इन दिनों कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन से जुड़े कुछ सदस्यों के इस्तीफों के कारण दल-बदल कानून का मसला फिर से उठा है. इन्होंने विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया है, पर पीठासीन अधिकारी ने इन इस्तीफों पर अपना कोई फैसला नहीं सुनाया है. देश में दल-बदल की बीमारी भी उतनी ही पुरानी है, जितना पुराना हमारा लोकतंत्र है. सन 1950 में जब भारतीय लोकतंत्र जन्म ही ले रहा था, उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 23 विधायकों ने पार्टी छोड़कर जन कांग्रेस के नाम से अलग पार्टी बनाई, पर यह समस्या के रूप में बड़े स्तर पर पहली बार यह बात 1967 के आम चुनाव के बाद सामने आई. उस साल जिन 16 राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव हुए, उनमें से 8 में कांग्रेस ने बहुमत खो दिया और 7 में सरकार बनाने में असमर्थ रही. इसके साथ गठबंधन राजनीति की शुरुआत भी हुई, पर सबसे महत्वपूर्ण बात थी दल-बदल की प्रवृत्ति. सन 1967 से 1971 के बीच के चार वर्षों में देश की संसद में दल-बदल के 142 और राज्यों की विधानसभाओं में 1969 मामले हुए. 32 सरकारें गिरीं और बनीं और 212 दल-बदलुओं को मंत्रिपद मिले. मुख्यमंत्री पद पाने तक के लिए दल-बदल हुए. हरियाणा विधानसभा के एक सदस्य गया लाल ने एक पखवाड़े में तीन बार दल बदला और भारतीय राजनीति में ‘आया राम, गया राम’ की प्रसिद्ध लोकोक्ति उनके कारण ही जुड़ी.
कानून कब बना?
लम्बे समय तक देश में चर्चा के बाद सन 1985 में 52वें संविधान संशोधन के तहत दल-बदल कानून लाया गया, जिसके अंतर्गत संविधान में दसवीं अनुसूची जोड़ी गई, जिसमें दल परिवर्तन के आधार पर सदस्यों की निरर्हता के बारे में प्रक्रिया बताई गई है. पहले इस कानून के तहत व्यवस्था की गई थी कि यदि किसी दल के सदस्यों में से एक तिहाई दल छोड़कर दूसरे दल में जाना चाहें, तो उसे विलय माना जा सकता है. सन 2003 में संविधान के 91 वें संशोधन के बाद पार्टियों के विलय के लिए एक तिहाई के बजाय दो तिहाई सदस्यों वाली व्यवस्था लागू हो गई.
अदालती हस्तक्षेप?
मूल कानून में व्यवस्था थी कि इस सिलसिले में पीठासीन अधिकारी के निर्णय को अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती. पर सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में किहोता होलोहन बनाम जाचिल्हू मामले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि इन मामलों की न्यायिक समीक्षा सम्भव है. साथ ही अदालत ने यह भी कहा कि जब तक पीठासीन अधिकारी आदेश जारी नहीं करते, अदालत हस्तक्षेप नहीं करेगी. पीठासीन अधिकारी अपना फैसला करने में कितना समय लेंगे, इसकी कोई समय सीमा नहीं है. हाल में कर्नाटक में सदस्यों के इस्तीफे का विवाद सुप्रीम कोर्ट तक गया है. अदालत ने सदस्यों के इस्तीफे पर फैसला करने के स्पीकर के अधिकार को स्वीकार किया है, पर 17 जुलाई को फैसला किया कि शक्ति परीक्षण के दौरान बागी विधायक अनुपस्थित रह सकते हैं.
प्रभात खबर अवसर में प्रकाशित