असहमति किन बातों पर है?
ग़रीब देशों और अमीर देशों के कार्बन
उत्सर्जन की सीमा को लेकर शुरू से ही विवाद था. एक सबसे बड़ी असहमति इंटर-गवर्नमेंटल
पैनल की जलवायु परिवर्तन पर वैज्ञानिक रिपोर्ट को लेकर है. कुछ देशों के समूह, जिनमें सऊदी अरब, अमरीका, कुवैत
और रूस ने आईपीसीसी की रिपोर्ट को ख़ारिज कर दिया है. नवम्बर के महीने में जारी
विश्व मौसम विज्ञान संगठन की रिपोर्ट में कहा गया है कि 2017 में वातावरण में
कार्बन डाई ऑक्साइड का स्तर 405 पीपीएम( पार्ट्स पर मिलियन) हो गया. पृथ्वी में
ऐसी स्थिति पिछले तीस से पचास लाख साल में पहली बार आई है. अक्तूबर 2018 में
इंटर-गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने अपनी विशेष रिपोर्ट में कहा
है कि धरती का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है. आईपीसीसी ने कार्बन
उत्सर्जन को लेकर जो सीमा तय की है उस पर कई देशों के बीच मतभेद हैं. भारत ने 2030
तक 30-35 फ़ीसदी कम कार्बन उत्सर्जन करने की बात कही है.
क्या तय हुआ?
सम्मेलन में
शामिल प्रतिनिधियों ने 156 पेज का जो दस्तावेज तैयार किया है, उसमें यह बताया गया
है कि देश किस प्रकार उत्सर्जन रोकने के प्रयासों को कैसे मापेंगे, रिपोर्ट करेंगे और पुष्टि करेंगे.
पेरिस संधि में देशों के लिए स्वैच्छिक अंशदान तय किया गया था, जिसे नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) कहा गया.
भारत के मामले में एनडीसी संशोधन 2030
में होना है. चूंकि सभी
देशों के ग्रीनहाउस गैसों (जीएचसी) के बारे में अपने-अपने मानक और परिभाषाएं थीं,
इसलिए परिणाम एक जैसे नहीं हो सकते थे. अब नियम-पुस्तिका के अनुसार हस्ताक्षर करने
वाले देश मानकों पर दृढ़ रहेंगे. वित्तीय-व्यवस्था की कुछ विसंगतियों को दूर किया
गया है. बावजूद इसके छोटे द्वीपों पर बसे देश परेशान हैं, क्योंकि अमीर देश ग्रीन
क्लाइमेट फंड के लिए हर साल 100 अरब डॉलर की धनराशि केवल 2025 तक ही देने को तैयार
हैं. पेरिस समझौते में जिस कार्बन मार्केट को बनाने की बात कही गई थी, उसके बारे
में कोई रूपरेखा नहीं बनी है. इसपर फैसला कॉप-25
में होगा.