जीन्स (jeans) जो फैशन के तौर पर पहने जाते हैं, इनकी शुरुआत कब, कहाँ,और किस उद्देश्य से हुई?
हितेन्द्र कुमार शर्मा झाब, सांचोर
जीन्स का पहनावा मूल रूप से मेहनतकशों और कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों और नाविकों से ताल्लुक रखता है। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में कामगारों और नाविकों के लिए ऐसे परिधानों की ज़रूरत महसूस की गई जो मजबूत हों और देर से फटें। 16 वीं सदी में यूरोप ने भारतीय मोटा सूती कपडा़ मँगाना शुरू किया, जिसे डुंगारी कहा जाता था। बाद मे इसे नील के रंग में रंग कर मुंबई के डोंगारी किले के पास बेचा गया था। नाविकों ने इसे अपने अनुकूल पाया और इससे बनी पतलूनें वे पहनने लगे। कंधे से लेकर पाजामे तक का यह परिधान डंगरी कहलाता है। लगभग ऐसा ही परिधान कार्गो सूट होता है, जिसे नाविक और वायुसेवाओं के कर्मचारी पहनते हैं।
डंगरी के कपड़े और जीन्स में फर्क यह होता है कि जहाँ डंगरी में धागा रंगीन होता है वहीं जीन्स वस्त्र को तैयार करने के बाद रंगा जाता है। आमतौर पर जीन्स नीले, काले और ग्रे के शेड़्स में होते हैं। इन्हें जिस नील से रंगा जाता था वह भारत या अमेरिका से आता था। पर जीन्स का जन्म यूरोप में हुआ। सन 1600 की शुरुआत मे इटली के कस्बे ट्यूरिन के निकट चीयरी में जीन्स वस्त्र का उत्पादन किया गया। इसे जेनोवा के हार्बर के माध्यम से बेचा गया था, जेनोवा एक स्वतंत्र गणराज्य की राजधानी थी जिसकी नौसेना काफी शक्तिशाली थी। इस कपडे़ से सबसे पहले जेनोवा की नौसेना के नाविको की पैंट बनाई गईं। नाविको को ऐसी पैंट की ज़रूरत थी जिन्हें सूखा या गीला भी पहना जा सके तथा जिनके पौचों को पोत के डेक की सफाई के समय उपर को मोडा़ जा सके। इन जीन्सों को सागर के पानी से एक बडे़ जाल में बाँध कर धोया जाता था। समुद्र के पानी उनका रंग उडा़कर उन्हें सफेद कर देता था। इस तरह कई लोगों के अनुसार जीन्स नाम जेनोवा पर पडा़ है। जीन्स बनाने के लिए कच्चा माल फ्रांस के निम्स शहर से आता था जिसे फ्रांसीसी मे दे निम कहते थे इसीलिए इसके कपडे़ का नाम डेनिम पड़ गया।
उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में सोने की खोज का काम चला। उस दौर को गोल्ड रश कहते हैं। सोने की खानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए भी मजबूत कपड़ों के परिधान की ज़रूरत थी। सन 1853 में लेओब स्ट्रॉस नाम के एक व्यक्ति ने थोक में वस्त्र सप्लाई का कारोबार शुरू किया। लेओब ने बाद में अपना नाम लेओब से बदल कर लेवाई स्ट्रॉस कर दिया। लेवाई स्ट्रॉस को जैकब डेविस नाम के व्यक्ति ने जीन्स नामक पतलून की पॉकेटों को जोड़ने के लिए मेटल के रिवेट इस्तेमाल करने की राय दी। डेविस इसे पेटेंट कराना चाहता था, पर इसके लिए उसके पास पैसा नहीं था। 1873 में लेवाई स्ट्रॉस ने कॉपर के रिवेट वाले ‘वेस्ट ओवरऑल’ बनाने शुरू किए। तब तक अमेरिका में जीन्स का यही नाम था। 