Saturday, August 26, 2023

आपने शाकाहारी मीट खाया है?

तकनीकी दृष्टि से इसे मीट या गोश्त नहीं कहना चाहिए, पर वनस्पति-आधारित प्रोटीन से भरपूर ऐसे खाद्य-पदार्थ बाजार में आ रहे हैं, जो रूप और स्वाद में गोश्त जैसे लगते हैं। इन्हें मॉक-मीट या वैज-मीट, ‘शाकाहारी मांस’ या वीगन फूड्स कहा जा रहा है। ऐसे सींक कबाब, नगेट्स, बर्गर और सॉसेज बाजार में उपलब्ध हैं, जो एकदम मीट के बने लगते हैं और स्वाद में भी वैसे ही होते हैं।

इन्हें मटर और सोया जैसी वनस्पतियों से प्रोटीन निकालकर रिफाइंड नारियल के तेल, पाम ऑयल या ऐसे की किसी वनस्पति तेल की सहायता से बनाया जाता है। इनमें चुकंदर के सत या ऐसे ही किसी वानस्पतिक-पदार्थ की सहायता से रंग और टैक्सचर भी गोश्त जैसा दिया जाता है। कृषि एवं प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) ने वीगन फूड्स की विदेश में बढ़ती मांग पूरी करने के लिए एक राष्ट्रीय कार्यक्रम की शुरुआत की है। भारत में तैयार वीगन फूड्स के निर्यात की पहल भी शुरू हो गई है। लोग वीगन फूड्स के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण से जुड़े लाभों को लेकर जागरूक हो गए हैं, पर स्वाद भी चाहते हैं।

कटहल शाकाहारी तत्त्वों का अच्छा स्रोत है, जिससे गोश्त की तरह स्वाद वाले पदार्थों को तैयार किया जा सकता है। कोविड महामारी के दौरान वीगन फूड्स ने लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। इसके पीछे धारणा यह थी कि बीमारियों से लड़ने में ये उत्पाद शरीर में प्रतिरोध क्षमता का विकास करते हैं। इससे देश में ‘मॉक-मीट्स’ उद्योग तेजी से आगे बढ़ा है। अमेरिका के कृषि विभाग ने मई 2021 में प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत को ‘मांस के विकल्प के रूप में एक बड़ा बाजार बताया था’। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रोटीन के स्रोत के रूप में दलहन, कटहल एवं दुग्ध उत्पादों का लंबे समय से इस्तेमाल होता रहा है।

छींक क्यों आती है.

छींक आमतौर पर तब आती है जब हमारी नाक के अंदर की झिल्ली, किसी बाहरी पदार्थ के घुस जाने से खुजलाती है। नाक से तुरंत हमारे मस्तिष्क को संदेश पहुंचता है और वह शरीर की मांसपेशियों को आदेश देता है कि इस पदार्थ को बाहर निकालें। जानते हैं छींक जैसी मामूली सी क्रिया में कितनी मांसपेशियां काम करती हैं....पेट, छाती, डायफ्राम, वाकतंतु, गले के पीछे और यहां तक कि आंखों की भी। ये सब मिलकर काम करते हैं। कभी-कभी एक छींक से काम नहीं चलता तो कई छींके आती हैं। जब जुकाम होता है तब छींकें इसलिए आती हैं क्योंकि जुकाम की वजह से हमारी नाक के भीतर की झिल्ली में सूजन आ जाती है और उससे ख़ुजलाहट होती है।

राजस्थान पत्रिका के नॉलेज कॉर्नर में 26 अगस्त, 2023 को प्रकाशित

Wednesday, August 16, 2023

चंद्रयान-3 और लूना-25 की रेस

एक हफ्ते बाद संभवतः 23 अगस्त को चंद्रयान-3 की चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर सॉफ्ट लैंडिंग होगी। इसके एक या दो दिन पहले रूसी मिशन लूना-25 चंद्रमा पर उतर चुका होगा। चंद्रयान-3 का प्रक्षेपण 14 जुलाई को हुआ था, जबकि रूसी मिशन का प्रक्षेपण 10 अगस्त को हुआ। आपके मन में सवाल होगा कि फिर भी रूसी यान भारतीय यान से पहले क्यों पहुँचेगा? चंद्रयान-3 चंद्रमा की सतह पर तभी उतरेगा, जब वहाँ की भोर शुरू होगी। चूंकि रूसी लैंडर भी चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर उतरेगा, इसलिए संभवतः रूस इस बात का श्रेय लेना चाहता है कि दक्षिणी ध्रुव पर उतने वाला पहला यान रूसी हो। दक्षिणी ध्रुव पर अभी तक किसी देश का यान नहीं उतरा है।

