इस उपग्रह की लागत आएगी 1.5 अरब डॉलर। नासा को इस सैटेलाइट के लिए एक विशेष एस-बैंड सिंथेटिक एपर्चर रेडार
(एसएआर) की जरूरत थी जो भारत ने उपलब्ध कराया है। इस सैटेलाइट में अब तक का सबसे
बड़ा रिफ्लेक्टर एंटेना लगाया गया है। दिलचस्प बात यह है कि इसरो का जो रॉकेट इस उपग्रह को लेकर जाएगा उसपर 1992 में अमेरिका ने प्रतिबंध
लगाया था। 2200 किलो वजन के ‘नासा-इसरो सार
(निसार)’ को दुनिया की सबसे महंगी इमेजिंग सैटेलाइट माना जा रहा है और यह कैलिफोर्निया
में नासा की जेट प्रोपल्शन
लैबोरेटरी में तैयार किया जा रहा है।
‘निसार’ धरती की सतह पर ज्वालामुखियों, बर्फ की चादरों के पिघलने और समुद्र तल में बदलाव और दुनिया भर में पेड़ों-जंगलों की स्थिति में बदलाव को ट्रैक करेगा। धरती की सतह पर होने वाले ऐसे बदलावों की मॉनिटरिंग इतने हाई रिजॉल्यूशन और स्पेस-टाइम में पहले कभी नहीं की गई। इसका हाई रिजॉल्यूशन रेडार बादलों और घने जंगल के आर-पार भी देख सकेगा। इस क्षमता से दिन और रात दोनों के मिशन में सफलता मिलेगी। इसके अलावा बारिश हो या धूप, कोई भी बदलाव ट्रैक कर सकेगा। अमेरिका और भारत ने इस उपग्रह के प्रक्षेपण का समझौता 2014 में किया था।
रेलगाड़ी की आखिरी बोगी के आखिर में X क्यों अंकित होता है?
रेलगाड़ी के आखिरी डिब्बे पर कोई निशान जरूरी है ताकि उनपर नज़र रखने वाले कर्मचारियों को पता रहे कि पूरी गाड़ी गुज़र गई है। सफेद या लाल रंग से बना यह बड़ा सा क्रॉस आखिरी डिब्बे की निशानी है। इसके अलावा अब ज्यादातर गाड़ियों में अंतिम बोगी पर बिजली का एक लैम्प भी लगाया जाता है, जो रह-रहकर चमकता है। पहले यह लैम्प तेल का होता था, पर अब यह बिजली का होता है। इस लैम्प को लगाना नियमानुसार आवश्यक है। इसके अलावा इस आखिरी डिब्बे पर अंग्रेजी में काले या सफेद रंग का एलवी लिखा एक बोर्ड भी लटकाया जाता है। एलवी का मतलब है लास्ट वेहिकल। यदि किसी स्टेशन या सिग्नल केबिन से कोई गाड़ी ऐसी गुजरे जिसपर लास्ट वेहिकल न हो तो माना जाता है कि पूरी गाड़ी नहीं आ पाई है। ऐसे में तुरत आपात कालीन कार्रवाई शुरू की जाती है।
कार्निवल
ग्लास क्या है?
कार्निवल
ग्लास से आशय शीशे के उन पात्रों और वस्तुओं से है, जो सजावटी, चमकदार और अनेक
रंगतों की आभा देती हैं और महंगी नहीं होतीं। काँच की ये वस्तुएं साँचे में ढालकर
या प्रेस करके तैयार की जाती हैं। इनका रूपाकार ज्यामितीय, फूलों-पत्तियों वाला और
कट ग्लास जैसा भी होता है। ऐसी वस्तुएं बीसवीं सदी के शुरू बाजारों में आईं थीं और
आज भी मिलती हैं। इन्हें कार्निवल ग्लास कहने के पीछे एक कारण यह है कि पश्चिमी
देशों में लगने वाले मेलों और उत्सवों में, जिन्हे कार्नवल कहा जाता है ऐसी काँच
की वस्तुओं को प्रतियोगिताओं में इनाम के रूप में दिया जाता था।
राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित
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