1886 में लेवाई स्ट्रॉस ने इस पतलून पर चमड़े के लेबल लगाने शुरू कर दिए। इन लेबलों पर दो घोड़े विपरीत दिशाओं में जाते हुए एक पतलून को खींचते हुए दिखाई पड़ते थे। इसका मतलब था कि पतलून इतनी मजबूत है कि दो घोड़े भी उसे फाड़ नहीं सकते। बीसवीं सदी में हॉलीवुड की काउब्वॉय फिल्मों ने जीन्स को काफी लोकप्रिय बनाया। पर यह फैशन में बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही आई।
जीन्स का पहनावा मूल रूप से मेहनतकशों और कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों और नाविकों से ताल्लुक रखता है। औद्योगीकरण के बाद यूरोप में कामगारों और नाविकों के लिए ऐसे परिधानों की ज़रूरत महसूस की गई जो मजबूत हों और देर से फटें। 16 वीं सदी में यूरोप ने भारतीय मोटा सूती कपडा़ मँगाना शुरू किया, जिसे डुंगारी कहा जाता था। बाद मे इसे नील के रंग में रंग कर मुंबई के डोंगारी किले के पास बेचा गया था। नाविकों ने इसे अपने अनुकूल पाया और इससे बनी पतलूनें वे पहनने लगे। कंधे से लेकर पाजामे तक का यह परिधान डंगरी कहलाता है। लगभग ऐसा ही परिधान कार्गो सूट होता है, जिसे नाविक और वायुसेवाओं के कर्मचारी पहनते हैं।
डंगरी के कपड़े और जीन्स में फर्क यह होता है कि जहाँ डंगरी में धागा रंगीन होता है वहीं जीन्स वस्त्र को तैयार करने के बाद रंगा जाता है। आमतौर पर जीन्स नीले, काले और ग्रे के शेड़्स में होते हैं। इन्हें जिस नील से रंगा जाता था वह भारत या अमेरिका से आता था। पर जीन्स का जन्म यूरोप में हुआ। सन 1600 की शुरुआत मे इटली के कस्बे ट्यूरिन के निकट चीयरी में जीन्स वस्त्र का उत्पादन किया गया। इसे जेनोवा के हार्बर के माध्यम से बेचा गया था, जेनोवा एक स्वतंत्र गणराज्य की राजधानी थी जिसकी नौसेना काफी शक्तिशाली थी। इस कपडे़ से सबसे पहले जेनोवा की नौसेना के नाविको की पैंट बनाई गईं। नाविको को ऐसी पैंट की ज़रूरत थी जिन्हें सूखा या गीला भी पहना जा सके तथा जिनके पौचों को पोत के डेक की सफाई के समय उपर को मोडा़ जा सके। इन जीन्सों को सागर के पानी से एक बडे़ जाल में बाँध कर धोया जाता था। समुद्र के पानी उनका रंग उडा़कर उन्हें सफेद कर देता था। इस तरह कई लोगों के अनुसार जीन्स नाम जेनोवा पर पडा़ है। जीन्स बनाने के लिए कच्चा माल फ्रांस के निम्स शहर से आता था जिसे फ्रांसीसी मे दे निम कहते थे इसीलिए इसके कपडे़ का नाम डेनिम पड़ गया।
उन्नीसवीं सदी में अमेरिका में सोने की खोज का काम चला। उस दौर को गोल्ड रश कहते हैं। सोने की खानों में काम करने वाले मजदूरों के लिए भी मजबूत कपड़ों के परिधान की ज़रूरत थी। सन 1853 में लेओब स्ट्रॉस नाम के एक व्यक्ति ने थोक में वस्त्र सप्लाई का कारोबार शुरू किया। लेओब ने बाद में अपना नाम लेओब से बदल कर लेवाई स्ट्रॉस कर दिया। लेवाई स्ट्रॉस को जैकब डेविस नाम के व्यक्ति ने जीन्स नामक पतलून की पॉकेटों को जोड़ने के लिए मेटल के रिवेट इस्तेमाल करने की राय दी। डेविस इसे पेटेंट कराना चाहता था, पर इसके लिए उसके पास पैसा नहीं था। 