आतिशबाजी का आविष्कार किस देश में हुआ?
आतिशबाजी का विकास सातवीं सदी के चीन में हुआ। चीन में पायरोटेक्नीक या आतिशबाजी को कला की शक्ल दी गई। दरअसल बारूद के आविष्कार के बाद उसका इस्तेमाल युद्धों में ही होता था। पर चीनी कारीगरों ने उसे मनोरंजक बना दिया। अग्निवाण और रॉकेट चीन में खोजे गए। आतिशबाजी का अपना रसायन शास्त्र है। अलग-अलग रंगों की रोशनी और चमक पैदा करने के लिए जिन पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है उसे आधुनिक विज्ञान ने और रोचक बना दिया है। पायरोटेक्नॉलजी और पायरोसाइंस अपने आप में विषय हैं। भारत में हम दीपावली या खास मौकों पर आतिशबाजी देखते हैं। इनमें चर्खी, अनार, लड़ी, बम, रॉकेट, सीटी, सुर्री, मेहताब और फुलझड़ी जैसी चीजें होती हैं। पश्चिमी देशों में आतिशबाजी का बड़े स्तर पर प्रदर्शन होता है। इसी तरह दुनिया में आतिशबाजी के समारोह होते हैं। सन 2005 से वर्ल्ड पायरो ओलिम्पिक होने लगे हैं, जिनमें दुनिया भर के आतिशबाज अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। ये पायरो ओलिम्पिक मनीला, फिलीपाइंस में होते हैं। इसी तरह मांट्रियल, कनाडा का वार्षिक फायरवर्क्स फेस्टिवल है।
आतिशबाजी के प्रदर्शन में खतरे भी होते हैं। अक्सर दुर्घटनाएं हो जाती हैं। हाल के वर्षों में प्रकाश और रंग के लेज़र शो ने भी अपनी जगह बनाई है। इस तरह के शो सत्तर के दशक में शुरू हुए थे। इनमें रोशनी के साथ संगीत और डांस का समन्वय भी किया जा रहा है। लेजर बीम की पतली रेखा बनाना सम्भव है और उसे कई तरह के प्रोजेक्टरों का इस्तेमाल करके पैटर्न बनाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए ये शो काफी लोकप्रिय हो रहे हैं।
दुनिया में क्या दीपावली जैसा पर्व कहीं और मनाया जाता है? आतिशबाजी का विकास सातवीं सदी के चीन में हुआ। चीन में पायरोटेक्नीक या आतिशबाजी को कला की शक्ल दी गई। दरअसल बारूद के आविष्कार के बाद उसका इस्तेमाल युद्धों में ही होता था। पर चीनी कारीगरों ने उसे मनोरंजक बना दिया। अग्निवाण और रॉकेट चीन में खोजे गए। आतिशबाजी का अपना रसायन शास्त्र है। अलग-अलग रंगों की रोशनी और चमक पैदा करने के लिए जिन पदार्थों का इस्तेमाल किया जाता है उसे आधुनिक विज्ञान ने और रोचक बना दिया है। पायरोटेक्नॉलजी और पायरोसाइंस अपने आप में विषय हैं। भारत में हम दीपावली या खास मौकों पर आतिशबाजी देखते हैं। इनमें चर्खी, अनार, लड़ी, बम, रॉकेट, सीटी, सुर्री, मेहताब और फुलझड़ी जैसी चीजें होती हैं। पश्चिमी देशों में आतिशबाजी का बड़े स्तर पर प्रदर्शन होता है। इसी तरह दुनिया में आतिशबाजी के समारोह होते हैं। सन 2005 से वर्ल्ड पायरो ओलिम्पिक होने लगे हैं, जिनमें दुनिया भर के आतिशबाज अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं। ये पायरो ओलिम्पिक मनीला, फिलीपाइंस में होते हैं। इसी तरह मांट्रियल, कनाडा का वार्षिक फायरवर्क्स फेस्टिवल है।