चंद्रमा का एक दिन धरती के 14 दिन के बराबर होता है। चंद्रयान-3 केवल 14 दिन काम करने के लिए बनाया गया है, जबकि रूसी यान करीब एक साल काम करेगा। लूना-25 जिस जगह उतरेगा वहाँ भोर दो दिन पहले होगी। भोर का महत्व इसलिए है, क्योंकि चंद्रमा की रात बेहद ठंडी होती है। वहाँ दिन का तापमान 140 डिग्री से ऊपर होता है और रात का माइनस 180 से भी नीचे।

चंद्रयान-3 में हीटिंग की व्यवस्था नहीं की गई है। उसके लिए ईंधन का इंतजाम अलग से करना होगा, जबकि लूना-25 में हीटिंग की व्यवस्था की गई है, ताकि वह साल भर काम करे। बहरहाल भारतीय अभियान के पास काम ज्यादा हैं, जो वह कम से कम समय में पूरे करेगा। ठंड में वह कितने समय तक चलेगा, इसका पता भी लग जाएगा।

धीमी गति

चंद्रयान-3 की गति धीमी क्यों है और वह लूना-25 की तुलना में कम समय तक काम क्यों करेगा? इन दोनों बातों को समझने के लिए प्रक्षेपण के लिए इस्तेमाल किए गए रॉकेट और चंद्रयान-3 और लूना-25 की संरचना के फर्क को समझना होगा।

चंद्रयान के प्रक्षेपण के लिए भारत के सबसे शक्तिशाली एलवीएम-3 रॉकेट का इस्तेमाल किया गया था, जबकि रूसी यान को सोयूज़-2.1बी रॉकेट पर रखकर भेजा गया है। सरल शब्दों में कहा जाए, तो रूसी रॉकेट ज्यादा शक्तिशाली है, उसका इंजन बेहतर है, और उसमें ज्यादा ईंधन ले जाने की क्षमता है, जिसके कारण वह कम ईंधन में ज्यादा दूरी तय कर सकता है।

दूसरा फर्क यह है कि चंद्रयान-3 लूना-25 के मुकाबले करीब दुगने से ज्यादा भारी है। चंद्रयान-3 का वजन है 3,900 किलोग्राम और लूना-25 का 1,750 किलो। चंद्रयान में एक रोवर भी है, जो चंद्रमा की सतह पर चलेगा, जबकि लूना-25 में रोवर नहीं है। रूसी रॉकेट को कम वजन ले जाना था, उसकी ताकत ज्यादा है और उसमें ईंधन ज्यादा है। भारतीय रॉकेट ने कम ईंधन का सहायता से ज्यादा वजनी यान को चंद्रमा पर पहुँचाया है।

अलग पद्धति

दोनों अभियानों में चंद्रमा तक पहुँचने की योजना दो अलग तरीकों और रास्तों से अपनाई गई है। जहाँ रूसी रॉकेट धरती से उड़ान भरकर पृथ्वी की गुरुत्व शक्ति को पार करते हुए सीधे चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश कर गया है, वहीं चंद्रयान पहले पृथ्वी की कक्षा में रहा और धीरे-धीरे उसने अपनी कक्षा का दायरा बढ़ाया। इस तरीके से जब वह चंद्रमा की कक्षा का करीब पहुँचा तब गुलेल की तरह से पृथ्वी की कक्षा को छोड़कर उसने चंद्रमा की कक्षा में प्रवेश किया। फिर धीरे-धीरे वह छोटी कक्षा में आता जा रहा है। इसमें ज्यादातर अपने ईंधन के बजाय पहले पृथ्वी की और बाद में चंद्रमा की गुरुत्व शक्ति का सहारा लिया गया। इस तरह से उसका रास्ता लंबा हो गया है। भारत के मंगलयान के लिए भी इसी तकनीक का सहारा लिया गया था।

 

 

Saturday, August 12, 2023

अक्षय ऊर्जा क्या होती है?

अक्षय मायने जिसका अंत नहीं है। अक्षय-ऊर्जा ऐसे स्रोत से प्राप्त ऊर्जा है, जिसका बार-बार इस्तेमाल होता रहे। मसलन पेट्रोल या लकड़ी जल जाने के बाद उसका दूसरी बार इस्तेमाल नहीं हो सकता। अक्षय-ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली बनाने, वाहनों को चलाने, गर्मी पैदा करने या कूलिंग के लिए किया जाता है। ज्यादातर ऐसी ऊर्जा प्रदूषण भी पैदा नहीं करती या कम से कम करती है। इनमें प्राकृतिक प्रक्रिया के तहत सौर, पवन, सागर, पनबिजली, बायोमास, भूतापीय संसाधनों और जैव ईंधन और हाइड्रोजन वगैरह शामिल हैं। दुनिया में इसका इस्तेमाल लगातार बढ़ता जा रहा है। सन 2011 में ऊर्जा के वैश्विक इस्तेमाल में इसका प्रतिशत 20 था, जो 2021 में बढ़कर 28 हो गया।