1873 में लेवाई स्ट्रॉस ने कॉपर के रिवेट वाले ‘वेस्ट ओवरऑल’ बनाने शुरू किए। तब तक अमेरिका में जीन्स का यही नाम था। 1886 में लेवाई स्ट्रॉस ने इस पतलून पर चमड़े के लेबल लगाने शुरू कर दिए। इन लेबलों पर दो घोड़े विपरीत दिशाओं में जाते हुए एक पतलून को खींचते हुए दिखाई पड़ते थे। इसका मतलब था कि पतलून इतनी मजबूत है कि दो घोड़े भी उसे फाड़ नहीं सकते। बीसवीं सदी में हॉलीवुड की काउब्वॉय फिल्मों ने जीन्स को काफी लोकप्रिय बनाया। पर यह फैशन में बीसवीं सदी के आठवें दशक में ही आई।
यूरोज़ोन संकट क्या है?देवेन्दर सिंह, bhativikassingh@gmail.com, सूरतगढ़
यूरोपीय संघ अपने किस्म का सबसे बड़ा राजनीतिक-आर्थिक संगठन है। 27 देशों के इस संगठन की एक संसद है। और एक मुद्रा भी, जिसे 17 देशों ने स्वीकार किया है। इस मुद्रा का नाम है यूरो। यूरो को स्वीकार करने वाले देशों के नाम हैं ऑस्ट्रिया, बेल्जियम, सायप्रस, एस्तोनिया, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, ग्रीस, आयरलैंड, इटली, लक्ज़ेम्बर्ग, माल्टा, नीदरलैंड्स, पुर्तगाल, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, स्पेन। दूसरे विवश्वयुद्ध के बाद इन देशों के राजनेताओं ने सपना देखा था कि उनकी मुद्रा यूरो होगी। सन 1992 में मास्ट्रिख्ट संधि के बाद यूरोपीय संघ के भीतर यूरो नाम की मुद्रा पर सहमति हो गई। इसे लागू होते-होते करीब दस साल और लगे। इसमें सारे देश शामिल भी नहीं हैं। यूनाइटेड किंगडम का पाउंड स्टर्लिंग स्वतंत्र मुद्रा बना रहा। मुद्रा की भूमिका केवल विनिमय तक सीमित नहीं है। यह अर्थव्यवस्था को जोड़ती है। अलग-अलग देशों के बजट घाटे, मुद्रास्फीति और ब्याज की दरें इसे प्रभावित करती हैं। समूचे यूरोप की अर्थव्यवस्था एक जैसी नहीं है। दुनिया की अर्थव्यवस्था इन दिनों दो प्रकार के आर्थिक संकटों से घिरी है। एक है आर्थिक मंदी और दूसरा यूरोज़ोन का संकट। दोनों एक-दूसरे से जुड़े हैं। यूरोज़ोन के ज्यादातर देश इन दिनों कर्ज में डूबे हुए हैं। मसलन ग्रीस सरकार पर आय के मुकाबले 113 फीसदी कर्ज हो गया। यूरोपीय बैंक और यूरोपीय संघ के दबाव के कारण प्रायः सभी देश किफायतशारी यानी ऑस्टैरिटी में लगे हैं। पिछले साल यूरोज़ोन के वित्त मंत्रियों ने मिलकर 500 अरब यूरो का एक स्थायी बेलआउट कोष बनाया है। ग्रीस, आयरलैंड, पुर्तगाल, स्पेन और इटली जैसे देश भुगतान के संकट से घिरे हैं। फ्रांस भी आर्थिक मंदी का शिकार है। जर्मनी की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर है, पर वह भी धीरे-धीरे शून्य विकास की ओर बढ़ रहा है। दिक्कत यह है कि यूरोप के अलग-अलग इलाके अलग-अलग किस्म की परेशानियों के शिकार हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने 