इंडो-चायना या हिन्द-चीन प्रायद्वीप दक्षिण पूर्व एशिया का एक उप क्षेत्र है। यह इलाक़ा चीन के दक्षिण-पश्चिम और भारत के पूर्व में पड़ता है। इसके अंतर्गत कम्बोडिया, लाओस और वियतनाम को रखा जाता है, पर वृहत् अर्थ में म्यांमार, थाईलैंड, मलय प्रायद्वीप और सिंगापुर को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। यह नाम जहाँ भौगोलिक उपस्थिति को बताता है, वहीं इस इलाके की सांस्कृतिक संरचना को भी दर्शाता है। अतीत में इस नाम का ज्यादातर इस्तेमाल इस इलाके के फ्रांसीसी उपनिवेश इंडो-चाइना (वियतनाम, कम्बोडिया और लाओस) के लिए हुआ।
इस इलाके में बड़ी संख्या में चीन से आए लोग रहते हैं, पर सांस्कृतिक रूप से भारत का यहाँ जबर्दस्त प्रभाव है। प्राचीनतम संपर्क के प्रमाण म्यांमार की पहली सदी की प्यू बस्तियों के उत्खनन में देखे जा सकते हैं। प्यू वास्तुकला, सिक्कों, हिंदू देवी-देवताओं और बुद्ध की मूर्तियों और पुरालेख में देखे जा सकते हैं। अंगकोरवाट एवं ता प्रोह्म जैसे कंबोडिया के विख्यात मंदिरों के अलावा मध्य थाईलैंड का द्वारावती साम्राज्य छठी सदी से लेकर 13 वीं सदी फला-फूला। गुप्त काल में, जो चौथी से छठी सदी ईसवी तक फला-फूला, मलय प्रायद्वीप, वियतनाम और थाईलैंड के समुद्र-तटों के साथ सामुद्रिक संबंध थे। ओडिशा में ताम्रलिप्ति से मलक्का जलडमरूमध्य के माध्यम से दक्षिण पूर्व तक व्यापार नेटवर्क था।
गुप्त वंश ने दक्षिण पूर्व एशिया के शासकों के लिए राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक एकीकरण का एक मॉडल उपलब्ध कराया। इस इलाके में भारतीय प्रतिमा-कला, संस्कृत भाषा और धार्मिक परिपाटियों का प्रभाव था। इस इलाके में रामकथा आज भी रंगमंच पर खेली जाती है। थाईलैंड के खोराट पठार में छठी सदी के संस्कृत शिलालेख हैं। उसी समयावधि के शिलालेख कंबोडिया के साथ-साथ ट्रुओंग साने रेंज में वियतनाम के समुद्र-तट के साथ-साथ भी पाए जाते हैं। सम्राट अशोक ने म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम के साथ-साथ मलय प्रायद्वीप तक बौद्ध भिक्षुओं को भेजा।
हालांकि, हिंदू धर्म ने प्रमुख धर्म के रूप में इधर जड़ें नहीं जमाईं पर हिंदू ग्रंथ पूरे दक्षिण पूर्व एशिया की संस्कृति का हिस्सा बने। थाई महाकाव्य, रामाकिएन रामायण पर आधारित है, और अयोत्थाया का शहर अयोध्या के नाम पर रखा गया। लाओस में, रामायण के लोकप्रिय संस्करण को फा लाक फा लाम कहा जाता है। कम्बोडिया का प्राचीन मंदिर अंगकोर वाट दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मंदिर है। यह कम्बोडिया की राजधानी नोम पेन्ह के उत्तर पश्चिम में स्थित है। अंगकोर वाट की स्थापना सूर्यवर्मन द्वितीय ने 1131 में की थी।
इंडो-चायना नाम का श्रेय डेनिश-फ्रेंच भूगोलवेत्ता कोनराड माल्ट-ब्रन को दिया जाता है, जिन्होंने सन 1804 में इस इलाके को इंडो-चिनॉय कहा। उनके बाद 1808 में स्कॉटिश भाषा विज्ञानी जॉन लेडेन ने इस इलाके को इंडो-चायनीस कहा।
इस इलाके में बड़ी संख्या में चीन से आए लोग रहते हैं, पर सांस्कृतिक रूप से भारत का यहाँ जबर्दस्त प्रभाव है। प्राचीनतम संपर्क के प्रमाण म्यांमार की पहली सदी की प्यू बस्तियों के उत्खनन में देखे जा सकते हैं। प्यू वास्तुकला, सिक्कों, हिंदू देवी-देवताओं और बुद्ध की मूर्तियों और पुरालेख में देखे जा सकते हैं। अंगकोरवाट एवं ता प्रोह्म जैसे कंबोडिया के विख्यात मंदिरों के अलावा मध्य थाईलैंड का द्वारावती साम्राज्य छठी सदी से लेकर 13 वीं सदी फला-फूला। गुप्त काल में, जो चौथी से छठी सदी ईसवी तक फला-फूला, मलय प्रायद्वीप, वियतनाम और थाईलैंड के समुद्र-तटों के साथ सामुद्रिक संबंध थे। ओडिशा में ताम्रलिप्ति से मलक्का जलडमरूमध्य के माध्यम से दक्षिण पूर्व तक व्यापार नेटवर्क था।
