भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने
अर्थशास्त्रियों को चौंकाते हुए पिछले हफ्ते गुरुवार को नीतिगत दरों में 25 आधार
अंक की कटौती की घोषणा की है. बैंक के नए गवर्नर शक्तिकांत दास के कार्यकाल में
बैंक की मोनीटरी पॉलिसी कमेटी की यह पहली बैठक थी. इसमें फैसला 4-2 वोट से हुआ. रिजर्व
बैंक ऑफ इंडिया एक्ट, 1934 में वित्तीय अधिनियम, 2016 के तहत संशोधन करके इस
मोनीटरी पॉलिसी कमेटी का प्रावधान किया गया था. इसके तीन सदस्य रिजर्व बैंक से
होते हैं और शेष तीन केन्द्र सरकार द्वारा नियुक्त. अगस्त 2016 में भारत के गजट
में भारत सरकार ने आरबीआई की सलाह से 31 मार्च 2021 तक के लिए ‘मुद्रास्फीति
का लक्ष्य’ 4 फीसदी का रखा है. इस दर में अधिकतम और न्यूनतम सहनीय
दरें 2 और 6 फीसदी रखी गईं हैं. मौद्रिक नीति की समीक्षा द्विमासिक आधार पर की
जाती है. केंद्रीय बैंक ने रेपो दर में 18
महीनों में पहली बार कटौती की है और अब यह 6.25 फीसदी हो गई है. बैंक ने अपने 'नपे
तुले सख्त' रुख को बदलकर 'तटस्थ' कर दिया. ब्याज की दरें घटने के कारण
मुद्रा-प्रसार का अंदेशा रहता है, पर बैंक ने महंगाई के बारे में अपने अनुमान को
भी कम किया है. उसका मानना है कि मार्च 2019 में समाप्त होने वाली चौथी तिमाही में
यह 2.8 फीसदी रहेगी. वर्ष 2019-20 की पहली छमाही में इसके 3.2 से 3.4 फीसदी और
तीसरी तिमाही में 3.9 फीसदी रहने का अनुमान है.
रेपो रेट होता क्या है?
रेपो रेट रिजर्व बैंक और अन्य बैंकों के बीच
धनराशि के आदान-प्रदान पर दिए जाने वाले ब्याज की दर है. रिजर्व बैंक जब धनराशि
देता है, वह दर रेपो और जब वह दूसरे बैंकों से लेता है तब रिवर्स रेपो दर
कहलाती है. बाजार में मुद्रा की स्थिति को संतुलित बनाए रखने के लिए अक्सर रिजर्व
बैंक और अन्य बैंकों के बीच यह आदान-प्रदान होता है. बैंकों को अपने कामकाज के लिए
अक्सर बड़ी रकम की जरूरत होती है. वे रिजर्व बैंक से ओवरनाइट कर्ज लेते हैं. इस
कर्ज पर ब्याज-दर को रेपो रेट कहते हैं. रिवर्स रेपो रेट बाजारों में नकदी को
नियंत्रित करने में काम आता है. बाजार में जब भी बहुत ज्यादा नकदी दिखाई देती है, आरबीआई
रिवर्स रेपो रेट बढ़ा देता है, ताकि बैंक ज्यादा ब्याज कमाने के लिए अपनी रकम
उसके पास जमा कराएं. बैंकिंग नियमों के तहत हरेक बैंक को अपनी कुल नकदी का एक
निश्चित हिस्सा रिजर्व बैंक के पास रखना होता है. इसे कैश रिजर्व रेशियो (सीआरआर)
या नकद आरक्षित अनुपात कहते हैं.
कुछ अन्य दरें
जिस दर पर बैंक अपना पैसा सरकार के पास रखते है, उसे
एसएलआर (स्टेट्यूयरी लिक्विडिटी रेशियो) कहते हैं. नकदी को नियंत्रित करने के लिए
इसका इस्तेमाल किया जाता है. कॉमर्शियल बैंकों को एक खास रकम जमा करानी होती है
जिसका इस्तेमाल किसी इमरजेंसी लेन-देन को पूरा करने में किया जाता है. आरबीआई जब
ब्याज दरों में बदलाव किए बगैर बाजार में नकदी कम करना चाहता है तो वह सीआरआर बढ़ा
देता है, इससे बैंकों के पास लोन देने के लिए कम रकम बचती है. आरबीआई ने पहली
बार वित्त वर्ष 2011-12 में सालाना मॉनीटरी पॉलिसी रिव्यू में एमएसएफ (मार्जिनल
स्टैंडिंग फैसिलिटी) रेट का जिक्र किया
था. यह अवधारणा मई 2011 को लागू हुई. इसमें सभी शेड्यूल्ड कॉमर्शियल बैंक एक रात
के लिए अपने कुल जमा का 1 फीसद तक लोन ले सकते हैं.
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