Thursday, August 22, 2019

‘नो फर्स्ट यूज़’ नीति क्या होती है?


नो फर्स्ट यूज़ संकल्प का इस्तेमाल नाभिकीय शस्त्रों के संदर्भ में किया जाता है. इसका अर्थ है कि जिस देश के पास नाभिकीय शस्त्र हैं, वह उनका तब तक इस्तेमाल नहीं करेगा, जब तक उस पर नाभिकीय शस्त्रों से हमला न किया जाए. इसके पहले यह अवधारणा रासायनिक और जैविक अस्त्रों पर भी लागू होती थी. चूंकि अब दुनिया भर में रासायनिक और जैविक अस्त्रों पर पाबंदियाँ हैं, इसलिए उनका इस्तेमाल युद्ध अपराध माना जाता है. सन 1972 की जैविक अस्त्र संधि के तहत रासायनिक अस्त्रों का निर्माण, संग्रह और इस्तेमाल अपराध है. जहाँ तक नाभिकीय अस्त्रों के इस्तेमाल का प्रश्न है अलग-अलग देश अलग-अलग तरीके से अपनी नीतियाँ बनाते हैं. दुनिया में नो फर्स्ट यूज़ की नीति को सबसे पहले सन 1964 में चीन ने अपने नाभिकीय विस्फोट के साथ ही घोषित किया था. चीन ने अपनी इस नीति को बार-बार दोहराया है और अमेरिका से अनुरोध किया है कि वह भी इस नीति को घोषित करे और चीन के साथ नो फर्स्ट यूज़ की संधि करे, पर अमेरिका इस पर सहमत नहीं है. इसी तरह नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गनाइजेशन (नेटो) भी इस नीति के पक्ष में नहीं है. उसका कहना है कि रूस को परंपरागत शस्त्रास्त्र में काफी बढ़त हासिल है, इसलिए हम नाभिकीय अस्त्रों के किसी भी समय इस्तेमाल का अधिकार अपने पास रखेंगे. 
भारत की नीति क्या है?
भारत ने पहले 1974 में और फिर 1998 में नाभिकीय विस्फोट करके अपनी नाभिकीय क्षमता का प्रदर्शन कर दिया था. अगस्त 1999 में भारत ने अपनी नाभिकीय नीति के मसौदे को जारी किया, जिसमें कहा गया था कि हम केवल जवाबी हमले में नाभिकीय अस्त्रों का इस्तेमाल करेंगे. हम नाभिकीय अस्त्र का पहला वार नहीं करेंगे. देश की सामरिक नाभिकीय कमान का गठन 2003 में किया गया, जिसके पहले प्रमुख बनाए गए, एयर मार्शल तेज मोहन अस्थाना. देश की कैबिनेट कमेटी ऑन सिक्योरिटी को नाभिकीय अस्त्र के इस्तेमाल की अनुमति देने का अधिकार है. सन 2010 में देश के तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार शिवशंकर मेनन ने देश की नीति को कुछ और स्पष्ट किया. उन्होंने कहा, हम गैर-नाभिकीय देशों के खिलाफ पहला प्रहार नहीं करेंगे. हाल में 16 अगस्त को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने कहा है कि अभी तक हमारी नीति नो फर्स्ट यूज़ की है, पर भविष्य की नीति परिस्थितियों पर निर्भर करेगी.
अन्य देशों की नीति क्या है?
पाकिस्तान, रूस, यूके, अमेरिका और फ्रांस की घोषित नीति यह है कि जब उन पर या उनके सहयोगी देशों पर हमला होगा तब वे नाभिकीय अस्त्रों का इस्तेमाल कर सकते हैं. सन 1999 में जर्मनी ने नेटो से नो फर्स्ट यूज़ नीति अपनाने का आग्रह किया था, पर उसे स्वीकार नहीं किया गया. सन 1982 में सोवियत संघ के प्रमुख लियोनिद ब्रेझनेव ने संकल्प व्यक्त किया कि हम नो फर्स्ट यूज़ सिद्धांत पर चलेंगे, पर सोवियत संघ के विघटन के बाद 1993 में रूस ने उस सिद्धांत को त्याग दिया. अमेरिका ने एटम बम के इस्तेमाल के अधिकार अपने पास रखे हैं. पाकिस्तान भी नो फर्स्ट यूज़ को नहीं मानता.




