आप एक मेज की कल्पना करें.
उसके पाए लकड़ी को काटकर बनाए जाते हैं. फिर ऊपर का तख्ता अलग से काटा जाता है.
इसी तरह उसके अलग-अलग हिस्से काटकर बनाए जाते हैं. फिर उन्हें जोड़ा जाता है. इसी
मेज को छोटे से आकार में लकड़ी के बजाय मोम से बनाना हो तो आप एक सांचा बनाएंगे,
फिर उसमें गर्म करके मोम भरेंगे. फिर ठंडा होने के बाद सांचे को हटा देंगे तो मोम
की मेज बनी मिलेगी. सवाल है कि क्या लकड़ी की मेज इसी तरह नहीं बनाई जा सकती? इसके कई जवाब हैं. यदि लकड़ी को मोम की तरह पिघलाया जा सकता तो बन सकती थी.
या फिर लकड़ी के बड़े टुकड़े को काट-तराश कर मेज निकाली जा सकती है. जैसे
मूर्तिकार पत्थर से तराश कर मूर्ति बनाते हैं.
प्रभात खबर नॉलेज में प्रकाशित
विज्ञान इसके आगे सोचना शुरू करता है. क्या मेज को पेड़ की तरह उगाया जा सकता
है? पेड़ उगता है तो उसका आकार उसी तरह से बनता जाता है जैसा प्रकृति ने तय किया.
उसके जैसे ज्यादातर पेड़, पौधे, फूल इसी तरह जन्म लेते हैं. वैज्ञानिकों ने अपने
ज्ञान का इस्तेमाल करके इन पेड़-पौधों के साथ प्रयोग करके उनके रंग-रूप और
शक्लो-सूरत में भी बदलाव कर लिया. पर यह उगाना था. किसी चीज को उगाने के लिए जिस
सामग्री की जरूरत होती है उसे परिभाषित किया जाए तो वह आपकी इच्छानुसार उग सकती है.
सिंथेटिक बायलॉजी
किसी चीज को गढ़ना एक बात है और उगाना दूसरी बात. क्या दोनों बातें एक साथ हो
सकती है? इसकी शुरुआत शायद प्लास्टिक सर्जरी से हुई थी. लम्बे अरसे से प्लास्टिक सर्जरी
से जुड़े विशेषज्ञ शरीर के टिश्यूज़ का इस्तेमाल करके जली हुई खाल की जगह नई चमड़ी
उगाते रहे हैं. कटे हाथ और पैर जोड़कर, स्नायु तंत्रों में जान डालकर मरीज को नया
जीवन देते रहे हैं.
सिंथेटिक बायलॉजी के नाम से विज्ञान की एक नई शाखा तैयार हो गई है, जो जीव
विज्ञान और इंजीनियरी का मिला-जुला कारनामा है. इसके साथ बायो टेक्नोलॉजी,
इवोल्यूशनरी बायलॉजी, म़ॉलीक्यूलर बायलॉजी, बायोफिजिक्स, कम्प्यूटर इंजीनियरिंग और
जेनेटिक इंजीनियरिंग जैसी तमाम नई शाखाएं विकसित होती जा रहीं हैं. इसी
ज्ञान-विज्ञान की देन है 3डी प्रिंटिंग तकनीक.
हम जिस दुनिया में रहते हैं उसका काफी काम टू-डी है. डी माने ‘डायमेंशन.’ आप
इस अख़बार को पढ़ रहे हैं, जो टू-डी है. आप दीवार पर टंगी किसी तस्वीर को देखते
हैं, तो वह सपाट नजर आती है, क्योंकि उसमें दो ही डायमेंशन होते हैं- लंबाई और चौड़ाई. गहराई नहीं होती,
उसका भ्रम होता है. ‘गहराई’ ही वह ‘तीसरा डायमेंशन’ है जो दो डायमेंशन वाली बेजान सपाट
तस्वीरों को जीवंत बना देता है.
अख़बार टू-डी प्रिंटिंग में है. पर यदि कोई प्रिंटर गहराई के साथ भी प्रिंटिंग
करने लगे तो वह थी-डी प्रिंटर होगा. मसलन कोई प्रिंटर पेड़ तैयार कर दे तो उसे
थ्री-डी मानेंगे. पर हम जिस थ्री-डी प्रिंटर की बात कर रहे हैं, वह केवल थ्री-डी
नजर आने वाली चीज ही तैयार नहीं करता. यह काम तो कोई सांचा भी कर सकता है. हम जिस
थ्री-डी प्रिंटर की बात कर रहे हैं वह पूरी तरह से जीवंत या काम करने वाली चीज
बनाता है उसके पूरे गुणों के साथ.
