Thursday, January 16, 2020

दफा 144 क्या होती है?


अपराध प्रक्रिया संहिता-1973 या सीआरपीसी की धारा 144 इन दिनों देशव्यापी आंदोलनों के कारण खबरों में है. गत वर्ष अगस्त के महीने से जम्मू कश्मीर में लगाई गई पाबंदियों के सिलसिले में फैसला सुनाते हुए 10 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 144 का इस्तेमाल किसी के विचारों को दबाने के लिए नहीं किया जा सकता. अदालत ने कहा कि इस धारा का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता है, और लंबे समय तक के लिए नहीं लगा सकते हैं, इसके लिए जरूरी तर्क होना चाहिए. सामान्यतः जब किसी इलाके में कानून-व्यवस्था बिगड़ने का अंदेशा हो, तो इस धारा को लागू किया जाता है. इसे लागू करने के लिए मजिस्ट्रेट या प्राधिकृत अधिकारी एक अधिसूचना जारी करता है. जिस जगह भी यह धारा लगाई जाती है, वहां तीन या उससे ज्यादा लोग जमा नहीं हो सकते हैं. मोटे तौर पर इसका इस्तेमाल सभाएं करने या लोगों को जमा करने से रोकना है. उस स्थान पर हथियारों के लाने ले जाने पर भी रोक लगा दी जाती है. इसका उल्लंघन करने वाले को गिरफ्तार किया जा सकता है, जिसमें एक साल तक की कैद की सजा भी हो सकती है. यह एक ज़मानती अपराध है, जिसमें जमानत हो जाती है.
कितने समय के लिए लगती है?
धारा-144 को दो महीने से ज्यादा समय तक नहीं लगाया जा सकता है, पर यदि राज्य सरकार को लगता है कि व्यवस्था बनाए रखने के लिए इसकी जरूरत है तो इसकी अवधि को बढ़ाया जा सकता है. इस स्थिति में भी इसे छह महीने से ज्यादा समय तक इसे नहीं लगाया जा सकता है. इस कानून को अतीत में कई बार अदालतों में चुनौती दी गई है. यह धारा अंग्रेजी राज की देन है और सबसे पहले सन 1861 में इसका इस्तेमाल किया गया था. इस धारा की आलोचना में यह बात कही जाती है कि इसका उद्देश्य जो भी हो, पर प्रशासन इसका दुरुपयोग करता है.
अदालतों में चुनौती दी गई?
सन 1939 में अर्देशिर फिरोज शॉ बनाम अनाम मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट की आलोचना की थी. सन 1961 के बाबूलाल पराटे बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट के पाँच सदस्यों की बेंच ने इस कानून को रद्द करने से इनकार कर दिया था. सन 1967 में समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ने इसे चुनौती दी, पर अदालत ने कहा, यदि सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने की खुली छूट दे दी जाएगा, तो कोई भी लोकतंत्र बचा नहीं रहेगा. सन 1970 में मधु लिमये बनाम सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट मामले में भी अदालत ने इसे रद्द करने से इनकार कर दिया. सन 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन सरकार की इस बात के लिए आलोचना की थी कि पुलिस ने रामलीला मैदान में सोते हुए लोगों की पिटाई की थी.


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