागत-सम्मान वाले भाषणों में भी 'महामहिम' संबोधन
से परहेज किया गया। अंग्रेजी में भी उनके नाम से पहले 'हिज़
एक्सेलेंसी' नहीं जोड़ा गया। कुछ राज्यपालों ने भी इस दिशा में पहल
की है। महामना शब्द के साथ सरकारी पद नहीं जुड़ा है। इसका इस्तेमाल भी ज्यादा नहीं
होता। यह प्रायः गुणीजन, उदार समाजसेवियों के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है और
इसका सबसे बेहतरीन इस्तेमाल महामना मदन मोहन मालवीय के लिए होते देखा गया है।
ई-कचरा क्या है? इसका निपटारा कैसे होगा?
सीमा सिंह, ग्रा
व पो जलालपुर माफी (चुनार), जनपद-मीरजापुर-231304 (उत्तर प्रदेश)
आपने ध्यान दिया होगा कि घरों से
निकलने वाले कबाड़ में अब पुराने अखबारों, बोतल, डिब्बों, लोहा-लक्कड़
के अलावा पुराने कम्प्यूटर, मोबाइल फोन, सीडी, टीवी, अवन,
रेफ्रिजरेटर, एसी जैसे तमाम इलेक्ट्रॉनिक आइटम जगह बनाते जा रहे
हैं। पहले बड़े आकार के कम्प्यूटर, मॉनिटर आते थे, जिनकी
जगह स्लिम और फ्लैट स्क्रीन वाले छोटे मॉनिटरों ने ले ली है। माउस, की-बोर्ड
या अन्य उपकरण जो चलन से बाहर हो गए हैं, वे ई-वेस्ट की श्रेणी में आते हैं। फैक्स, मोबाइल, फोटो कॉपियर, कम्प्यूटर, लैप-टॉप, कंडेंसर, माइक्रो चिप्स, पुरानी शैली के कम्प्यूटर, मोबाइल
फोन, टेलीविजन और इलेक्ट्रॉनिक खिलौनों तथा अन्य उपकरणों के
बेकार हो जाने के कारण इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा होता है। अमेरिका में हरेक घर में साल
भर में औसतन छोटे-मोटे 24 इलेक्ट्रॉनिक उपकरण खरीदे जाते हैं। इन पुराने उपकरणों का
फिर कोई उपयोग नहीं होता। इससे यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अमेरिका में कितना इलेक्ट्रॉनिक
कचरा निकलता होगा। बदलती जीवन शैली और बढ़ते शहरीकरण के कारण इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों
का ज्यादा प्रयोग होने लगा है। इससे पैदा होने वाले इलेक्ट्रॉनिक कचरे के दुष्परिणाम
से हम बेखबर हैं। ई-कचरे से निकलने वाले रासायनिक तत्त्व लीवर, किडनी
को प्रभावित करने के अलावा कैंसर,
लकवा जैसी बीमारियों का कारण बन रहे
हैं। उन इलाकों में रोग बढ़ने का अंदेशा ज्यादा है जहाँ अवैज्ञानिक तरीके से ई-कचरे
की रीसाइक्लिंग की जा रही है। ई-वेस्ट से निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी
व पानी में मिलकर उन्हें बंजर और जहरीला बना देते हैं। फसलों और पानी के जरिए ये तत्व
हमारे शरीर में पहुंचकर बीमारियों को जन्म देते हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट
(सीएसई) ने कुछ साल पहले जब सर्किट बोर्ड जलाने वाले इलाके के आसपास शोध कराया तो पूरे
इलाके में बड़ी तादाद में जहरीले तत्व मिले थे, जिनसे वहां काम करने वाले लोगों को
कैंसर होने की आशंका जताई गई,
जबकि आसपास के लोग भी फसलों के जरिए
इससे प्रभावित हो रहे थे।
भारत सहित कई अन्य देशों में हजारों
की संख्या में महिला पुरुष व बच्चे इलेक्ट्रॉनिक कचरे के निपटान में लगे हैं। इस कचरे
को आग में जलाकर इसमें से आवश्यक धातु आदि भी निकाली जाती हैं। इसे जलाने के दौरान
जहरीला धुआँ निकलता है, जो घातक होता है। सरकार के अनुसार 2004 में देश में ई-कचरे
की मात्रा एक लाख 46 हजार 800 टन थी जो बढ़कर वर्ष 2012 तक आठ लाख टन से ज्यादा हो
गई है। विकसित देश अपने यहाँ के इलेक्ट्रॉनिक कचरे की गरीब देशों को बेच रहे हैं। गरीब
देशों में ई-कचरे के निपटान के लिए नियम-कानून नहीं बने हैं। इस कचरे से होने वाले नुकसान का अंदाजा इसी तथ्य
से लगाया जा सकता है कि इसमें 38 अलग प्रकार के रासायनिक तत्व शामिल होते हैं जिनसे
काफी नुकसान भी हो सकता है। इस कचरे को आग में जलाकर या तेजाब में डुबोकर इसमें से
आवश्यक धातु आदि निकाली जाती है।
यों ई-वेस्ट के सही निपटान के लिए
जब तक व्यवस्थित ट्रीटमेंट नहीं किया जाता, वह पानी और हवा में जहर फैलता रहेगा।
कुछ समय पहले दिल्ली के एक कबाड़ी बाजार में एक उपकरण से हुए रेडिएशन के बाद इस
खतरे की और ध्यान गया है।