इंटरनेशनल इनर्जी एजेंसी के अनुसार 2022 में केवल सौर, पवन, जल और भूतापीय ऊर्जा में 8 फीसदी की वृद्धि हुई। इस प्रकार वैश्विक ऊर्जा में इनकी हिस्सेदारी 5.5 प्रतिशत हो गई। इसी तरह आधुनिक जैव-ऊर्जा की हिस्सेदारी 6.8 प्रतिशत हो गई। 2022 का वर्ष वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए ढीला रहा, क्योंकि कोविड-19 के कारण ऊर्जा की माँग घट रही थी, पर अक्षय-ऊर्जा में तेजी से वृद्धि हो रही थी।

भारत में फरवरी 2023 तक 122 गीगावॉट अक्षय-ऊर्जा की क्षमता का निर्माण हो चुका था। इसमें पनबिजली और नाभिकीय ऊर्जा शामिल नहीं है। यह लक्ष्य से कम है, क्योंकि सरकार ने 2022 के अंत तक 175 गीगावॉट क्षमता के निर्माण का लक्ष्य रखा था। भारत ने 2030 तक देश में गैर-जीवाश्म (गैर-पेट्रोलियम) ऊर्जा का स्तर 50 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य रखा है। फरवरी 2023 तक देश में कोयले से चलने वाले ताप-बिजलीघर कुल बिजली का 78.2 प्रतिशत बना रहे थे।

ह्वाइट कॉलर जॉब?

ह्वाइट कॉलर शब्द एक अमेरिकी लेखक अपटॉन सिंक्लेयर ने 1930 के दशक में गढ़ा. औद्योगीकरण के साथ शारीरिक श्रम करने वाले फैक्ट्री मजदूरों की यूनीफॉर्म डेनिम के मोटे कपड़े की ड्रेस हो गई। शारीरिक श्रम न करने वाले कर्मचारी सफेद कमीज़ पहनते। इसी तरह खदानों में काम करने वाले ब्लैक कॉलर कहलाते। सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े कर्मियों के लिए अब ग्रे कॉलर शब्द चलने लगा है।

राजस्थान पत्रिका के 12 अगस्त, 2023 के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित 

Thursday, August 3, 2023

पेनाल्टी कॉर्नर का नया नियम

 फील्ड हॉकी के पेनाल्टी कॉर्नर का नया नियम, जिसका परीक्षण कुछ समय तक किया जाएगा।  इसमें बॉल को पहले डी के बाहर पाँच मीटर दूर बनी डॉटेड लाइन तक जाना होगा। इसका मतलब है कि वहाँ से डायरेक्ट हिट या ड्रैग फ्लिक लगाया नहीं जा सकेगा। विस्तार से पढ़ें इंडियन एक्सप्रेस में


वेजीटेबल नहीं, वेजटेबल

 


डिसरप्टिव टेक्नोलॉजी

अंग्रेजी के डिसरप्टिव शब्द के हिन्दी में ज्यादातर अर्थ नकारात्मक हैं। मसलन बाधाकारी, हानिकारक, विध्वंसकारी वगैरह। जैसे सृजन के लिए संहार जरूरी है वैसे ही आधुनिक तकनीक के संदर्भ में इसके मायने सकारात्मक है। इनोवेशन या नवोन्मेष वह है जो नयापन लाने के लिए पुराने को खत्म करता है। जैसे सीएफएल ने परम्परागत बल्ब के चलन को खत्म किया और अब एलईडी सीएफएल को खत्म कर रहा है। मोबाइल फोन ने कैमरा,  वॉयस रिकॉर्डर समेत तमाम तकनीकों को लगभग खत्म कर दिया। इस  शब्द का सबसे पहले इस्तेमाल लेखक क्लेटन एम क्रिस्टेनसेन (clayton m. christensen) ने 1995 में किया, जो हारवर्ड बिजनेस स्कूल में प्राध्यापक  भी रहे। सारे इनोवेशन डिसरप्टिव नहीं होते। मसलन बीसवीं सदी के शुरू में कार का आविष्कार क्रांतिकारी तो था, पर उसने घोड़ागाड़ी के परम्परागत परिवहन को तत्काल खत्म नहीं किया, क्योंकि मोटरगाड़ी महंगी थी। सन 1908 में फोर्ड के सस्ते मॉडल टी के आगमन के बाद ही घोड़ागाड़ी खत्म होने की प्रक्रिया शुरू हुई जो तकरीबन तीस साल तक चली। इसके मुकाबले मोबाइल फोन ने परम्परागत फोन को जल्दी खत्म किया।

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