Thursday, May 9, 2019

आतंक-विरोधी अंतरराष्ट्रीय संधि?

आतंकवाद के खिलाफ दुनिया में कई तरह के समझौते और संधियाँ हैं, पर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में पिछले कई साल से ‘कांप्रिहैंसिव कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल टेररिज्म (सीसीआईटी)’ को लेकर चल रहा विमर्श पूरा नहीं हो पा रहा है. संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठकों में करीब-करीब हर साल भारत की और से इस संधि को अंतिम रूप देने की अपील की जाती है. इस संधि का प्रस्ताव भारत ने सन 1996 में किया था, पर अमेरिका और इस्लामिक देशों के संगठन की पारस्परिक आपत्तियों के कारण इसे अंतिम रूप नहीं दिया जा सका. प्रस्ताव 51/210 के अंतर्गत 17 दिसम्बर, 1996 को संयुक्त राष्ट्र महासभा की एक तदर्थ समिति बनाई गई थी. हालांकि इस संधि की अंतिम रूपरेखा नहीं बन पाई है, पर इस सिलसिले में हुए विचार-विमर्श की रोशनी में आतंकवाद के खिलाफ तीन प्रोटोकॉल जरूर पास हो गए हैं. 1.आतंकवादी बमबारी रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय अभिसमय (संधि) जो 15 दिसम्बर,1997 को स्वीकार हुआ, 2. आतंकवाद की वित्तीय सहायता रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि, जो 9 दिसम्बर, 1999 को स्वीकार की गई और 3.एटमी आतंकवादी गतिविधियाँ रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि, जो 13 अप्रैल, 2005 को स्वीकार की गई.

संधि का उद्देश्य?

संधि का मूल उद्देश्य यह है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा के सभी 193 सदस्य आतंकवाद की स्वीकृत परिभाषा को अपने देश के आपराधिक कानूनों का हिस्सा बनाएं. इसके तहत सभी आतंकवादी ग्रुपों को बैन करें और उनके कैम्पों को बंद करें। सभी आतंकवादियों के खिलाफ विशेष कानूनों के तहत मुकदमे चलाएं. सीमा पार आतंकवाद को प्रत्यर्पणीय (एक्स्ट्राडिटेबल) अपराध घोषित करें. भारत ने 26 नवम्बर, 2008 के मुम्बई हमले के बाद से इस संधि के लिए तेजी से प्रयास किए हैं और इसके उद्देश्यों के अनुरूप पाकिस्तान से कार्रवाई करने का आग्रह भी किया है.

संधि क्यों नहीं हो पाई?

मुख्य संधि पर विमर्श गतिरोधों का शिकार होता रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह है आतंकवाद की परिभाषा पर आमराय का नहीं बन पाना. मसलन ‘आतंकी संगठन’ और ‘मुक्ति संगठन’ के बीच फर्क क्या होगा? साथ ही क्या देशों की सेनाओं की गतिविधियों को भी राज्य आतंकवाद की संज्ञा दी जा सकेगी? अमेरिका का कहना है कि राज्य की सेना के ऑपरेशंस को इसको दायरे से बाहर रखा जाए, जबकि इस्लामिक देशों का संगठन (ओआईसी) राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को इसके दायरे से बाहर रखना चाहता है. राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों से उसका तात्पर्य खासकर इसराइल-फलस्तीन संघर्ष से है. पाकिस्तान इसमें कश्मीर को भी शामिल करता है. कानूनी विशेषज्ञ चाहते हैं कि इसकी परिभाषा ऐसी हो, जिसे कानूनी शब्दावली में स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जा सके, पर यह मसला राजनीतिक शब्दावली के कारण अटका पड़ा है.





1 comment:

  1. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन 112वीं जयंती - सुखदेव जी और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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