Friday, July 19, 2019

जीरो बजट क्या है?


सबसे पहले यह समझ लिया जाना चाहिए कि जीरो बजट और जीरे बेस्ड बजट दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं. भारत के संदर्भ में जीरो बजटशब्द का इस्तेमाल हाल में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने बजट भाषण में किया. तकनीकी दृष्टि से इसे जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग (शून्य बजट प्राकृतिक खेती) कहना उचित होगा. यानी कि ऐसी खेती जो रासायनिक उर्वरकों, हाइब्रिड बीजों और कीटनाशकों पर आधारित नहीं है. जिसमें किसान को कोई भी चीज बाहर से खरीदनी न पड़े. परम्परागत खेती की वापसी. इस अवधारणा को महाराष्ट्र के कृषि विज्ञानी सुभाष पालेकर ने जन्म दिया. संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने इसे जीरो बजट नेचुरल फार्मिंग (शून्य बजट प्राकृतिक खेती) नाम देकर मान्यता भी प्रदान की है. सुभाष पालेकर को सन 2016 में अपनी अवधारणाओं के कारण पद्मश्री से अलंकृत किया गया. सन 2017 में उन्हें आंध्र प्रदेश सरकार ने जीरो बजट फार्मिंग के लिए अपना सलाहकार नियुक्त किया. हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक की राज्य सरकारों ने भी जीरो बजट फार्मिंग में दिलचस्पी दिखाई है.
इसे महत्व क्यों मिला?
किसानों की आत्महत्या की खबरें बढ़ने के कारण खेती की इस पद्धति को बढ़ावा देने की जरूरत महसूस की जा रही है. सुभाष पालेकर ने कर्नाटक राज्य रैयत संघ के साथ मिलकर इसे आंदोलन के रूप में चलाया. इसमें सफलता भी मिली. दक्षिण के दूसरे राज्यों में भी इसका प्रसार हुआ है. इस पद्धति में किसान देशी खाद बनाते हैं जिसका नाम ‘घनजीवामृत’ रखा है. यह खाद गाय के गोबर, गोमूत्र, चने के आटे, गुड़, मिट्टी तथा पानी से बनती है. रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर नीम, गोबर और गोमूत्र से बने ‘नीमास्त्र’ का इस्तेमाल करते हैं. इससे फसल में कीड़ा नहीं लगता है. संकर प्रजाति के बीजों के स्थान पर देशी बीज डालते हैं. सिंचाई, मड़ाई और जुताई का सारा काम बैलों की मदद से किया जाता है. डीजल से चलने वाले संसाधनों का प्रयोग नहीं होता. इससे खर्च बचते हैं.
क्या यह सफल है?
आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया है कि देश के 1,63,034 किसान ऐसी खेती कर रहे हैं, जबकि सुभाष पालेकर का अनुमान है कि यह संख्या 50 लाख से ज्यादा है. भारत में आज भी पश्चिमी औद्योगिक तर्ज पर खेती नहीं होती. छोटे और मझोले किसान ही खेती करते हैं. राजस्थान में सीकर जिले के प्रयोगधर्मी किसान कानसिंह कटराथल ने प्राकृतिक खेती में सफलता हासिल की है. पहले वे रासायनिक एवं जैविक खेती करते थे, लेकिन जीरो बजट खेती फायदेमंद साबित हो रही है. पालेकर के अनुसार ऑर्गेनिक खेती, रासायनिक खेती से भी खतरनाक है. फसल की बुवाई से पहले वर्मिकम्पोस्ट और गोबर खाद खेत में डाली जाती है. उसमें निहित 46 प्रतिशत कार्बन हमारे देश के 36 से 48 डिग्री सेल्सियस तापमान में खाद से मुक्त हो वायुमंडल में उड़ जाते हैं. हमारे यहाँ दिसम्बर से फरवरी केवल तीन महीने ही ऐसे है, जब तापमान उस  खाद के लिए ठीक रहता है. वर्मिकम्पोस्ट बनाने में आयातित जीव केंचुआ न होकर आयसेनिया फिटिडा है, जो काष्ठ पदार्थ और गोबर खाता है, जबकि देशी केंचुआ मिट्टी और जमीन में मौजूद कीटाणु एवं जीवाणुओं को खाकर खाद में बदलता है.


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