किडनी ट्रांसप्लांट में थ्री-डी प्रिंटर
हाल में लंदन से खबर मिली कि एक किडनी ट्रांसप्लांट में थ्री-डी प्रिंटर की
मदद ली गई. यह ऐसा पहला मामला था. उत्तरी आयरलैंड के अंटरिम की रहने वाली तीन साल
की लूसी बाउचर को चार महीने पहले दिल का दौरा पड़ा था, जिसमें उसकी किडनी खराब हो
गई. उसे सुपरावेंट्रीक्यूलर टैकिकार्डिया नाम की बीमारी थी. उसे लंदन के सेंट थॉमस
और ग्रेट आर्म्ड हॉस्पिटल में डायलिसिस पर रखा गया था. डॉक्टरों ने किडनी
ट्रांसप्लांट की बात की. काफी प्रयासों के बाद भी जब कोई डोनर नहीं मिला तो उसके
पिता ने खुद की किडनी डोनेट करने की पहल की.
वयस्क पिता की किडनी इतनी छोटी बच्ची के शरीर में लगाने में दिक्कतें थीं.
इसलिए डॉक्टरों ने थ्री-डी प्रिंटर की मदद से लूसी को ट्रांसप्लांट करने का फैसला
किया. लूसी के पिता क्रिश कहते हैं "मैंने पहली बार जब अपनी किडनी के थ्री-डी
प्रिंट देखे तो एकदम से दंग रहा गया कि इतनी बड़ी किडनी लूसी को कैसे फिट होगी. बाद
में डॉक्टरों ने मुझे एक मॉडल बनाकर समझाया कि किस तरह किडनी को ट्रांसप्लांट किया
जाएगा. थ्री-डी प्रिंटर की यह नई भूमिका सामने आई है.
हाल में न्यूयॉर्क में जीसी स्टर्न नाम की एक लड़की के जबड़े से ट्यूमर
निकालने के लिए किए गए ऑपरेशन में थ्री-डी प्रिंटर की मदद ली गई. इसमें पूरा जबड़ा
ही तैयार किया गया. यदि थ्री-डी प्रिंटर की मदद न ली जाती तो इस काम के लिए तीन
बार ऑपरेशन करने होते, जिसमें 18 महीने का समय लगता. यह पूरा काम एक दिन में हो
गया. न्यूयॉर्क के एनवाईयू लैंगॉन के इंस्टीट्यूट ऑफ रिकंस्ट्रक्टिव प्लास्टिक
सर्जरी थ्री-डी प्रिंटिंग का इस्तेमाल काफी हो रहा है. सन 2015 में पहली बार
अमेरिका में थ्री-डी प्रिंटर की मदद से बनी नाक लगाई गई. कुछ साल पहले तक इस
प्रकार के प्रिंटर केवल प्लास्टिक का इस्तेमाल ही कर पाते थे. फिर टाइटैनियम पाउडर
का इस्तेमाल भी होने लगा. और अब शरीर के टिश्यूज़ भी इसमें शामिल हो गए हैं.
परत दर परत नैनो इंजीनियरी
यह थ्री-डी टेक्नोलॉजी महज ऑप्टिकल इल्यूजन यानी नजरों का धोखा ही नहीं है,
जैसाकि थ्री-डी सिनेमा में होता था. यह 'एडीटिव मैन्युफैक्चरिंग' है. परत के ऊपर परत बिछाकर किसी चीज की रचना करना. वह जड़ हो या चेतन. परत
चाहे टिश्यू की हो या धातु की. सामान्य प्रिंटर स्याही से छापने का काम करते हैं.
पर ये सामान्य प्रिंटर नहीं हैं, बल्कि कम्प्यूटर नियंत्रित मशीनें हैं जो पदार्थ
की परतों को नियंत्रित करती हैं. इस माने में प्रिंटर शब्द कई बार भ्रम भी पैदा
करता है.