10 अक्तूबर को तोक्यो में वैश्विक वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट जारी की। इसमें कहा गया है कि वैश्विक वित्तीय बाज़ार में सबसे मुख्य जोखिम यूरो ज़ोन में रहा है। हाल के महीनों में यूरोप के नीति-निर्धारकों द्वारा कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाने से कुछ हद तक बाजार में स्थिरता आई है। लेकिन वित्तीय बाज़ार की स्थिरता कायम रखने के लिए और अधिक कदम उठाने की ज़रूरत है। ब्रिक्स दल में शामिल पाँच देशों ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिणी अफ़्रीका ने घोषणा की है कि वे अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के खजाने को भरने के लिए 75 अरब डॉलर देने को तैयार हैं। इस वर्ष जून में मैक्सिको में हुए जी-20 के शिखर-सम्मेलन में यह घोषणा की गई। यूरोपीय संकट का समाधान करने के लिए चीन सबसे ज़्यादा मदद देने को तैयार है। उसने 43 अरब डॉलर देने की इच्छा दिखाई। रूस, भारत और ब्राज़ील ने इसके लिए दस-दस अरब डॉलर देने पर सहमति व्यक्त की। दक्षिणी अफ़्रीका भी 2 अरब डॉलर देने के लिए तैयार है।
भारतीय रुपए की तुलना हमेशा अमेरिकी डॉलर से क्यों की जाती है?
त्रिलोक नायक, triloknayak07@gmail.com
आप चाहें तो इसकी तुलना किसी दूसरी करेंसी से भी कर सकते है, पर चूंकि दुनिया में सबसे मजबूत करेंसी इस वक्त डॉलर है, इसलिए आमतौर पर तुलना डॉलर से की जाती है। दुनिया की मजबूत मुद्राओं को हार्ड करेंसी कहते हैं। डॉलर के अलावा विश्व में यूरो, पौंड स्टर्लिंग, जापानी येन और स्विस फ्रैंक को हार्ड करेंसी की श्रेणी में रख सकते हैं। इन करेंसियों के मार्फत दुनिया के तमाम देश एक-दूसरे से व्यापार करते हैं। इस वक्त दुनिया के ज्यादातर देशों के पास मुद्रा कोष के नाम पर सबसे बड़ा भंडार डॉलर का है। हमारे देश में भी जब विदेशी मुद्रा कोष की बात होती है तो डॉलर का नाम ही लिया जाता है।
मोबाइल जेमर कैसे काम करता है?
पहले यह समझ लें कि फोन जैमर की ज़रूरत क्यों होती है। इसकी ज़रूरत या तो सुरक्षा कारणों से होती है या अस्पताल जैसी जगह पर जहाँ शांति की ज़रूरत हो। आपने देखा होगा पिछले दिनों चुनाव के दिन भी मोबाइल सेवाएं ब्लॉक की गईं। कई बार पुलों और रक्षा संस्थानों के आसपास फोन जैम हो जाते हैं। उस इलाके से बाहर आने पर फोन फिर से काम करने लगते हैं। युद्ध के समय सीमा पर रेडियो जैमिंग की जाती है ताकि शत्रु के रेडियो संदेश न जा सकें। फोन जैमिंग एक प्रकार से रेडियो जैमिंग है। इसमें जैमिंग डिवाइस उसी फ्रीक्वेंसी पर रेडियो तरंगे प्रवाहित करते हैं, जिसपर आमतौर से फोन डिवाइस काम कर रही हैं। इससे फोन सेवाओं में व्यवधान पैदा हो जाता है और कुछ देर के लिए टावर से सम्पर्क टूट जाता है। इस इलाके से बाहर आने पर सेवा फिर से शुरू हो जाती है।
की-बोर्ड पर अक्षर क्रमवार क्यों नहीं?
