अस्सी साल से भी पहले निर्मित हावड़ा ब्रिज इंजीनियरिंग का चमत्कार है। यह विश्व के व्यस्ततम कैंटीलीवर ब्रिजों में से एक है। कोलकाता और हावड़ा को जोड़ने वाले इस पुल जैसे अनोखे पुल संसार भर में केवल गिने-चुने ही हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कोलकाता और हावड़ा के बीच बहने वाली हुगली नदी पर एक तैरते हुए पुल के निर्माण की परिकल्पना की गई। तैरते हुआ पुल बनाने का कारण यह था कि नदी में रोजाना काफी जहाज आते-जाते थे। खम्भों वाला पुल बनाते तो जहाजों का आना-जाना रुक जाता। अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज एक्ट पास किया, पर योजना बनने में बहुत वक्त लगा। पुल का निर्माण सन् 1937 में ही शुरू हो पाया। सन् 1942 में यह बनकर पूरा हुआ। इसे बनाने में 26,500 टन स्टील की खपत हुई। इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह ज़रूर कहा गया था कि वह भारत में बने स्टील का इस्तेमाल करेगा। टिस्क्रॉम नाम से प्रसिद्ध इस स्टील को टाटा स्टील ने तैयार किया। इसके इस्पात के ढाँचे का फैब्रिकेशन ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने कोलकाता स्थित चार कारखानों में किया। 1528 फुट लंबे और 62 फुट चौड़े इस पुल में लोगों के आने-जाने के लिए 7 फुट चौड़ा फुटपाथ छोड़ा गया था। 3 फरवरी, 1943 को आम जनता के उपयोग के लिए इसे खोल दिया गया। हावड़ा और कोलकाता को जोड़ने वाला हावड़ा ब्रिज जब बनकर तैयार हुआ था तो इसका नाम था न्यू हावड़ा ब्रिज। 14 जून 1965 को गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर इसका नाम रवींद्र सेतु कर दिया गया पर प्रचलित नाम फिर भी हावड़ा ब्रिज ही रहा। इसपर पूरा खर्च उस वक्त की कीमत पर ढाई करोड़ रुपया (24 लाख 63,887 पौंड)आया। इस पुल से होकर पहली बार एक ट्रामगाड़ी चली थी।
जुगनू कैसे चमकते हैं?
जुगनू उड़ने
वाला कीड़ा है, जिसके पेट
में रासायनिक क्रिया से रोशनी पैदा होती है। इसे बायोल्युमिनेसेंस कहते हैं। यह
कोल्ड लाइट कही जाती है इसमें इंफ्रा रेड और अल्ट्रा वॉयलेट दोनों फ्रीक्वेंसी
नहीं होतीं।
राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 17 जून, 2023 को प्रकाशित