Thursday, August 8, 2019

क्या है कुलभूषण जाधव का मामला?



हेग स्थित अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने गत 17 जुलाई को कहा था कि पाकिस्तान कुलभूषण जाधव वाले मामले की समीक्षा करे तुरंत कौंसुलर एक्सेस की व्यवस्था करे. पाकिस्तान ने कहा था कि कुलभूषण जाधव को 3 मार्च, 2016 को गिरफ्तार किया गया था और भारत को इसकी सूचना 25 मार्च को दी गई थी. अप्रेल 2017 में एक फौजी अदालत ने उन्हें मौत की सजा दी. अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने अपने फैसले में स्वीकार किया कि इस मामले में पाकिस्तान ने कौंसुलर रिश्तों पर सन 1963 के वियना संधि की अनदेखी की. कौंसुलर एक्सेस का मतलब है किसी दूसरे देश में अपने नागरिकों के साथ जरूरत पड़ने पर सम्पर्क. दो देशों के बीच सामान्यतः दूतावासों के मार्फत सम्पर्क होता है. इन दूतावासों के अधीन कौंसल होते हैं, जो दोनों देशों के कारोबारी रिश्तों को बेहतर बनाने के अलावा अपने देश के नागरिकों के हितों की रक्षा का काम भी करते हैं. राजनयिक सम्पर्कों के नियमन के लिए सन 1963 में वियना में एक अंतरराष्ट्रीय संधि हुई थी, जिसमें उन परिस्थितियों का विवरण दिया गया है, जब दूसरे देश में रह रहे अपने किसी नागरिक को कौंसल की मदद की जरूरत पड़े तो उसका निर्वहन किस प्रकार होगा. इस संधि में 79 अनुच्छेद हैं, जिसके अनुच्छेद 5 में कौंसल के 13 कार्यक्रमों की सूची दी गई है. दुनिया के 170 देशों ने इस संधि को स्वीकार किया है.
अब क्या होगा?
पाकिस्तान सरकार ने वियना संधि के अनुच्छेद 36 के तहत कुलभूषण जाधव को यह जानकारी दे दी है कि उन्हें कौंसुलर एक्सेस प्रदान की जाएगी. इसके साथ ही पाकिस्तान ने भारत के सामने कौंसुलर एक्सेस का प्रस्ताव रखा है. भारत सरकार ने कहा है कि हम इस प्रस्ताव का अध्ययन कर रहे हैं. दोनों देशों के राजनयिक इस प्रश्न पर विचार कर रहे हैं कि कुलभूषण जाधव के साथ भारतीय राजनयिकों की मुलाकात किस प्रकार की होगी, कितने राजनयिक मिलेंगे, कहाँ होगी और किस रूप में होगी. इस मुलाकात के समय क्या पाकिस्तानी प्रतिनिधि भी उपस्थित रहेंगे, इसके बाद की प्रक्रिया क्या होगी, यह भी तय होगा. चूंकि अदालत ने मामले की समीक्षा का निर्देश दिया है, इसलिए देखना होगा कि पाकिस्तान सरकार मुकदमे को किस रूप में चलाएगी.
संधि के मुख्य कार्य
इस संधि अनुच्छेद 23 के तहत मेजबान देश को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी कौंसुलर स्टाफ को गैर-जरूरी घोषित करके  वापस जाने को कह सके. अनुच्छेद 31 के तहत मेजबान देश की जिम्मेदारी है कि वह कौंसुलेट में प्रवेश न करे और उसकी रक्षा करे. अनुच्छेद 36 के तहत किसी विदेशी नागरिक की गिरफ्तारी होने पर उसके दूतावास या कौंसुलेट को तत्काल इत्तला दी जानी चाहिए, जिसमें गिरफ्तारी के कारणों को बताया गया हो. भारत का कहना है कि हमारे उच्चायोग को न कुलभूषण जाधव की गिरफ्तारी की न तो तत्काल जानकारी दी गई और न सम्पर्क करने दिया गया.
 


Sunday, August 4, 2019

उच्च सदन क्यों होते हैं?


