जापान के निक्को स्थित तोशोगु की
समाधि पर ये तीनों बंदर बने हैं. वहाँ से ही वे दुनियाभर में प्रसिद्ध हुए. ये
बंदर बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न बोलो की समझदारी को दर्शाते हैं. मूलतः
यह शिक्षा ईसा पूर्व के चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस की थी. वहाँ से यह विचार जापान
गया. उस समय जापान में शिंटो संप्रदाय का बोलबाला था. शिंटो संप्रदाय में बंदरों
को काफी सम्मान दिया जाता है. शायद इसीलिए इस विचारधारा को बंदरों का प्रतीक दे
दिया गया. ये बंदर युनेस्को की विश्व विरासत सूची में शामिल है. ऐसे ही विचार
जापान के कोशिन मतावलम्बियों के हैं जो चीनी ताओ विचार से प्रभावित हैं. जापानी
में इन बंदरों के नाम हैं मिज़ारू, किकाज़ारू और इवाज़ारू. महात्मा गांधी ने इन
तीन के मार्फत नैतिकता की शिक्षा दी, इसलिए कुछ लोग इन्हें गांधीजी के बंदर भी कहते
हैं.
सीता-स्वयंवर का धनुष
इसे शिव-धनुष कहते हैं. पौराणिक कथाओं
के अनुसार यह शिव का प्रिय धनुष था जिसका नाम पिनाक था. इस धनुष पर प्रत्यंचा
चढ़ाना इसलिए खास था क्योंकि यह धनुष स्वयं शिव का था और बहुत अधिक वजनी था. धनुष
के वजन के संबंध में तुलसी दास ने लिखा है कि स्वयंवर में उपस्थित हजारों राजा एक
साथ मिलकर भी उस धनुष को हिला तक नहीं पाए थे. वहीं श्रीराम ने शिव धनुष की
प्रत्यंचित किया. स्वयंवर में इतनी कठिन शर्त रखने के पीछे कई कथाएं प्रचलित हैं. शास्त्रों
के अनुसार विश्वकर्मा ने दो दिव्य धनुष बनाए थे एक विष्णु के लिए और एक शिव के लिए.
एक का नाम शारंग तथा दूसरे का नाम पिनाक था. उन्होंने शारंग भगवान विष्णु को तथा
पिनाक भगवान शिव को दिया था. इसके अलावा भी कहानियाँ हैं. शिव ने यह धनुष परशुराम
को भेंट में दिया था. परशुराम ने इस धनुष को जनक के पूर्वज देवराज के यहां रखवा
दिया था. राजा जनक के यहां बचपन में सीता ने इस धनुष को उठा लिया. यह देखकर जनक
समझ गए कि सीता असाधारण कन्या है. इसका विवाह किसी असाधारण वर से होगा.
रावण क्यों दशानन?
वाल्मीकि रामायण के अनुसार रावण कुशल
राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ ब्रह्म ज्ञानी तथा
बहु-विद्याओं का जानकार था. कुछ विद्वान मानते हैं कि रावण के दस सिर नहीं थे
किंतु वह दस सिर होने का भ्रम पैदा कर देता था इसी कारण लोग उसे दशानन कहते थे.
कुछ के अनुसार वह छह दर्शन और चारों वेद का ज्ञाता था इसीलिए उसे दसकंठी कहा जाता
था. दसकंठी कहे जाने के कारण प्रचलन में उसके दस सिर मान लिए गए. जैन शास्त्रों
में उल्लेख है कि रावण के गले में बड़ी-बड़ी गोलाकार नौ मणियां होती थीं. उक्त नौ
मणियों में उसका सिर दिखाई देता था जिसके कारण उसके दस सिर होने का भ्रम होता था.
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