कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ या कॉप दुनिया के 200 देशों वाले यूनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क ऑन क्लाइमेट चेंज कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी) के तहत निर्णय लेने वाली सर्वोच्च संस्था है। इस बार इसकी 26वीं बैठक होने जा रही है, इसलिए इसे कॉप 26 कहा जा रहा है। यह बैठक 31 अक्तूबर से 12 नवंबर तक स्कॉलैंड के ग्लासगो शहर में हो रही है। उम्मीद है कि इस सम्मेलन में कॉप 21 के बाद पहली बार मानव-जाति जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए अपने लक्ष्यों को ऊपर करेगी। सन 2015 के पेरिस समझौते के अनुसार सभी पक्ष हरेक पाँच साल में इस विषय पर विमर्श करेंगे। इसे बोलचाल की भाषा में ‘रैचेट मिकैनिज्म’ कहा जाता है। मूल योजना के तहत कॉप 26 का आयोजन नवंबर 2020 में होना चाहिए था, पर महामारी के कारण इस कार्यक्रम को एक साल के लिए टाल दिया गया।
इस समय दुनिया 2050 तक कार्बन
उत्सर्जन का नेट-शून्य लक्ष्य हासिल करना चाहती है। यानी जितना कार्बन उत्सर्जित हो
उतना वातावरण में पेड़ों या तकनीक के द्वारा अवशोषित कर लिया जाए। इसके अलावा
वैश्विक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस की अधिकतम वृद्धि तक सीमित रखना। ये लक्ष्य
कैसे हासिल होंगे, इसे लेकर दुविधा है। बहरहाल जिन बातों पर सहमति है, वे हैं:-
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सदस्यों और प्राकृतिक आवासीय क्षेत्रों के
संरक्षण के लिए सदस्य देशों को एकजुट करना।
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विकसित देशों को वादे के अनुसार 2020 तक सालाना
कम से कम 100 अरब डॉलर जलवायु वित्त उपलब्ध कराने के लिए प्रेरित करना
· अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थाओं को वैश्विक स्तर पर नेट-शून्य उत्सर्जन सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय संसाधन मुहैया कराने के लिए तैयार करना।
सम्मेलन से क्या उम्मीदें?
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जलवायु परिवर्तन रोकने के लक्ष्यों और सदस्य
देशों की नीतियों में मौजूद अंतर दूर करने के प्रयास हो सकते हैं।
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भारत की ओर से किसी बड़ी घोषणा की आशा।
· कार्बन क्रेडिट की खरीद-फरोख्त के लिए कार्बन मार्केट मशीनरी बनाना।
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सर्वाधिक जोखिम वाले देशों की क्षतिपूर्ति को
वित्तीय आवंटन सुनिश्चित करना।
पेरिस समझौता
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12 दिसंबर 2015 को 196 देशों ने बाध्यकारी
समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं, जो 4 नवंबर 2016 से लागू हुआ है।
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इसके तहत ग्लोबल वॉर्मिंग में वृद्धि को 2
डिग्री सेल्सियस और आदर्श स्थिति में 1.5 डिग्री तक सीमित करना।
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समझौते में शामिल देशों को कार्बन उत्सर्जन
कटौती के लिए पांच और दस साल के राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाने होंगे और नियमित रूप से
इसकी समीक्षा करने होगी। आर्थिक रूप से कमजोर देशों को ये लक्ष्य हासिल करने के
लिए विकसित देश आर्थिक भार वहन करेंगे।