दुनिया के काफी देशों में एक सदन वाली संसदीय व्यवस्था काम करती है. हमारे पड़ोस में श्रीलंका और बांग्लादेश में एक सदनात्मक व्यवस्था है. पश्चिम एशिया और अफ्रीका के देशों में बड़ी संख्या में एक सदन ही हैं. इंडोनेशिया में एक सदन है और स्कैंडिनेवियाई देशों में भी. दुनिया में एक सदन वाले देशों की संख्या ज्यादा है, करीब दो तिहाई. पर इंग्लैंड, फ्रांस, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में द्विसदनात्मक व्यवस्था है. अतीत में कुछ देशों ने तीन सदनों वाली व्यवस्था भी शुरू की थी. दो सदन होने पर एक को उच्च सदन और दूसरे को निम्न सदन कहते हैं. सामान्यतः निम्न सदनों का आकार और प्रतिनिधित्व प्रत्यक्ष होता है. उसके पास अधिकार भी ज्यादा होते हैं. कार्यपालिका की जवाबदेही उनके प्रति होती है. उच्च सदन की भूमिका प्रायः सलाह देने की होती है. कुछ देशों में उच्च सदन काफी प्रभावशाली होता है. अमेरिकी सीनेट के पास प्रशासन को चलाने की काफी शक्तियाँ होती हैं. नीदरलैंड्स में उच्च सदन किसी प्रस्ताव को रोक सकता है. भारत में राज्यसभा, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में सीनेट, युनाइटेड किंगडम में लॉर्डसभा, मलेशिया में दीवान नेगारा, जर्मनी में बुंडेसराट और फ्रांस में सीने उच्च सदन हैं. इटली की सीनेट के पास वही अधिकार होते हैं, जो निम्न सदन के पास हैं.
राज्यसभा की पृष्ठभूमि क्या है?
भारत में द्वितीय सदन का प्रारम्भ 1918 के मोन्टेग-चेम्सफोर्ड प्रतिवेदन से हुआ. भारत सरकार अधिनियम, 1919 में तत्कालीन विधानमंडल के द्वितीय सदन के तौर पर काउंसिल ऑफ स्टेट्स का सृजन करने का उपबंध किया गया जिसका विशेषाधिकार सीमित था और जो वस्तुत: 1921 में अस्तित्व में आया। गवर्नर-जनरल तत्कालीन काउंसिल ऑफ स्टेट्स का पदेन अध्यक्ष होता था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 के माध्यम से इसके गठन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया. संविधान सभा ने भी 1950 तक केन्द्रीय विधानमंडल के रूप में कार्य किया, फिर इसे 'अनंतिम संसद' के रूप में परिवर्तित कर दिया गया. इस अवधि में केन्द्रीय विधानमंडल जिसे 'संविधान सभा' (विधायी) और आगे चलकर 'अनंतिम संसद' कहा गया, 1952 में पहले चुनाव कराए जाने तक, एक-सदनी रहा.
इसकी भूमिका क्या है?
द्वितीय सदन की उपयोगिता को लेकर संविधान सभा में विस्तृत बहस हुई और अन्ततः द्विसदनीय विधानमंडल बनाने का निर्णय मुख्य रूप से इसलिए किया गया क्योंकि संघीय प्रणाली को अपार विविधताओं वाले इतने विशाल देश के लिए सर्वाधिक सहज स्वरूप की सरकार माना गया. इसका आशय ऐसी सभा से था जिसका निर्वाचन राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों की सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया गया. निर्वाचित सदस्यों के अलावा, राष्ट्रपति द्वारा बारह सदस्यों के नामनिर्देशन का भी उपबंध किया गया. नामनिर्देशित सदस्य ऐसे व्यक्ति होंगे जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा जैसे विषयों के संबंध में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है. यह स्थायी सदन है और भंग नहीं होता, तथापि, प्रत्येक दो वर्ष बाद राज्य सभा के एक-तिहाई सदस्य सेवा-निवृत्त हो जाते हैं. संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अधीन, मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति जिम्मेदार होती है. यानी कि राज्यसभा सरकार को बना या गिरा नहीं सकती है, तथापि सरकार पर नियंत्रण रख सकती है.


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