अभय सिंह, 874, अवधपुरी कॉलोनी, फेज-1, बेनीगंज, फैजाबाद-224001 (उ.प्र.)
सपनों का मनोविज्ञान काफी जटिल है, पर सामान्य धारणा है कि आपके सपने आपके अवचेतन से ही बनते हैं। जैसे जागते समय आप विचार करते हैं वैसे ही सोते समय आपके विचार आपको दिखाई पड़ते हैं। इनमें काल्पनिक चेहरों की रचना कोई मुश्किल काम नहीं है। दूसरी बात यह है कि आप रोज जितने चेहरे देखते हैं सबको याद नहीं रख पाते। सपनों में ऐसे चेहरे भी आ सकते हैं।
हमें ज्यादातर सपने याद नहीं रहते। जिस वक्त हम सपने देखते हैं उस वक्त की हमारी नींद को मनोचिकित्साविद आरईएम (रैपिड आई मूवमेंट) कहते हैं। उस वक्त मस्तिष्क की न्यूरोकेमिकल स्थिति ऐसी होती है कि हमें बहुत कुछ याद नहीं रहता। इसके अलावा दूसरे कारण भी हो सकते हैं। एक कारण यह बताया जाता है कि मस्तिष्क के उस हिस्से में जिसे सेरेब्रल कॉर्टेक्स कहते हैं एक हॉर्मोन नोरेपाइनफ्राइन की कमी होती है। यह हॉर्मोन याददाश्त के लिए ज़रूरी होता है।
सपनों पर बात करने के साथ हमें नींद के बारे में भी सोचना चाहिए। हम दिनभर की मेहनत में जो ऊर्जा खर्च करते हैं, वह आराम करने से ठीक हो जाती है। पर सच यह है कि एक रात की नींद में हम करीब 50 केसीएल कैलरी बचाते हैं। एक रोटी के बराबर। वास्तविक जरूरत शरीर की नहीं मस्तिष्क की है। यदि हम लम्बे समय तक न सोएं तो हमारी सोचने-विचारने की शक्ति, वाणी और नजरों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। नींद से हमारा मानसिक विकास भी होता है। रात में सोने की प्रवृत्ति हमारे जैविक विकास का हिस्सा है।
हम दिन के प्राणी हैं। अनेक जंगली जानवरों की तरह रात में शिकार करके नहीं खाते हैं। हमारी निगाहें दिन की रोशनी में बेहतर काम करती हैं। ऐसा करते हुए कई लाख साल बीत गए हैं। हमारे शरीर में एक घड़ी है जिसे जैविक घड़ी कहते हैं। उसने हमारे रूटीन दिन और रात के हिसाब से बनाए हैं। जब हम निरंतर रात की पालियों में काम करते हैं तो शरीर उसके हिसाब से काम करने लगता है, पर शुरूआती दिनों में दिक्कतें पेश आती हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि नींद के कई चरण होते हैं। इन्हें कच्ची नींद और पक्की नींद कहा जाता है। पक्की नींद में दिमाग इतना शांत हो चुका होता है कि सपने नहीं देखता। कच्ची नींद में बहुत हलचल होती है। इस दौरान आंखों की पुतलियां भी हिलती रहती हैं। इसे ही रैपिड आई मूवमेंट या आरईएम कहा जाता है। यह अचेतन मन की स्थिति है। वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि जगे होने और आरईएम के बीच भी एक चरण होता है। इसे चेतन और अवचेतन के बीच की स्थिति कहते हैं। इसमें व्यक्ति को पता होता है कि वह सपना देख रहा है और अगर वह कोशिश करे तो अपने सपनों पर नियंत्रण भी कर सकता है।
रवि दत्त, म. नं.: एचएम-60, फेज-2, मोहाली-160055
काँच glass एक अक्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है, जिसे किसी भी आकार में ढाला जा सकता है। यह आमतौर पर पारदर्शी होता है, पर अपारदर्शी भी हो सकता है। दुनिया में सबसे ज्यादा और सबसे पुराना काँच ‘सिलिकेट ग्लास’ होता है, जिसका रासायनिक मूल सिलिकेट यौगिक सिलिका (सिलिकन डाईऑक्साइड या क्वार्ट्ज) होता है जो रेत सामान्य रेत का मूल तत्व है। विज्ञान की दृष्टि से 'कांच' की परिभाषा बहुत व्यापक है। इस लिहाज से उन सभी ठोसों को कांच कहते हैं जो द्रव अवस्था से ठंडे होकर ठोस अवस्था में आने पर क्रिस्टलीय संरचना नहीं प्राप्त करते। सबसे आम सोडा-लाइम काँच है जो सदियों से खिड़कियाँ और गिलास वगैरह बनाने के काम में आ रहा है। इसमें लगभग 75% सिलिका, सोडियम ऑक्साइड और चूना के अलावा कुछ अन्य चीजें मिली होती हैं।