मोटे तौर पर इन्हें प्रिंटर के बजाय रोबो कहना चाहिए. यह काम मनुष्य के हाथ से
नहीं हो सकता. इतनी जटिल रचना के लिए जबर्दस्त बारीकी पर नजर रखने वाले रोबो चाहिए
जो नैनो इंजीनियरी कर सकें. ये किसी भी आकार या ज्यामितीय रचना को गढ़ सकते हैं.
पर ज्यादा महत्वपूर्ण है शरीर के अंगों को गढ़ना. मरीज के शरीर के टिश्यू लेकर
उसकी खराब किडनी की जगह नई किडनी की रचना करना. यह बायो इंजीनियरी का अगला पड़ाव
है. इस तकनीक को आगे बढ़ाने में इंटरनेट की जबर्दस्त भूमिका होगी. अब किसी भी रचना
के ब्लू प्रिंट को दुनिया के किसी भी कोने में लगे थ्री-डी प्रिंटर तक भेजा जा
सकेगा. विशेषज्ञों का कहना है कि अगले एक दशक में ये मशीनें वैसे ही आम हो जाएंगी
जैसे कैटस्कैन मशीनें हैं.
खिलौनों से लेकर टॉफी तक
शरीर में पहनने वाले गहने-जेवर से लेकर खिलौने, फर्नीचर, परिधान, भोजन,
टॉफी-चॉकलेट सब कुछ इस तकनीक से बन सकते हैं. पर इतना ही नहीं है. अब इस तकनीक से
नकली हाथ, कान, नाक, उँगली और पैर तक बन सकते हैं. अगले कुछ वर्षों में नकली किडनी
और दिल भी बनने लगेंगे. मरीज के अपने सेल की मदद से एकदम असली. और तब अंग
प्रत्यारोपण की तकनीक क्रांति के एक नए दौर में प्रवेश करेगी.
इस प्रिंटर में स्टेम सेल की मदद से प्रयोगशाला में बनाई गई कोशिकाओं को कच्चे
माल की तरह इस्तेमाल किया जाएगा. वैज्ञानिकों ने एक खास नोजल विकसित करके इस दिशा
में मजबूत कदम बढ़ाए हैं. इस नोजल की मदद से प्रयोगशाला में मनुष्य के कान प्रिंट
करके तैयार कर लिए गए है. अब लिवर और हड्डियों को भी 'थ्री डी प्रिंटर' से बनाने की तैयारी है.
थ्री-डी से पुल बनेगा
जिस तरह से डिस्पेंसर मशीन में आइसक्रीम भरी जाती है, उसी तरह थ्री डी
प्रिंटर का नोजल उस वस्तु के पदार्थ की परत दर परत बिछाता जाता है. एक कंप्यूटर
प्रोग्राम यह तय करता है कि यह सब किस तरह होगा. अस्सी के दशक से यह तकनीक प्रचलन
में है, पर हाल के वर्षों में इसने सफलता की नई ऊँचाइयों को छू लिया है. अमेरिका
में थ्री डी प्रिंटर की मदद से पिस्तौलें और राइफलें बनाई जा रही हैं.
हॉलैंड की स्टार्ट अप कंपनी एमएक्स3डी ने प्रिंटर रोबोट के जरिए पूरा पुल बनाने
की योजना तैयार की है. एमएक्स3डी कंपनी धातु के जटिल और अब तक कल्पना से परे माने
जाने वाले ढांचे बनाने में सफल हुई है. इसी तकनीक का एक नमूना होगा स्टील से बना
पैदल पुल. इस पुल को एम्स्टर्डम के सेंटर में लगाया जाएगा. शहर की 200 नहरों पर
फिलहाल 1,200 पुल हैं, लेकिन प्रिंट करके बनने वाला यह दुनिया का पहला पुल होगा. 2017 की शुरुआत में एम्स्टर्डम
शहर में प्रिंटर यह पुल बनाना शुरू करेगा. तब तक एमएक्स3डी का रोबोट खुद को और
बेहतर करने की प्रैक्टिस करता रहेगा.
किडनी और लिवर बनेंगे
बायोमैटीरियल और सिंथेटिक
बायलॉजी का मतलब है जीवन को अपने अनुकूल ढालना. विज्ञान ने डीएनए में बदलाव करके
बीमारियों के इलाज के नए रास्ते खोल दिए हैं. इसे जेनोम संपादन भी कह सकते हैं.