मनोज शर्मा, सीकर
की-बोर्ड में अक्षरों को बेतरतीब लगाने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वर्णमाला के सारे अक्षरों का समान इस्तेमाल नहीं होता। चूंकि टाइप करने के लिए दोनों हाथों की उंगलियों का इस्तेमाल होता है, इसलिए ऐसी कोशिश की जाती है कि उंगलियों को कम मेहनत करनी पड़े। अंग्रेजी में सबसे ज्यादा क्वर्टी (QWERTY) की-बोर्ड चलता है। यह क्वर्टी की-बोर्ड में अंकों की पंक्ति के नीचे बनी अक्षरों की पहली पंक्ति के पहली छह की हैं। इस की-बोर्ड को सबसे पहले 1874 में अमेरिकी सम्पादक क्रिस्टोफर शोल्स ने पेटेंट कराया जो टाइपराइटर के विकास के काम से भी जुड़े थे। टाइप रायटर कम्पनी रेमिंग्टन ने इस पेटेंट को उसी साल खरीद लिया। तब से अब तक इसमें एकाध बदलाव हुए हैं। यह की-बोर्ड अब दुनिया भर का मानक बन गया है। इसके अलावा भी की-बोर्ड हैं, पर वे विशेष काम के लिए ही इस्तेमाल में आते हैं। कम्प्यूटर के 101/102 की वाले बोर्ड को सन 1982 में मार्क टिडेंस ने तैया किया। इसमें भी बदलाव हो रहे हैं क्योंकि कम्प्यूटर का इस्तेमाल बदलता जा रहा है। हिन्दी में रेमिंग्टन, फोनेटिक, लिंग्विस्ट, लाइनोटाइप, देवनागरी, इनस्क्रिप्ट नाम से कई की-बोर्ड प्रचलित हैं। इनमें किसी एक के मानक न होने से हिन्दी टाइप करने वालों के सामने दिक्कतें आती हैं।
हावड़ा ब्रिज क्या है? इसके बारे में विस्तार से जानकारी दीजिए।
नवीन कुमार फलवारिया, सुजानगढ़, राजस्थान
सत्तर साल से भी पहले निर्मित हावड़ा ब्रिज इंजीनियरिंग का चमत्कार है। यह विश्व के व्यस्ततम कैंटीलीवर ब्रिजों में से एक है। कोलकाता और हावड़ा को जोड़ने वाले इस पुल जैसे अनोखे पुल संसार भर में केवल गिने-चुने ही हैं। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में कोलकाता और हावड़ा के बीच बहने वाली हुगली नदी पर एक तैरते हुए पुल के निर्माण की परिकल्पना की गई। तैरते हुआ पुल बनाने का कारण यह था कि नदी में रोजाना काफी जहाज आते-जाते थे। खम्भों वाला पुल बनाते तो जहाजों का आना-जाना रुक जाता। अंग्रेज सरकार ने सन् 1871 में हावड़ा ब्रिज एक्ट पास किया, पर योजना बनने में बहुत वक्त लगा। पुल का निर्माण सन् 1937 में ही शुरू हो पाया। सन् 1942 में यह बनकर पूरा हुआ। इसे बनाने में 26,500 टन स्टील की खपत हुई। इसके पहले हुगली नदी पर तैरता पुल था। पर नदी में पानी बढ़ जाने पर इस पुल पर जाम लग जाता था। इस ब्रिज को बनाने का काम जिस ब्रिटिश कंपनी को सौंपा गया उससे यह ज़रूर कहा गया था कि वह भारत में बने स्टील का इस्तेमाल करेगा। टिस्क्रॉम नाम से प्रसिद्ध इस स्टील को टाटा स्टील ने तैयार किया। इसके इस्पात के ढाँचे का फैब्रिकेशन ब्रेथवेट, बर्न एंड जेसप कंस्ट्रक्शन कम्पनी ने कोलकाता स्थित चार कारखानों में किया। 1528 फुट लंबे और 62 फुट चौड़े इस पुल में लोगों के आने-जाने के लिए 7 फुट चौड़ा फ़ुटपाथ छोड़ा गया था। सन् 1943 में इसे आम जनता के उपयोग के लिए खोल दिया गया। हावड़ा और कोलकाता को जोड़ने वाला हावड़ा ब्रिज जब बनकर तैयार हुआ था तो इसका नाम था न्यू हावड़ा ब्रिज। 14 जून 1965 को गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के नाम पर इसका नाम रवींद्र सेतु कर दिया गया पर प्रचलित नाम फिर भी हावड़ा ब्रिज ही रहा। इसपर पूरा खर्च उस वक्त की कीमत पर ढाई करोड़ रुपया (24 लाख 63,887 पौंड)आया। इस पुल से होकर पहली बार एक ट्रामगाड़ी चली थी।
नीम कड़वा क्यों होता है?
