महिला आरक्षण विधेयक 6 मई, 2008 को राज्यसभा में पेश किया था, 108वाँ संविधान संशोधन विधेयक था, जो 9 मार्च, 2010 को राज्यसभा से पास हो गया था, पर लोकसभा में इसपर मतदान नहीं हुआ और सन 2014 में 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ यह लैप्स हो गया. स्त्रियों को जन-प्रतिनिधित्व में आरक्षण देने पर संविधान सभा में भी विचार हुआ था. जब सन 1952 में पहली लोकसभा में केवल 4.4 फीसदी महिला सदस्य ही चुनकर आईं, तब इस विचार को बल मिला. सन 1974 में महिलाओं की स्थिति पर तैयार की गई एक रिपोर्ट में कहा गया कि राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं की बेहद कम संख्या को देखते हुए उन्हें पंचायतों और नगरपालिकाओं में आरक्षण दिया जाए. महिलाओं की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (1988–2000) में पंचायतों, पालिकाओं और पार्टियों में 30 फीसदी स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करने का सुझाव दिया गया. सन 1993 में संसद ने स्थानीय निकायों से जुड़े 73वें और 74वें संविधान संशोधन विधेयकों के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में एक तिहाई सीटों महिलाओं के लिए आरक्षित कर दीं. सन 1996, 1998 और 1999 में भी संसद में महिला आरक्षण विधेयक पेश किए गए, पर तीनों पास नहीं हो पाए.
विधेयक की व्यवस्थाएं?
सन 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में घोषित किया गया था. उसी साल ‘राष्ट्रीय महिला अधिकारिता नीति’ लागू हुई, जिसमें उच्चस्तरीय सदनों में भी आरक्षण देने की बात कही गई. सन 2008 में पेश विधेयक के अंतर्गत लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने की व्यवस्था थी. इसमें कहा गया कि अजा, जजा के लिए आरक्षित सीटों में से एक तिहाई उन्हीं वर्गों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी. इन सीटों के लिए चुनाव क्षेत्रों का रोटेशन होता रहेगा. विधेयक के अनुसार यह आरक्षण लागू होने की तिथि से पन्द्रह वर्ष तक रहेगा. हालांकि सभी दल मानते हैं कि महिलाओं के लिए सकारात्मक कदम उठाए जाने चाहिए, पर वे एक तिहाई सीटें महिलाओं को देने पर सहमत नहीं हैं. एक धारणा है कि इस आरक्षण का लाभ सामाजिक रूप से अगड़े वर्गों की महिलाओं को ही मिलेगा, क्योंकि महिलाओं के बीच वे आगे हैं. सन 1996 के विधेयक (81वाँ संविधान संशोधन विधेयक) पर विचार के लिए एक संयुक्त समिति बनाई गई थी, जिसने कहा था कि पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण दिया जाए, जिसके बाद उस वर्ग की स्त्रियों को उसके भीतर आरक्षण दिया जाए.
आरक्षण के अलावा?
स्त्री अधिकारिता के लिए सीटों पर आरक्षण के स्थान पर दूसरे तरीके अपनाने के कुछ सुझाव भी हैं. एक सुझाव है कि राजनीतिक दलों के भीतर प्रत्याशियों की संख्या तय करते समय आरक्षण हो. स्वीडन, अर्जेंटीना, नॉर्वे, कनाडा, यूके और फ्रांस में ऐसी व्यवस्था है. दूसरे दोहरी सदस्यता. यानी कि कुछ चुनाव क्षेत्र एक के बजाय दो प्रतिनिधियों का चुनाव करें. इनमें से एक स्त्री हो. शुरू में भारत में भी बहु-सदस्यीय चुनाव क्षेत्र होते थे, पर सन 1961 के एक अधिनियम के बाद सभी चुनाव क्षेत्र एक-सदस्यीय हो गए. ऐसा महसूस किया गया था कि चुनाव क्षेत्र बहुत बड़े थे और अजा, जजा प्रतिनिधियों का महत्व तभी बढ़ेगा, जब वे ही समूचे क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करेंगे.
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