कैंसर जैसी बीमारियों का इलाज शरीर खुद कर सके. इसे जीन थिरैपी कहते हैं. अमेरिका
के सैन डियागो में स्थित बायो थ्री-डी प्रिंटिंग फर्म ऑर्गनोवो ने पिछले साल बायोप्रिंटेड
किडनी टिश्यू जारी किए. इसके पहले यह कम्पनी लिवर टिश्यू तैयार कर चुकी है.
इसका मतलब है कि जल्द ही
यह कम्पनी प्रिंटर की मदद से किडनी और लिवर तैयार कर सकेगी. यह लिवर अभी इंसान के
शरीर में लगाया नहीं जा सकेगा. अभी इसका इस्तेमाल औषधियों के विकास में किया जाएगा,
पर इतना तय है कि इनसान ने लिवर टिश्यूज़ का
इस्तेमाल करके एक पूरा लिवर बनाने में सफलता हासिल कर ली है.
ईश्वर के काम में
हस्तक्षेप
सिंथेटिक बायलॉजी के साथ कई तरह के नैतिक सिद्धांत भी जुड़े हैं. वस्तुतः यह
ईश्वर या प्रकृति के काम में इंसान का सबसे बड़ा हस्तक्षेप है. कुछ साल पहले तक
अमेरिका में इस बात को लेकर जबर्दस्त बहस थी और सरकार पर दबाव था कि वह स्टेम सेल
रिसर्च पर रोक लगाए. बहरहाल बाद में सरकार ने घोषणा की कि सिंथेटिक बायलॉजी से हो
सकने वाले ख़तरे सीमित तरह के हैं और उसके काम को आगे बढ़ाया जाना चाहिए. यह सिफ़ारिश
राष्ट्रपति बराक ओबामा द्वारा गठित एक विशेषज्ञ समिति ने की.
13 सदस्यों वाली इस समिति की अध्यक्ष एमी गुटमैन ने कहा कि समिति की निगाह में
कृत्रिम जीवविज्ञान के बारे में सबसे पहला सिद्धांत आम आदमी के फ़ायदे में है.
"इस सिद्धांत के मूल में है जनता के संभावित हित को बढ़ाना और संभावित नुक़सान
को कम से कम करना." इस क्षेत्र में एक बड़ी सफलता जे क्रेग वैंटर इंस्टीट्यूट
के वैज्ञानिकों ने एक बैक्टीरिया के एक छोटे से सेल की प्रति बनाकर उसके पूरे
जीनोम को ही बदल दिया, उसे एक अन्य प्रजाति
के एक जीवित सेल में प्रविष्ट किया और इस तरह एक नए और कृत्रिम जीव की रचना की.
कुछ लोगों ने इसकी तीखी आलोचना की और इसे भगवान बनने की कोशिश का नाम दिया.
विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि वैंटर के वैज्ञानिक दल ने नए जीवन की
रचना नहीं की थी, बल्कि पहले से मौजूद
एक जीवन-प्रकार में तब्दीली भर की थी.
कृषि में भी इस्तेमाल
कम्प्यूटर नियंत्रित रचना तकनीक का इस्तेमाल जीवन के हर क्षेत्र में होगा. हाल
में पटना से खबर थी कि बिहार के कृषि कॉलेजों में थ्री-डी प्रिंटिंग की पढ़ाई की
तैयारी की जा रही है. कृषि कॉलेजों और कृषि विश्वविद्यालय के छात्रों को थ्री-डी
प्रिंटिंग तकनीक की जानकारी दी जाएगी. इस तकनीक से कृषि यंत्र, और पेड़-पौधे भी बनाए जा सकते हैं. बीजों के जीन के आधार पर नई
वैरायटी विकसित की जा सकती है. फसल, फल और सब्जियों के आकार के हिसाब से भी इसमें बदलाव संबंधी प्रयोग किए जा सकते
हैं. कम लागत में उपयुक्त सिंचाई मशीन का निर्माण किया जा सकता है. कीट नियंत्रण
में भी इसका उपयोग हो सकता है.
पहले फेज में 2016-17 में बिहार कृषि
विश्वविद्यालय और राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय में मुख्यालय स्तर पर छात्रों को इस
तकनीक से प्रशिक्षित किया जाएगा. इसके बाद शेष सभी कृषि कॉलेजों में इसे लागू किया
जाएगा.
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और 'देशद्रोही' में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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