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इन्द्रधनुष का रिश्ता प्रकाश या रोशनी में मौज़ूद तमाम रंगों से है। रोशनी में कई रंगों की बात सैकड़ों साल पहले वैज्ञानिकों ने समझ ली थी, पर सर आइज़क न्यूटन ने अपनी किताब ऑप्टिक्स में प्रिज्म के मार्फत प्रकाश के रंगों के अलग होने या वापस सफेद रंग में परिणित होने का वैज्ञानिक सिद्धांत बनाया। उन्होंने इसका नाम दिया स्पेक्ट्रम जिसे हम हिन्दी में वर्णक्रम कहते हैं। इन्द्रधनुष प्राकृतिक रूप से नज़र आने वाला स्पेक्ट्रम है।
शाम के समय पूर्व दिशा में तथा सुबह के समय पश्चिम दिशा में या वर्षा के बाद आसमान में लाल, नारंगी, पीला, हरा, आसमानी, नीला, तथा बैंगनी रंगों का बड़ा वृत्ताकार वक्र या आर्क दिखाई देता है। वर्षा अथवा बादल में पानी की छोटी-छोटी बूँदों अथवा कणों पर पड़नेवाली सूर्य किरणों का विक्षेपण (डिस्पर्शन) ही इंद्रधनुष के सुंदर रंगों का कारण है। इंद्रधनुष दर्शक की पीठ के पीछे सूरज होने पर ही दिखाई पड़ता है। पानी के फुहारे या झरनों के पास दर्शक के पीछे से सूर्य किरणों के पड़ने पर भी इंद्रधनुष देखा जा सकता है। आमतौर पर इन्द्रधनुष में लाल रंग सबसे बाहर और बैंगनी रंग सबसे भीतर होता है। पर पानी में किरणों का दो बार परावर्तन हो, तो इंद्रधनुष ऐसा भी बनना संभव है जिसमें वक्र का बाहरी वर्ण बैंगनी रहे तथा भीतरी लाल। इसको द्वितीयक (सेकंडरी) इंद्रधनुष कहते हैं।
तीन अथवा चार आंतरिक परावर्तन से बने इंद्रधनुष भी संभव हैं, परंतु वे बिरले अवसरों पर ही दिखाई देते हैं। वे सदैव सूर्य की दिशा में बनते हैं तथा तभी दिखाई पड़ते हैं जब सूर्य स्वयं बादलों में छिपा रहता है। इंद्रधनुष की क्रिया को सर्वप्रथम दे कार्ते नामक फ्रेंच वैज्ञानिक ने उपर्युक्त सिद्धांतों द्वारा समझाया था। इनके अतिरिक्त कभी-कभी प्रथम इंद्रधनुष के नीचे की ओर अनेक अन्य रंगीन वृत्त भी दिखाई देते हैं। ये वास्तविक इंद्रधनुष नहीं होते। ये जल की बूँदों से ही बनते हैं, किंतु इनका कारण विवर्तन (डिफ़्रैक्शन) होता है। इनमें विभिन्न रंगों के वृतों की चौड़ाई जल की बूँदों के बड़ी या छोटी होने पर निर्भर रहती है।
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