नीम के तीन कड़वे तत्वों को वैज्ञानिकों ने अलग निकाला है, जिन्हें निम्बिन, निम्बिडिन और निम्बिनिन नाम दिए हैं। सबसे पहले 1942 में भारतीय वैज्ञानिक सलीमुज़्ज़मा सिद्दीकी ने यह काम किया। वे बाद में पाकिस्तान चले गए थे। नाम का यह कड़वा तत्व एंटी बैक्टीरिया, एंटी वायरल होता है और कई तरह के ज़हरों को ठीक करने का काम करता है। नीम का सम्पूर्ण भाग कड़वा होता है, किन्तु कोई भी भाग अनुपयोगी नहीं होता। इसकी जड़, छाल, पत्ते, फूल, फल, गोंद, मद, सींक, टहनी एवं लकड़ी और इसकी छाया तथा इससे छनकर आने वाली हवा, सभी में कृषि, स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए लाभकर हैं। उपयोगिता के मामले में यह एक प्रकार से भारतीय ग्रामीण औषधालय है। भारत के अलावा बांग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार तथा पश्चिमी अफ्रीकी देशों का यह घरेलू वृक्ष है। नीम की पत्तियों में 12.40 से 18.27 प्रतिशत तक क्रूड प्रोटीन, 11.40 से 23.08 प्रतिशत तक क्रूड फाइबर, 48 से 51 प्रतिशत तक कार्बोहाइड्रेट्स, 46.32 से 66.66 प्रतिशत तक नाइट्रोजन मुक्त अर्क, 2.27 से 6.24 प्रतिशत तक अन्य अर्क, 0.89 से 3.96 प्रतिशत तक कैल्शियम, 0.10 से 0.30 प्रतिशत तक फास्फोरस और 2.3 से 6.9 प्रतिशत तक वसा पाया जाता है। इसमें लोहा तथा विटामिन `ए' की मात्रा भी पर्याप्त होती है। नीम छाल में फास्फोरस, शर्करा, कांसी तथा गंधक काफी मात्रा में पाया जाता है। नीम फल का गूदा मीठा, हल्का खुमारी लिए होता है। इसके बीज के तेल में स्टिऑरिक एसिड, ओलेक एसिड तथा लारिक एसिड पाए जाते हैं। इस तेल का अंग्रेजी नाम मार्गोसा है।
टेलीविज़न की टीआरपी से टीवी एक्टरों और प्रोड्यूसरों को कैसे फायदा होता है?
प्रीति कुमावत, सीकर
टीआरपी का मतलब है कार्यक्रमों की लोकप्रियता। यदि कार्यक्रम लोकप्रिय होगा तभी तो उसे पेश किया जाएगा। एक लोकप्रिय कार्यक्रम के प्रोड्यूसर और कलाकारों को उस लोकप्रियता के सहारे दूसरे कार्यक्रम बनाने को मिलेंगे। यह तो एक प्रकार का कारोबार है।
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