इस प्रकार काँच बनता है रेत से। रेत और कुछ अन्य सामग्री को एक भट्टी में 1500 डिग्री सेल्सियस पर पिघलाया जाता है और फिर इस पिघले काँच को उन खाँचों में बूंद-बूंद करके उडेला जाता है जिससे मनचाही चीज़ बनाई जा सके। मान लीजिए, बोतल बनाई जा रही है तो खाँचे में पिघला काँच डालने के बाद बोतल की सतह पर और काम किया जाता है और उसे फिर एक भट्टी से गुज़ारा जाता है।
काँच का आविष्कार मिस्र या मेसोपोटामिया में ईसा से लगभग ढाई हज़ार साल पहले हुआ था। हालांकि उसके पहले ज्वालामुखियों के आसपास प्राकृतिक रूप से बना काँच भी मिलता रहा होगा। शुरु में इसका इस्तेमाल साज-सज्जा के लिए किया गया। ईसा से लगभग डेढ़ हज़ार साल पहले काँच के बरतन बनने लगे थे। ईसवी पहली सदी आते-आते फलस्तीन और सीरिया में एक खोखली छड़ में फूंक मारकर पिघले काँच को मनचाहे रूप में ढालने की कला विकसित हुई और ग्यारहवीं शताब्दी में वेनिस शहर काँच की चीज़ें बनाने का केन्द्र बन गया।
लेंस प्रकाश से जुड़ी एक युक्ति है जो अपवर्तन के सिद्धान्त पर काम करती है। एक पारदर्शक माध्यम, जिससे अपवर्तन के बाद किसी वस्तु का वास्तविक अथवा काल्पनिक प्रतिबिंब बनता है लेंस कहलाता है। मनुष्य ने पारदर्शी शीशे का आविष्कार करके उसके मार्फत देखना शुरू किया होगा तो उसे कई प्रकार के अनुभव हुए होंगे। उन्हीं अनुभवों के आधार पर प्रकाश के सिद्धांत बने। ग्यारहवीं सदी में अरब वैज्ञानिक अल्हाज़न बता चुके थे कि हम इसलिए देख पाते हैं, क्योंकि वस्तु से निकला प्रकाश हमारी आँख तक पहुँचता है न कि आँखों से निकला प्रकाश वस्तु तक पहुँचता है। सन 1021 के आसपास लिखी गई उनकी ‘किताब अल-मनाज़िर’ किसी छवि को बड़ा करके देखने के लिए उत्तल(कॉनवेक्स) लेंस के इस्तेमाल का जिक्र था। यानी लेंस उसके पहले बनने लगे थे। बारहवीं सदी में इस किताब का अरबी से लैटिन में अनुवाद हुआ। इसके बाद इटली में चश्मे बने।
अंग्रेज वैज्ञानिक रॉबर्ट ग्रोसेटेस्ट की रचना ‘ऑन द रेनबो’ में बताया गया है कि किस प्रकाश ऑप्टिक्स की मदद से महीन अक्षरों को दूर से पढ़ा जा सकता है। यह रचना 1220 से 1235 के बीच की है। सन 1262 में रोजर बेकन ने वस्तुओं को बड़ा करके दिखाने वाले लेंस के बारे में लिखा। दूरबीन यानी दूर तक दिखाने वाले यंत्र के आविष्कार का श्रेय हॉलैंड के चश्मा बनाने वालों को जाता है। इटली के वैज्ञानिक गैलीलियो गैलीली ने इसमें बुनियादी सुधार किए। आधुनिक इटली के पीसा नामक शहर में 15 फरवरी 1564 को गैलीलियो गैलीली का जन्म हुआ।
लेंस के आविष्कार के साथ ही सूक्ष्मदर्शी या माइक्रोस्कोप का आविष्कार भी जुड़ा है। यह वह यंत्र है जिसकी सहायता से आँख से न दिखने योग्य सूक्ष्म वस्तुओं को भी देखा जा सकता है। सामान्य सूक्ष्मदर्शी ऑप्टिकल माइक्रोस्कोप होता है, जिसमें रोशनी और लैंस की मदद से किसी चीज़ को बड़ा करके देखा जाता है। माना जाता है सबसे पहले सन 1610 में गैलीलियो ने सरल सूक्ष्मदर्शी बनाया। इस बात के प्रमाण भी हैं कि सन 1620 में नीदरलैंड्स में पढ़ने के लिए आतिशी शीशा बनाने वाले दो व्यक्तियों ने सूक्ष्मदर्शी तैयार किए। इनके नाम हैं हैंस लिपरशे (जिन्होंने पहला टेलिस्कोप भी बनाया) और दूसरे हैं जैकैरियस जैनसन। इन्हें भी टेलिस्कोप का आविष्कारक माना जाता है।
कादम्बिनी, जुलाई 2016 में प्रकाशित