गुप्त वंश ने दक्षिण पूर्व एशिया के शासकों के लिए राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक एकीकरण का एक मॉडल उपलब्ध कराया। इस इलाके में भारतीय प्रतिमा-कला, संस्कृत भाषा और धार्मिक परिपाटियों का प्रभाव था। इस इलाके में रामकथा आज भी रंगमंच पर खेली जाती है। थाईलैंड के खोराट पठार में छठी सदी के संस्कृत शिलालेख हैं। उसी समयावधि के शिलालेख कंबोडिया के साथ-साथ ट्रुओंग साने रेंज में वियतनाम के समुद्र-तट के साथ-साथ भी पाए जाते हैं। सम्राट अशोक ने म्यांमार, थाईलैंड, कंबोडिया, वियतनाम के साथ-साथ मलय प्रायद्वीप तक बौद्ध भिक्षुओं को भेजा।
हालांकि, हिंदू धर्म ने प्रमुख धर्म के रूप में इधर जड़ें नहीं जमाईं पर हिंदू ग्रंथ पूरे दक्षिण पूर्व एशिया की संस्कृति का हिस्सा बने। थाई महाकाव्य, रामाकिएन रामायण पर आधारित है, और अयोत्थाया का शहर अयोध्या के नाम पर रखा गया। लाओस में, रामायण के लोकप्रिय संस्करण को फा लाक फा लाम कहा जाता है। कम्बोडिया का प्राचीन मंदिर अंगकोर वाट दुनिया का सबसे विशाल हिंदू मंदिर है। यह कम्बोडिया की राजधानी नोम पेन्ह के उत्तर पश्चिम में स्थित है। अंगकोर वाट की स्थापना सूर्यवर्मन द्वितीय ने 1131 में की थी।
इंडो-चायना नाम का श्रेय डेनिश-फ्रेंच भूगोलवेत्ता कोनराड माल्ट-ब्रन को दिया जाता है, जिन्होंने सन 1804 में इस इलाके को इंडो-चिनॉय कहा। उनके बाद 1808 में स्कॉटिश भाषा विज्ञानी जॉन लेडेन ने इस इलाके को इंडो-चायनीस कहा।
क्या सफेद बाघ की तरह सफेद हाथी भी होते हैं?
दक्षिण पूर्व एशिया के थाईलैंड, म्यांमार, लाओस और कम्बोडिया आदि में सफेद हाथी भी मिलते हैं। इनकी संख्या कम होने के कारण इन्हें महत्वपूर्ण माना जाता है। राजा महाराजा ही इन्हें रखते हैं। हिन्दू परम्परा में सफेद हाथी ऐरावत है इन्द्र की सवारी। पवित्र होने के नाते इस इलाके में सफेद हाथियों से काम भी नहीं कराते। हाथी रखना यों भी खर्चीला काम है, इसलिए सफेद हाथी एक मुहावरा बन गया है।
ज़मीन, हवा और पानी में सबसे तेज रफ्तार वाले जीव कौन हैं ?
सबसे तेज रफ्तार वाला जीव तो इंसान ही है, पर वह अपनी टेक्नोलॉजी की बदौलत। बहरहाल जमीन पर चीता (100 किमी), हवा में पेरेग्राइन फैल्कन या बाज (322 किमी) और पानी में सेलफिश (110 किमी) सबसे तेज रफ्तार वाले जीव हैं।
जब भाषाएं नहीं थीं तब इंसान कैसे बात करते थे?
आप इस चीज़ को छोटे बच्चों में देखने की कोशिश करें। वे भाषा को नहीं जानते, पर अपनी बात कह लेते हैं। मनुष्य की मूल प्रवृत्ति संचार की है। भाषा का विकास अपने आप होता गया और हो रहा है। जब भाषाएं नहीं बनीं थीं तब भी आवाजों, इशारों की भाषा थी।
राजस्थान पत्रिका के 25 जून 2017 के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित
आप इस चीज़ को छोटे बच्चों में देखने की कोशिश करें। वे भाषा को नहीं जानते, पर अपनी बात कह लेते हैं। मनुष्य की मूल प्रवृत्ति संचार की है। भाषा का विकास अपने आप होता गया और हो रहा है। जब भाषाएं नहीं बनीं थीं तब भी आवाजों, इशारों की भाषा थी।
राजस्थान पत्रिका के 25 जून 2017 के नॉलेज कॉर्नर में प्रकाशित
No comments:
Post a Comment