आतिशबाजी के प्रदर्शन में खतरे भी होते हैं। अक्सर दुर्घटनाएं हो जाती हैं। हाल के वर्षों में प्रकाश और रंग के लेज़र शो ने भी अपनी जगह बनाई है। इस तरह के शो सत्तर के दशक में शुरू हुए थे। इनमें रोशनी के साथ संगीत और डांस का समन्वय भी किया जा रहा है। लेजर बीम की पतली रेखा बनाना सम्भव है और उसे कई तरह के प्रोजेक्टरों का इस्तेमाल करके पैटर्न बनाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इसलिए ये शो काफी लोकप्रिय हो रहे हैं।
किसी खास मौके पर रोशनी करने की परम्परा दुनिया के प्रायः हर देश में है। कुछ देशों के परम्परागत प्रकाश-उत्सवों पर नज़र डालते हैं तो इनमें ईरान का चहार-शानबे-सूरी काफी रोचक है। ईरानी नव वर्ष नौरोज़ के पहले और गुजरते साल के अंतिम बुधवार को यह मनाया जाता है। रोशनी इसके एक दिन पहले यानी मंगल की रात की जाती है। इसमें लोग एकत्र होकर आग जलाते हैं और रोशनी से सजावट करते हैं। वे आग को ऊपर से होकर गुजरते हैं और कहते जाते हैं मुझे लाल रंग दो और फीका रंग वापस ले लो।
इसी तरह यहूदियों का शनुक्का पर्व है, जो ईसवी सन से दो सदी पहले हुई मकाबी क्रांति की याद में मनाया जाता है। यहूदियों पर लगी धार्मिक पाबंदियों के खिलाफ हुई उस क्रांति में यरूशलम के मंदिर का पुनरोद्धार किया गया था। रोशनी का यह पर्व आठ दिन चलता है। इसमें खास तौर से नौ ज्योति वाले दीपाधार शनुक्का को रोशन किया जाता है।
इंग्लैंड में ब्लैकपूल इल्युमिनेशंस शरद ऋतु में दो महीने तक चलते हैं। इसमें इमारतों और वाहनों सबको रोशनी से सजाया जाता है। इस साल यह समारोह 2 सितम्बर को शुरू हुआ और 6 नवम्बर तक चलेगा। हवाई में हर साल क्रिसमस समारोह की रोशनी भी दीपावली जैसी होती है। ऐसा ही फ्रास का लियोन और जापान का कोबे प्रकाशोत्सव है।
दीपक का विकास किस तरह हुआ?
दीपक, मोमबत्ती और कंदील के पहले मनुष्य ने आग जलाना सीख लिया था। आग के रूप में अंधेरे में एक सहारा मिल गया। अंधेरा उदासीनता और अवसाद की निशानी है तो रोशनी उल्लास और आशा की। यह रोशनी शुरू में वनस्पति तेलों , पत्तियों और लकड़ियों को जलाकर प्राप्त की जाती थी। इस रोशनी को हासिल करने के बाद ही दीपक और दीवट बने। शुरू के दीपक पत्थर के रहे होंगे। बाद में कुम्हार के चाक का विकास हुआ और मिट्टी के दीपक बने। दीयाबत्ती या मोमबत्ती का आविष्कार भी पाँच हजार साल से पहले हो गया था। इसके लिए वनस्पति तेल या जानवरों की चर्बी का इस्तेमाल होता था। राज दरबारों में सजावटी रोशनी के लिए सुन्दर झाड़-फानूस भी हजारों साल पहले बन गए थे। सड़कों पर रोशनी करने के लिए मशालों, दीपकों और लालटेनों का विकास प्राचीन भारत, चीन और मिस्र की सभ्यताओं में हो गया था। सचल लालटेन का विकास रेलवे के साथ उन्नीसवीं सदी में हुआ।
राजस्थान पत्रिका के सप्लीमेंट मी नेक्स्ट के कॉलम नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित
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