भारत में संघीय
राज-व्यवस्था है. यह व्यवस्था तीन स्तर पर काम करती है. मूलतः पहले यह द्विस्तरीय
थी. केन्द्र, राज्य और केन्द्र शासित क्षेत्र. सन 1992 के 73वें और 74वें संविधान
संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग बन गया है. संविधान
के अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व-संग्रहण और वितरण की
व्यवस्था है. अनुच्छेद 280 के तहत भारत के राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करते हैं,
जिसका उद्देश्य राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व के वितरण की व्यवस्था पर विचार
करना है. हाल में 15वें वित्त आयोग कार्य ने अपनी प्राथमिक रिपोर्ट दी है. गत 1
फरवरी को आम बजट पेश करते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने घोषणा की कि आयोग की
सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया है. पंद्रहवें वित्त आयोग ने विभाजन योग्य
केंद्रीय करों की राशि में वित्त वर्ष 2020-21 में राज्यों के लिए 41 प्रतिशत कर
हिस्सेदारी की सिफारिश की है. इसके साथ ही आयोग ने नवगठित संघ शासित प्रदेशों
जम्मू-कश्मीर और लद्दाख को एक प्रतिशत हिस्सा देने का सुझाव दिया है. इस तरह उसने
पिछले आयोग के वितरण फॉर्मूले में राज्यों के हिस्से में एक फीसदी की कमी की है,
पर कुल मिलाकर अनुपात वही है. आयोग इस साल बाद में 2021-22 से पांच साल के लिए
अपनी अंतिम रिपोर्ट राष्ट्रपति को सौंपेगा.
रिपोर्ट पर विवाद
क्या है?
विवाद के पीछे राजस्व वितरण के बारे में 15वें आयोग के दो सैद्धांतिक आधार
हैं. एक है जनसंख्या के 1971 के आँकड़ों के बजाय नवीनतम जनसंख्या को आधार बनाना,
जिसके कारण दक्षिण के राज्यों को नुकसान होगा. दूसरे आयोग का यह सुझाव है कि धन
वितरण के पहले रक्षा कोष की राशि को अलग कर लिया जाए. आयोग ने फिलहाल इस दूसरे
सुझाव को स्थगित कर दिया है, पर जनसांख्यिकीय आँकड़ों को लेकर दक्षिण में
आपत्तियाँ हैं. दक्षिण के राज्यों की जनसंख्या वृद्धि दर उत्तर के मुकाबले कम है,
पर जब जनसंख्या के आधार पर धन वितरण होता है, तो उन्हें कम संसाधन मिलते हैं. 15वें वित्त आयोग ने कहा
है कि अब सन 2011 के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.
समाधान क्या है?
14वें वित्त आयोग
का भी सुझाव था कि आबादी के पुराने आंकड़ों का इस्तेमाल करना उचित नहीं है, पर
उसने एक तरीका सुझाया था. उसके अनुसार यह भी देखा जाना चाहिए कि उत्तर के अनेक लोग
अस्थायी या स्थायी तौर पर उच्च आय वाले राज्यों में रहने चले जाते हैं. इसलिए आबादी
के भार और जनसांख्यिकीय बदलाव के संकेतकों को अलग-अलग पेश किया जाना चाहिए. परेशानी
केवल राजस्व वितरण को लेकर ही नहीं है. दक्षिण भारत के राज्यों में इस बात को लेकर
चिंता है कि भविष्य में लोकसभा की सीटों का परिसीमन होने पर उत्तर की राजनीतिक
शक्ति बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी. सन 2002 में हुए 84वें संविधान संशोधन के अनुसार
संसदीय क्षेत्रों का परिसीमन 2026 तक टल गया है, पर जब भी होगा, ये सवाल उठेंगे.
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